Wednesday, 24 March 2021

सोमलता - सोम की पहचान (5)

सोम अपनी जाति के दूसरे पौधों की तरह नैसर्गिक रूप में इतना अधिक उगता था  कि, आरंभ में  इसकी खेती करने का विचार ही नहीं हो पैदा हो सकता था।  इसे बिना खेती बारी के पैदा होने वाले  पौधों का राजा (अकृष्टपच्यस्य राजा, तैत्ति. 1.6.1.11) कहा गया है। अनुमानतः यह आज के गन्ने की तुलना में पतला, कीटरोधी, मधुर, सुगंधित (सहस्रधारः सुरभिरदब्धः), अधिक ऊर्ज और रसीला होता था। पुराणों में इसे ही कल्पलता या कल्पवृक्ष कहा गया है। आर्यों से इसका सीधा संबंध नहीं,  क्योंकि आर्य शब्द कृषि कर्म की देन है और यह वन्य उत्पाद था और देव समाज के अस्तित्व में आने से पहले से, उनकी आसुरी अवस्था से ही चूसा (जंभसुत), और कूट कर रस निकाल कर पिया जाता था।  ऋग्वेद में पितरों के सोमभक्षी होने का विशेष रूप में उल्लेख मिलता है (ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः, 6.75.10; उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः ।10.15.1; उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु । 10.15.5) सोम के बल से ही दुष्कर कार्य करने वाले (त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कमाणि चक्रुः पवमान धीराः । 9.96.11)। सोम कितने प्राचीन चरण से इनके आहार का हिस्सा था, इसका कुछ संकेत रीति विधान से मिलता है। संतुलित आहार की दृष्टि से गन्ने का रस पर्याप्त नहीं है।  इसके लिए इसमे दूध (गवाशिर), दही (दध्याशिर),, घी (घृतासुत) और शालिचूर्ण, या धान का लावा मिलाया जाता था (जिनका स्थान जव के सत्तू (यवाशिर)और भुने हुए जव या धाना ने ले लिया था), मिलाया जाता था जिसे अरंकरण (आपूर्ति) कहा जाता था और इस तरह तैयार सोम को अरंकृत, मिश्र (सुत इत्त्वं निमिश्ल इन्द्र सोमे),  आमिक्षायुक्त (स सोम आमिश्लतमः सुतो) दूधिया  या, गवाशिर (पिब शुचिं सोमं गवाशिरम् ) रूपों में ग्रहण किया जाता था।  जलपान के रूप में चबेने  के साथ गुड़ खाने या रस पीने का चलन आज भी गाँवों में देखा जा सकता है। धानावन्त सोम की इसी रूप में कल्पना की जा सकती है।  करंभ (सत्तू मिले दही) और  पुए के संदर्भ में सोम इनके तैयार करने में  प्रयुक्त सोम का ही द्योतक हो सकता है (धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम्  । इन्द्र प्रातर्जुषस्व नः,  3.52.1)।  परंतु जिस चरण पर ये पूरक आहार उपलब्ध नहीं थे उन दिनों  पीपल, बरगद, और गूलर के फल  कोसुखा कर उसका सत्तू बनाकर सोम के साथ सेवन करने का संकेत मिलता है। 

मुज प्रजाति के सभी पौधों में केवल गन्ना  ही  ऐसा है जिसके छिल्के पर  कार्बन की  एक पतली झिल्ली जम जाती है।   इसके कारण पेरने या कूटने से पहले इसकी धुलाई करनी होती है।  यह काम गन्ने का रस निकाल कर बेचने वाले फेरी वाले भी करते हैं। सोम के संदर्भ में  इसके मार्जन का हवाला आता है [अभि क्षिपः समग्मत मर्जयन्तीरिषस्पतिम् । पृष्ठा गृभ्णत वाजिनः ।। 9.14.7]। 

प्रक्षालन  का  काम दो बार होता था, पहला सोमांशु या डंठल का और दूसरा पेरने के बाद निकले हुए रस का जिसके लिए मेषी के  वार का दशापवित्र (छननी) के रूप में प्रयोग किया जाता था। इसमें पर्याप्त सावधानी बरती जाती थी [त्वां मृजन्ति दश योषणः सुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम् । अव्यो वारेभिरुत देवहूतिभि- नृभिर्यतो वाजमा दर्षि सातये ।। 9.68.7] 

ऐसा लगता है  सोम की  आपूर्ति करने वाले,  या उसकी खरीद करने वाले,  नदी के  जल में ही  इसे धो लेते थे [तमी मृजन्त्यायवो हरिं नदीषु वाजिना । इन्दुमिन्द्राय मत्सरम् ।। 9.63.17]।

