Thursday, 18 March 2021

दक्षिणपंथ और वामपंथ - 3.- पूंजीवाद, साम्यवाद, नाजी, फासीवाद, माओवाद का जन्म

ब्रिटेन और बाद में यूरोप में वर्ष 1780 से 1820 के बीच हुए प्रचंड औद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा वैचारिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए।  इस तरह विश्व में एक नए युग का प्रारम्भ हुआ जिसे औद्योगिक क्रान्ति’ की संज्ञा दी। इस युग में जल तथा वाष्प के इंजन की शक्ति से चलित यंत्रों का आविष्कार हुआ जिसके कारण कारखानों की स्थापना होने लगी। कारखानों की स्थापना और मजदूरों की बहुलता के कारण नए नए नगर बसने लगे। गाँव और शहरों से लोग पैसे कमाने के लिए शहरों के कारखानों में मजदूरी करने आने लगे। अधिक संख्या में कारखाने और मजदूरों की अधिक संख्या के कारण खपत योग्य वस्तुओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा। अधिकाधिक वस्तुओं के उत्पादन के कारण उत्पादित वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए यातायात के नए और तेज गति वाले साधनों का विकास हुआ। 19वी शताब्दी में यह पूरे पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में फैल गयी। औद्योगिक उत्पादों को आंतरिक और विदेशी बाजारों में पहुंचाने के लिए व्यापारिक गतिविधियां तेज हुई जिससे औद्योगिक देश धनी बनने लगे। इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था उद्योग प्रधान हो गई। वहां औद्योगिक पूंजीवाद का जन्म हुआ। जिनके पास पहले से रुपया था, उन्हीं लोगों ने मशीनें और कारखाने लगाए। ऐसा करना एक महँगा काम था। इसलिए कारखाने सीमित थे। सामान की जरुरत बहुत थी। इसलिए एक बार कारखाने लगाने का मतलब था मुनाफे की गारंटी। फैक्ट्री सिस्टम की शुरुआत हुई। चूँकि मज़दूरों की कोई कमी नहीं थी, इसलिए उन्हें बहुत कम वेतन मिलता। मज़दूरों के लिए कोई कानून नहीं थे। वे 16-18 घंटे तक मशीनों पर काम करते। बदले में वेतन बहुत कम। सारा मुनाफा कारखाना लगाने वाले कारखाना मालिक के पास जाता था। इसे #पूँजीवाद कहा गया। 

पूंजीवाद के जन्म होने पर इसमे कई सारी विसंगतियां थी। शायद यही वजह थी कि कार्ल मार्क्स इसके घोर विरोधी थे। कार्ल मार्क्स ने अपनी किताबों और लेखों के माध्यम से साम्यवाद का विचार दिया जो पूंजीवाद के एकदम विपरीत था ,उनकी प्रसिद्ध क़िताब दास कैपिटल थी। जो शायद मानव इतिहास की सब से खूनी किताब है। #साम्यवाद ऐसी आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था की कल्पना है जहा कोई निजी संपत्ति नही होगी , कोई परिवार नही, सभी का संसाधन पर समान अधिकार, कोई किसी का शोषण नही करेगा ,आदि महान विचार लेकिन यह लागू कैसे होगा इसके तीन चरण थे। प्रथम चरण में क्रांति या विद्रोह उसके बाद तानाशाही उसके बाद साम्यवाद की स्थापना हो सकती है। यह विद्रोह श्रमिक लोग करेगे फिर सारे संसाधनों पर अधिकार कर तानाशाही लाएंगे उसके बाद साम्यवाद...कार्ल मार्क्स के अनुसार क्रांति वही आएगी जहा पूंजीवाद पूरी तरह से व्याप्त हो तब साम्यवाद लाया जा सकता है। लेकिन अभी तक यह सिर्फ कागजों और विचारों तक ही सीमित था इसको जमीन पर लागू किया लेनिन ने रूस में...जिसे लेनिनवाद कहा जाता है...कार्लमार्क्स के अनुसार क्रांति और साम्यवाद वही लागू हो सकता है जहाँ पूँजीवाद हो किंतु रूस में तो ऐसा कुछ तब तक नही था सिर्फ राजा था इसलिए लेनिन ने मार्क्स के विचारों में परिवर्तन कर वहां इसको लागू किया। ये जो विचारात्मक परिवर्तन लेनिन ने किए वही #लेनिनवाद है। इसके जन्म के बारे में आप आगे जानेंगे। 

