Sunday, 21 March 2021

सोमलता - सोम की पहचान (1)

दुनिया के लगभग सभी देश  आहार संग्रह की अवस्था से ही नशीले पदार्थों  से परिचित  और उनके खतरों से बचते हुए  उनका सेवन करते रहे। नशे में डूब जाने वाले अपवाद स्वरूप ही रहे हैं। लोग अपने उपयोग के लिए सुलभ साधनों से इनका प्रबंध कर लेते थे और परिचित अपरिचित कोई चाहे तो उसे भी पेश कर देते रहे हैं। कम से कम सुरती औग चिलम के साथ आज भी इसका निर्वाह होता है। 

 नए नशीले पदार्थों में उत्तेजेना, एकाग्रता, या बौद्धिकता या आनन्दानुभूति पैदा  करने वाला बता कर किसी समाज में प्रचारित करके उसका आदी बना देना,  उसके उत्पादन और खपत को प्रबंधित करते हुए  उसको सोने चाँदी की जगह विनिमय के लिए इस्तमाल करने की सूझ यूरोप की थी। 

उन्हें  ऋग्वेद में सोम के विषय में यह पढ़ने को मिला कि यह मदास है मंदिर है और फिर भी बुद्धि और चिंतन को बढ़ावा देने वाला है तो उनकी रुचि इसकी पहचान करके इसकी खेती करने/कराने और अपने कारोबार का हिस्सा बनाने की आकांक्षा के कारण बढ़ी।  उनके लिए यह मात्र उत्तेजक और आह्लादकारी पेय (deady drink) था।  यदि इसका पता चल गया तो उसका कारोबार उन्हें मालामाल कर सकता था।   

सोम उनके हाथ लगा भी,  और देश देशांतर में उन्होंने इसका कारोबार ही आरंभ कर दिया, परंतु उन्हें या किसी और को इस बात का गुमान नहीं हुआ सोम लता यही है।  मेरा तात्पर्य  गन्ने से है। 

इसे स्पष्ट करना जरूरी है क्योंकि सोमरस और सोम लता के विषय में इतने भरमाने वाले विचार प्रख्यात वेद विदों और वनस्पतिशास्त्रियों में भी व्याप्त रहे हैं कि  वे कुकुरमुत्ते की प्रजाति के फ्लाई ऐगेरिक (psychotropic substance)[1]  

को सोमलता मान सकते हैं क्योंकि उसमें इतना तीखा नशा होता है कि जान पर बन आए। पर गन्ने को नहीं जब कि ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक कृतियों में यह बार बार समझाया गया है कि यह तृप्तिदायक होता 

[1]  देखें विकीपीडिया,  सोम, जिसमें लेखक ने  सोम की पहचान फ्लाई ऐगेरिक के रूप में की है।  पर Fly agaric is poisonous and infamous for its psychoactive and hallucinogenic properties. But, reports of human deaths are extremely rare. It was traditionally used as an insecticide.] 

नशीला नहीं। इसे उससे ठीक विपरीत प्रकृति और गुण वाला द्रव्य बताया गया है।  सुरा के साथ सोम की  तुलना इन शब्दों में की गई है :  सत्यं, श्री, ज्योतिः सोमो, अनृतं, पाप्मा, तमः सुरा। शत. 5.1.2. 10. ।[2] 

[2]  सोम लता पर मैंने लंबे समय तक शोधकार्य किया है और उस क्रम में समस्त वैदिक कृतियों और आधुनिक पाश्चात्य लेखन की पड़ताल की है परन्तु उस पर काम पूरा होता इससे पहले सीताराम गोयल के आग्रह पर ‘दि वेदिक हड़प्पन्स’ का भूत सवार हो गया और तीन साल का  व्यवधान आने के कारण दूसरे अनेक कामों की तरह वह पूरा न हो सका।  
 
सोम की पहचान को लेकर कितनी भ्रांति है इसका एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मैं यह जानने के लिए कि Birbal Sahni Institute of Palaeosciences (formerly, Birbal Sahni Institute of Palaeobotany; BSIP) के निदेशक सारस्वत से मिलना चाहा तो मेरा प्रयोजन जानने के बाद उस अनुसंधान कर्ता से मिलवा दिया जो पुरावानस्पतिक अनुसंधान से संबद्ध था। उन्होंने बताया कि इसका प्रचलन बहुत पुराना है।  अफगानिस्तान की लगभग एक लाख वर्ष पुरानी कब्र में दफ्न किसी व्यक्ति की छाती पर रखा इसका बीज मिला है। मैं अपनी हँसी रोक न पाया। मैंने बताया कि सोम के बीज या फल नहीं होते थे। इसकी जड़ों से ही बाँस की तरह कल्ले फूट कर बढ़ते जाते थे। जब इसकी खेती आरंभ हुई तो इसके टुकड़े काट कर जमीन में दबाए जाते थे। उसे इसका तो पता ही न था। अब वह मेरे साथ सारस्वत के पास पहुंचा। वह मेरे नाम से परिचित थे। समस्या बताई तो उन्होंने स्वीकार किया कि इस विषय में किसी को कुछ पता नहीं है। सब पश्चिमी लेखकों की अटकलों के बीच तीरंदाजी कर रहे है।  