इसके लिए  नैसर्गिक रूप में उगने वाले सोम की प्राप्ति के पूरे तंत्र को समझना जरूरी है।  जब तक  देवों के पूर्वज  पूर्व में रहते थे तब तक सोम की  उपलब्धता  की कोई समस्या नहीं थी।  यह, पितरः सोम्यासः से भी प्रकट है, और इस बात से भी कि  खेती आरंभ करने के बाद भी  वे वन्य संपदा का यथाशक्य  उपयोग करते रहे।  परन्तु ,  इसकी आसन्न सुलभता के  क्षेत्र से  हट जाने के  बाद, इसका आयात करना जरूरी था। इसका परिवहन नदी मार्ग से होता था  और यह मथुरा,  पहले मधुरा (कुछ बाद में मधुपुर कहा जाता था), वहां तक  नौका से लाया जाता था।  कुरुक्षेत्र के व्यवसायी मथुरा से सोम खरीदते थे (अथ यत् अपां अंते क्रीणाति), और आगे गाड़ी से ढोकर ले जाते थे (अनसा परिवहन्ति) । 
हमने पीछे चाँद संबंधी जिस लोरी का हवाला दिया था, उसे यथावत दुहराना उपादेय है:
चान मामा चान मामा
आरे आव पारे आव
चानी के कटोरिया में दूध-भात ले ले आव...
लोक चेतना में यह कैसे बना रह गया कि सोम लोक में पहुँचने से पहले नदी तट पर पहुँचता था, इसे पढ़ कर भी दुविधा पैदा होती है कि कहीं अनधिकार खींच-तान न हो रही हो।

आश्चर्य नहीं कि  व्यापारिक गतिविधियों का आरंभ सोम के क्रय विक्रय से ही हुआ हो । इसके कारण सोमपान धनी लोग ही कर सकते थे (सोमो वै राजपेयः,  तै.ब्रा. 1.3.23), गरीब आदमी को यह बदा नहीं था (न सोमो अप्रता पपे ।। 8.32.16)।

स्थानीय उपयोग के लिए जो ओषधि पर्याप्त थी उसका बड़े पैमाने पर अतिदोहन आरंभ होने पर आपूर्ति बंद हो जाने के बाद सोम की खेती करने की विवशता पैदा हुई। इसे पुराणों में आबादी बढ़ जाने के कारण कल्पलता या कल्पवृक्ष के अतिदोहन से धरती से उसके लोप और इस विवशता में खेती के आरंभ से जोड़ा गया है जब कि हम अपनी खोज में इसे सोम की खेती के रूप में ध्वनित पाते हैं।

इससे पहले इसकी खेती करने का विचार पैदा हो ही नहीं सकता था।  इसे बिना खेती बारी के पैदा होने वाले  पौधों का राजा (अकृष्टपच्यस्य राजा, तैत्ति. 1.6.1.11) कहा गया है। अनुमानतः यह आज के गन्ने की तुलना में पतला, कीटरोधी, मधुर, सुगंधित, अधिक ऊर्ज, रस वाला होता था। पुराणों में इसे ही कल्पलता या कल्पवृक्ष कहा गया है। आर्यों से इसका सीधा संबंध नहीं,  क्योंकि आर्य शब्द कृषि कर्म की देन है और यह वन्य उत्पाद था और देव समाज के अस्तित्व में आने से पहले से, उनके आसुरी अवस्था से चूसा (जंभसुत), और कूट कर रस निकाला जाता था।  ऋग्वेद में पितरों के सोमभक्षी होने का विशेष रूप में उल्लेख मिलता है (ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः, 6.75.10; उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः ।10.15.1; उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु । 10.15.5) सोम के बल से ही दुष्कर कार्य करने  (त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कमाणि चक्रुः पवमान धीराः । 9.96.11; येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञाः स्वर्विदो अभि गा अद्रिमुष्णन्  ।। 9.97.39) मे पितर समर्थ हुए। 