वही समाजवाद की उदय की बात है तो उसका इतिहास बहुत पुराना है। सभी लोगों के लिए खुशहाली वाले समाजवाद की कल्पना जीज़स क्राइस्ट से लेकर मौर्य साम्राज्य में की जा चुकी थी। फ्रेंच क्रांति के आसपास आधुनिक दुनिया में इसकी दलील देने वाले समाजवादी गरीबों के अधिकारों की बात करने लगे। इनमें से कुछ नाम हैं प्रूधों, सेंट-साइमन, लुई ब्लैंक, चार्ल्स फूरियर, रॉबर्ट ओवन। #समाजवाद से तात्पर्य था कि जिस व्यक्ति में जितनी प्रतिभा हो, जो व्यक्ति जितना काम करे, उस हिसाब से उसे पैसा मिलना चाहिए। सरकार को ऐसे कदम उठाने चाहिए, कि सब लोगों को शिक्षा मिल सके, और वे प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के क़ाबिल हों। चूँकि ये सब विचारक गरीबों के लिए न्याय की माँग कर रहे थे, इसलिए समाजवाद और साम्यवाद को ज़ाहिर तौर पर वामपंथी विचार माना गया। चूँकि दक्षिणपंथ का मतलब है वामपंथ का विरोध, इसलिए पूँजीवाद को दक्षिणपंथ मान लिया गया। साथ ही लोकतंत्र के लिए दुनियाभर में संघर्ष चल ही रहा था। पूँजीवादी, राजा, नवाब, पादरी दक्षिणपंथी हो गए। वामपंथियों के संघर्ष के लिए लगातार नई किताबें आ रही थीं। ऐसा कहीं नहीं मिलता कि वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के बीच उस समय कोई बुद्धिजीवी डिबेट चल रही हो। क्योंकि दक्षिणपंथियों का विचार बस वही था - ऊँच-नीच वाली व्यवस्था में मलाई चाटना। वे अपनी राजनैतिक और आर्थिक शक्ति का इस्तेमाल करते रहे। मार्क्स को उनके विचारों की वजह से प्रुसिया (आधुनिक जर्मनी), फ्रांस और बेल्जियम से देशनिकाला दिया जाता रहा। आखिरकार वे लंदन जाकर बसे। 1848 में यूरोप के बहुत से देशों में क्रांति हुई। राजशाही को ज़बरदस्त टक्कर मिल रही थी। 