पाश्चात्य विद्वानों को सोम को समझने की नहीं, नशे की तलाश थी और इसे भारत पर सोमपान करने वालों के आक्रमण के प्रमाण   के रूप में पेश करने का हठ था जिसके कारण वे वैदिक कृतियों में वर्णित इसके लक्षणों की उपेक्षा करके ईरान और उससे पश्चिम जिन नशीले विकल्पों का दैनिक जीवन या कर्मकांड में चलन दिखाई दिया उसे ही सोम मान बैठे।  अकेले भारत में इसकी पहचान संभव थी, पर यदि वह पश्चिमी देशों में सुलभ नहीं था तो वह सभी कसौटियों पर खरा उतरता हो तो भी इसे स्वीकार नहीं कर सकते थे। ऐसा करना आक्रमण के उस सिद्धान्त और पश्चिम की सनातन श्रेष्ठता के उनके दावे के विरुद्ध होता जिसे गढ़ने सँवारने में उनकी कई पीढ़ियों की हजारों अनन्य विभूतियों ने अपना जीवन उत्सर्ग किया था और आज भी जोर दरवाजे से इसके लिए प्रयत्नशील हैं।  भारतीय विद्वान या तो पश्चिम के परजीवी रहे हैं, या प्रतिक्रियावादी जिसके चलते वे भी उसी चौखटे के भीतर रह कर सोचते और लिखते रहे जिनमें संस्कृत के विद्वान भी आते हैं, जिसके कारण वे अपनी कृतियों को भी उनकी व्याख्या के अनुसार समझते रहे और तिल का ताड़ बनाते रहे और अक्सर तो अपनी व्याख्या की तार्किक परिणति तक का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते रहे हैं।

उदाहरण के लिए राहुल जी जैसे विद्वान जिनके संस्कृत और वैदिक के ज्ञान के विषय में किसी तरह का संदेह नहीे किया जा सकता, नशे वाले गुण के इतने कायल हो गए थे कि ऋग्वेद में केवल एक बार  सोम केवल एक बार यह अर्धर्च देख कर कि भंग को दूध या दही में मिला कर उसके स्वाद को बढ़ाया (परिष्कृत किया) गया है (गोभिः भंगं परिष्कृतम्) [3] अन्य सभी विवरणों की उपेक्षा करके इसे भाँग मान बैठे।  हमें उनकी इस सूझ से कोई शिकायत नहीं क्योंकि उनकी इस सूझ के पक्ष में कुछ और भी दलीलें दी जा सकती हैं। समस्या तब पैदा होगी जब हम सभी विवरणों को एकत्र करते हैं।   हमें शिकायत इस बात से है कि यदि उन्होंने जब मान लिया कि सोम सिल बट्टे पर पीस कर पिया जाने वाला भंग था, तो वह यह कैसे मान सकते थे कि सोम का सेवन करने वाले भारत में बाहर से आए थे? क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में भांग के, और वह भी,  इस रूप में सेवन का प्रमाण तो मिलता नहीं।
[[3] उपे षु जातमप्तुरं गोभिर्भंगं परिष्कृतम् । इन्दुं देवा अयासिषुः ।। 9.61.13]] 

हम कह आए हैं सोम गन्ना था, पर इसके रस में कुछ तो ऐसा था कि इसे सुरा की तुलना में रखते हुए उससे श्रेष्ठ सिद्ध किया गया।  आज हम केवल मादकता वाले इस पक्ष की संक्षेप में चर्चा करते हुए अपनी बात समाप्त करेंगे।  

जो लोग गन्ने के रस से परिचित हैं, जिनकी पूरबी ग्रामीण पृष्ठभूमि है वे जानते हैं कि गन्ने के रस को, और ताड़ के रस का भी यदि तुरत पान किया जाय तो यह मीठा और मादकता रहित होता है। ताड़ी या ताड़ के  टपकते रस को  बारह घंटे या इससे अधिक अवधि के बाद उतारी जाती है, इसलिए उसे तत्काल पियें तो इसमें मिठास बनी रहती है, हल्की मादकता भी होती है पर उससे नशा नहीं मस्ती की अनुभूति होती है।  इसे यदि लंबे समय तक रहने दियी जाय को मिट्टी के पात्र में भी किण्वन इतना प्रखर हो जाता और मादकता इतनी बढ़ जाती है कि पासी उसमें पानी मिला कर बेचते हैं फिर भी उसे छक कर पीने वालों पर उसका प्रभाव देखते ही बनता है।

मनुष्य में गतानुगतिक से कुछ अलग करने, या अनुभव करने की आकांक्षा  विरासत भले आहारसंग्रही चरण से मिली हो, पर यह पाई सभी समाजोे में है।  पहली परंपरा में नशाखोरी को श्लाघ्य माना जाता रहा है, दूसरी परंपरा इसके दुष्प्रभावों से अवगत होने के कारण नशाखोरी को दोष मानती रही है फिर भी स्वीकृत सीमाओं में उसके अवसर तलाश लिए जाते रहे हैं। सुरा से परहेज करने वाले भी पास या किण्वित सोम रस का - तीव्र सोम या त्रिसंध्य सोम का पान करते रहे।  यह बंध ब्राह्मणों तक सीमित था, क्षत्रिय और वैश्य सुरा का सेवन कर सकते थे। यहाँ तक कि सौत्रामणि के आयोजन पर ब्राहमण भी सुरापान करते थे।
( क्रमशः )

भगवान सिंह 
( Bhgwan Singh )

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