सोम कितने प्राचीन चरण से इनके आहार का हिस्सा था इसका कुछ संकेत रीति विधान से मिलता है। संतुलित आहार की दृष्टि से गन्ने का रस पर्याप्त नहीं है।  इसके लिए इसमे दूध(गवाशिर), दही((दध्याशिर),, घी(घृतासुत) और शालिचूर्ण, या धान का लावा मिलाया जाता था (जिनका स्थान जव के सत्तू (यवाशिर)और भुने हुए जव या धाना ने ले लिया था), मिलाया जाता था जिसे अरंकरण (आपूर्ति) कहा जाता था और इस तरह तैयार सोम को अरंकृत, मिश्र (सुत इत्त्वं निमिश्ल इन्द्र सोमे),  आमिक्षायुक्त(स सोम आमिश्लतमः सुतो) दूधिया  या, गवाशिर (पिब शुचिं सोमं गवाशिरम् ) ।  जलपान के रूप में चबेने के साथ गुड़ खाने या रस पीने का चलन आज भी गाँवों में देशा दा सकता है। धानावन्तं सोम की इसी रूप में कल्पना की जा सकती है।  करंभ (सत्तू मिले दही) और  पुए के संदर्भ में सोम इनके तैयार करने में  प्रयुक्त सोम का ही द्योतक हो सकता है (धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम्  । इन्द्र प्रातर्जुषस्व नः,  3.52.1)।  परंतु जैसे चैनल पर यह पूरक आहार उपलब्ध नहीं थे उन दिनों  पीपल बरगद, और गूलर के फल  को पूछ कर उसका सत्तू बनाकर सोम के साथ सेवन करने का संकेत मिलता है। 

मुझे प्रजाति के सभी पौधों में केवल गन्ना  ही ही ऐसा है जिसके इसके छिलके पर  कार्बन की  एक पतली झिल्ली जम जाती है।   इसके कारण पेरने या कूटने से पहले इसकी धुलाई करनी होती है।  यह काम गन्ने का रस निकाल कर बेचने वाले तेरी वाले भी करते हैं। शुभम के संदर्भ में  इसके मार्जन का हवाला आता है [अभि क्षिपः समग्मत मर्जयन्तीरिषस्पतिम् । पृष्ठा गृभ्णत वाजिनः ।। 9.14.7]। 

प्रक्षालन  का  काम दो बार होता था, पहला सोमांशु या डंठल का और दूसरा पेरने के बाद निकले हुए रस का जिसके लिए मेषी के  वार का दशापवित्र (छननी) के रूप में प्रयोग किया जाता था। इसमें पर्याप्त सावधानी बरती जाती थी [त्वां मृजन्ति दश योषणः सुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम् । अव्यो वारेभिरुत देवहूतिभिर्नृभिर्यतो वाजमा दर्षि सातये ।। 9.68.7] ऐसा लगता है  सोम की  आपूर्ति करने वाले,  या उसकी खरीद करने वाले,  नदी के  जल में ही  इसे धो लेते थे [तमी मृजन्त्यायवो हरिं नदीषु वाजिना । इन्दुमिन्द्राय मत्सरम् ।। 9.63.17]।
 
इसके लिए  नैसर्गिक रूप में उगने वाले सोम की प्राप्ति के पूरे तंत्र को समझना जरूरी है।  जब तक  देवों के पूर्वज  पूर्व में रहते थे तब तक सोम की  उपलब्धता  की कोई समस्या नहीं थी।  यह, पितरः सोम्यासः से भी प्रकट है, और इस बात से भी कि  खेती आरंभ करने के बाद भी  वह वन्य संपदा का यथाशक्य  उपयोग करते रहे।  परन्त बाद में,  इसकी आसन्न सुलभता के  क्षेत्र से  हट जाने के  बाद, इसका आयात करना जरूरी था। इसका परिवहन नदी मार्ग से होता था  और यह मथुरा,  पहले मधुरा (कुछ बाद में मधुपुर कहा जाता था), वहां तक  नौका से लाया जाता था।  कुरुक्षेत्र के व्यवसायी मथुरा से सोम खरीदते थे (अथ यत् अपां अंते क्रीणाति, सधस्थे सो कर आगे गाड़ी से ढोकर ले जाते थे (अनसा परिवहन्ति) । आश्चर्य नहीं कि  व्यापारिक गतिविधियों का आरंभ सोम के क्रय विक्रय से ही हुआ हो । इसके कारण सोमपान धनी लोग ही कर सकते थे (सोमो वै राजपेयः,  तै.ब्रा. 1.3.23), गरीब आदमी को यह बदा नहीं था (न सोमो अप्रता पपे ।। 8.32.16)।  
स्थानीय उपयोग के लिए जो ओषधि पर्याप्त थी उसका बड़े पैमाने पर अतिदोहन आरंभ होने पर आपूर्ति बंद हो जाने के बाद सोम की खेती करने की विवशता पैदा हुई। इसे पुराणों में आबादी बढ़ जाने के कारण कल्पलता या कल्पवृक्ष के अतिदोहन से धरती से उसके लोप और इस विवशता में खेती के आरंभ से जोड़ा गया है जब कि हम अपनी खोज में इसे सोम की खेती के रूप में ध्वनित पाते हैं।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

सोम की पहचान (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/4.html
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