इसी समय महान अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने लसे-फेयर पूँजीवाद की बात कही। यानि सरकार का अर्थव्यवस्था पर कोई नियंत्रण ना हो। लेकिन उन्होंने भी यह इस बिनाह पर कहा कि प्रतियोगिता के आधार पर चीज़ों के दाम खुद-ब-खुद नियंत्रित हो जाएँगे। आम लोगों को इससे फायदा होगा। यानि उन्होंने भी लोगों की बदहाली पर ठप्पा नहीं लगाया। लोगों की बदहाली पर ठप्पा लगाने का केवल एक तरीका था - पिछले जन्म के पाप। इसी वजह से ऐसा होता था कि बहुत से लोग अन्याय को भगवान द्वारा दी जा रही सजा मान लेते थे। इसे अपनी परिणीति कह लेते थे। मार्क्स ने कहा कि यह धर्म की वजह से है, कि ये इस प्रत्यक्ष अत्याचार को भी प्रसाद मान रहे हैं। उन्होंने धर्म को जनता की अफीम कहा।चारों तरफ बदहाली का मंज़र था। इसका सीधा कारण यह था कि उस समय प्रतियोगिता ज़्यादा नहीं थी। दूसरी बात यह कि आज के समय में भी बड़े पूँजीवादी दुनियाभर में अपनी एसोशिएशन बनाकर कुछ मौलिक बातों पर एकत्रित रहते हैं। यह एक आम बात है कि सभी कार कंपनी इकट्ठे मिलकर अपनी कार के दाम बढ़ा देती हैं। रूस में भी राजा के अत्याचारों के खिलाफ प्रयत्न हो रहे थे। 1905 में इसने मज़दूरों और किसानों के विद्रोह का रूप ले लिया। धार्मिक और संताजीय (एथनिक) अल्पमत भी राजा निकोलस की 'रूसीकरण' की नीतियों के चलते अत्याचार के शिकार हो रहे थे। लाखों मज़दूर 22 जनवरी को निकोलस को एक याचिका पेश करने सेंट पीटर्सबर्ग वाले महल के सामने आए। निकोलस ने उन पर गोलियाँ चलवा दी। इस घटना को 'ब्लडी संडे' कहा जाता है। इसकी वजह से क्रांति अधिक उफनने लगी। आखिकार निकोलस को ड्यूमा (संसद) की स्थापना की घोषणा करनी पड़ी। हालाँकि इसे कोई ख़ास शक्ति प्राप्त नहीं थी। फरवरी 1917 में निकोलस का तख्तापलट हुआ। अक्टूबर क्रांति में लेनिन के रूस की सत्ता को अपने हाथों में लिया। लेनिन ने मज़दूरों और किसानों को लेकर जल्द ही रेड आर्मी बनाई। कुछ साल रेड आर्मी और राजा के नुमाइंदों की व्हाइट आर्मी में लड़ाई चलती रही। आखिरकार 1922 में रेड आर्मी की जीत हुई, जिसका श्रेय सैनिकों के साथ कमांडर लियोन ट्रोट्स्की को भी जाता है। लेनिन ने किसानों और मज़दूरों के लिए नीति बनाई। 5 दिन x 8 घंटे के कार्यकारी सप्ताह की शुरुआत की, जो अब भारत में भी अपनाया जाता है। उन्होंने औरतों और बुजुर्गों की शिक्षा के लिए भी इंतज़ाम किए। वे मार्क्स के प्रशंसक थे। हालाँकि मार्क्स की राजनैतिक व्यवस्था के नहीं, जिसमें मार्क्स ने धीरे-धीरे सरकार को ही हटा देने का विचार दिया था। लेनिन ने नई राजनैतिक व्यवस्था शुरू की, जिसे लेनिनवाद या मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्यवस्था कहा जाता है। जिसके बारे में आप ऊपर पढ़ चुके है। 1922 में ही लेनिन की सेहत बिगड़ने लगी थी। 1924 में उनकी मृत्यु हो गई। मरने से पहले उन्होंने 'लेनिन टेस्टामेंट' नाम के डॉक्यूमेंट में स्टालिन को सत्ता ना दिए जाने की बात कही। लेकिन ट्रोट्स्की के हाथ से बाज़ी निकल गई। उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा। स्टालिन रूस का तानाशाह बन गया।

इसके साथ ही जहां दुनिया से राजशाही जा रही थी, वहीं अब कुछ लोगों की तानाशाही आ रही थी। इनमें से कोई व्यक्ति यह नहीं कहता था कि मैं सामाजिक ऊँच-नीच कायम करना चाहता हूँ। यह भी नहीं कहता था कि मुझे सत्ता भोगने में मज़ा आता है। वे यही कहते थे कि वे लोगों के लिए यह सब कर रहे हैं। इसके लिए जनता के आगे एक पेपर टाइगर, यानि कागज़ी शेर तैयार किया जाता है। जिसकी वजह से लोगों को डराया जाता है। किसी को 'एनिमी ऑफ़ द पीपल' यानि गणशत्रु बताया जाता है। एक बार आम लोगों के दिमाग में यह डर बैठ गया, तो वे तानाशाह के किसी भी अत्याचारी फैसले का विरोध नहीं करते। उन्हें लगता है कि हिटलर जो कुछ कर रहे हैं, तो अच्छा ही कर रहे होंगे। वे बस 'हिटलर हिटलर' करते रह जाते हैं। हिटलर ने रोज़ा लक्सेम्बर्ग और लिब्नेख्त के वामपंथी संघर्ष को राष्ट्रवाद की आड़ लेकर मोड़ दिया। कहा कि दूसरे देशों से लड़ना है। फिर उसने ट्रेड यूनियन वालों को, समाजवादियों को, कम्युनिस्टों को, यहूदियों को देश के लिए खतरा बताया। आम लोग इतना डर गए कि यहूदियों के नरसंहार को चुपचाप देखते रहे। इसी तरह स्पेन में फ्रैंको, और इटली में मसोलिनी का राज कायम हुआ। ईरान में खोमैनी ने खुद को सुप्रीम लीडर घोषित कर दिया। पाकिस्तान में ज़िया-उल-हक़ तानाशाह बन बैठा। इराक में सद्दाम हुसैन ने सत्ता की बागडोर थाम ली। ईरान और पाकिस्तान में मुस्लिम इतनी अधिक संख्या में हैं। फिर भी वहाँ यह फंडा चलता रहा कि इस्लाम खतरे में है। वामपंथी फैज़ अहमद फैज़ और इक़बाल बानो को इस्लाम-विरोधी करार दिया गया। फैज़ को देश छोड़कर जाना पड़ा। फैज़ की प्रतिबंधित नज़्म को गाने पर इक़बाल बानो के पब्लिक कार्यक्रम करने पर रोक लगा दी गई। ईरान में जफ़र पनाही को जेल में डाल दिया गया। इन देशों में राजशाही जैसी तानाशाही भी आई। लोकतंत्र से काफी दूर। शासन में धर्म का हस्तक्षेप भी है, क्योंकि दोनों मुस्लिम राष्ट्र हैं। औरतों को अधिकार प्राप्त नहीं हैं। ये काफी हद तक मूल दक्षिणपंथियों जैसे ही हैं। केमल अतातुर्क ने तुर्की को एक सेक्युलर देश बनाया था। उसे आधुनिकता की राह पर लेकर आए थे। हालाँकि अब वहाँ एर्डोगन जैसे दक्षिणपंथी का राज कायम हो चुका है। स्कूलों में सुन्नी मुस्लिम शिक्षा दी जाती है। अभी कुछ दिन पहले वर्ल्ड-क्लास हागिया सोफिया म्यूज़ियम को एर्डोगन ने फिर से एक मस्जिद बना दिया।

इसके फलस्वरूप सबसे बड़ा विरोधाभास रूस और चीन में देखने को मिला। जहाँ मार्क्स के विचारों की धज्जियाँ उड़ा दी गई। स्टालिन की 'पेरेनिर्विका' और माओ की 'द ग्रेट लीप फॉरवर्ड' (जिसके बारे में मैं पहले ही पोस्ट में विस्तार से बता चुका हूं)जैसी नीतियों ने व्यक्तिगत आज़ादी को छीन लिया। लोगों को बस एक पुर्जा बना दिया। मज़दूरों के लगभग वैसे ही हालात थे, जैसे मार्क्स के समय में यूरोप के पूँजीवाद में थे। ना तो यहाँ लोकतंत्र था, और ना ही मार्क्स का अनार्को-कम्युनिज़्म। यह सब अत्याचार राष्ट्रवाद के नाम पर ही हुआ। हर एक तरफ सुप्रीम लीडर के पोस्टर लगे होते थे। सुप्रीम लीडर ने कहा कि हमें देश को आगे लेकर जाना है। ये उतने ही मार्क्सवादी थे, जितना कि ग्राहम स्टींस को जलाने वाले हिंदू थे। या जितना कि हिटलर का नाजीवाद था। यानि किसी एक विचार का झंडा उठाकर ठीक उसके विपरीत किया। इनकी व्यवस्था को 'स्टेट कैपिटलिज़्म' कहा जाता था। यानि जहाँ सरकार ने समाजवादी नीतियों को छोड़कर एक पूँजीवाद रूख अपना लिया हो। ट्रोट्स्की के समर्थकों एवं अन्य वामपंथियों ने स्टालिन का विरोध किया। उन्हें 1930 में मॉस्को ट्रायल में मरवा दिया गया। 1940 में ट्रोट्स्की को भी मरवा दिया गया। रूस के बाहर लेबर पार्टी के वामपंथी लीडर क्लीमेंट एटली उसके मुख्य विरोधियों में से थे। आजकल जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास '1984' का ज़िक्र काफी सुनाई देता है। उन्होंने इसे 1948 में स्टालिन की तानाशाही के खिलाफ ही लिखा था। स्टालिन की मृत्यु के बाद निकिता ख्रुश्चेव ने स्टालिन को रूस की स्मृति से हटाने का बीड़ा हटाया। उसका हरेक नामो-निशाँ मिटाया गया। आज रूस सहित दुनियाभर में स्टालिन को एक खलनायक के रूप में देखा जाता है। जबकि लेनिन और ट्रोट्स्की आज तक सम्मानीय हैं। निकिता के आने के बाद माओ का अहंकार जागने लगा। उस समय रूस बेहतर स्थिति में था, लेकिन माओ खुद को ज़्यादा सीनियर समझता था। उसने रूस से भी कन्नी काट ली। चीन में जिन लोगों ने उसके अत्याचार का विरोध किया, उन्हें कम्युनिस्ट-विरोधी कहकर मार डाला गया। माओ ने चांग काई शेक को भगाकर ताइवान में खदेड़ दिया था। उसने भी एक तानाशाह बनकर सत्ता पर कब्ज़ा कर रखा था। कोई उसके विरोध में आवाज़ उठाता, तो उसे कम्युनिस्ट कहकर मारा जाता। चीन में माओ एक लाइब्रेरियन था उसने दास कैपिटल का अनुवाद कर , लोगो को इकट्ठा कर गोरिल्ला युद्ध की बदौलत क्रांति की वहां भी कोई पूँजीवाद या औधोगिक क्रांति नही हुई थी , स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर उसने भी मार्क्स के विचारों में परिवर्तन किया वही #माओवाद है । उसने अखबार में मज़दूरों के लिए लेख लिखने शुरू किए। साथ ही उन्होंने पूँजीवाद की एक तर्कयुक्त आलोचना करना शुरू की। उन्होंने बताया कि जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं, वह वर्ग समाज में शासन करता है। इसकी वजह से समाज में वर्ग संघर्ष उत्पन्न होता है। सारा मानव इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है। 

अन्ततः यहाँ तक देखा कि कैसे एक विचारधारा के उदय के साथ ही दूसरी विचारधाराओ का जन्म हुआ जिसके फलस्वरूप कई तरह के सामाजिक परिवर्तन देखने को मिले। यहाँ मैं आपको यह भी अवगत कराना चाहूंगा कि माओवाद लेनिनवाद जहां एक्सट्रीम लेफ्ट विंग विचारधारा है वही नाजीवाद फासीवाद एक्सट्रीम राइट विंग विचारधारा है। और आप जानते है कि अति किसी भी चीज की अच्छी नही हो सकती इसी के कारण यह दोनों एक्सट्रीम विचारधाराओं ने समाज तानशाही को जन्म दिया जिसके परिणामो से आप सब वाकिफ है। माफी चाहता हूं पोस्ट फिर से लंबा होने के कारण यही रोक रहा हूँ अगले अंतिम अध्याय में जानेंगे कैसे इन सब विचारधाराओं का प्रभाव भारत पर पड़ा।

धर्मेंद्र कुमार सिंह 
( Dharmendra kr singh )

दक्षिणपंथ और वामपंथ - 2.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/2.html
#vss 

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