Thursday, 18 March 2021

श्रीमंत अतुल्य और अपराजेय बाजीराव पेशवा - पांचवा अध्याय

कोल्हापुर में ताराबाई क़ैद, पेशवा बालाजीविश्वनाथ की पेशवाई, बाजीराव-काशी बाई का विवाह और उस वक़्त के हालात...

कहते हैं कि जब नीयत अच्छी नहीं हो, तो क़ुदरत भी साथ नहीं देती...। जब तारारानी ने 1707 में शाहू महाराज की वापसी के वक़्त सतारा खाली किया था, तो स्वराज के ख़ज़ाने के साथ-साथ अपनी क़ैद का सामान भी साथ ले लिया था... जिस क़ैद में उन्होंने अपने पति छत्रपती राजाराम के जीवित रहते, उनकी एक और पत्नी राजसबाई और उनके पुत्र सम्भाजी द्वितीय को रख छोड़ा था, उसी क़ैद का मज़ा अब उन्हें भी चखना था। 

उधर बालाजीविश्वनाथ के पेशवा बनते ही और कान्होजी आंग्रे के साथ आते ही छोटे-बड़े मराठा सरदार फिर छत्रपती शाहू की तरफ लौटने लगे, तो इधर तारारानी का ख़ज़ाना खाली होते ही वे कमज़ोर पड़ने लगीं। राजसबाई ने इसका भरपूर फायदा उठाया और कुछ सरदारों की मदद से कोल्हापुर का तख़्ता पलट दिया। राजसबाई ने तारारानी और शिवाजी द्वितीय को क़ैद में डाल दिया, जहां अब उन्हें 23 साल का लम्बा अरसा तय करना था। ये बात है 1714 की, जब नियति ने तारारानी को वही सब दिखाया, जो वे अपने ही लोगों को अब तक दिखा रही थीं। राजसबाई ने अपने पुत्र सम्भाजी द्वितीय को कोल्हापुर की गद्दी पर बैठाया और इससे कहीं आगे जा कर  वो काम किया जो तारारानी ने कभी नहीं किया था।

तारारानी शाहूजी के खिलाफ तो थीं मगर छुट-पुट मदद को छोड़ दें, तो उन्होंने कभी मुग़लों से या उनके लोगों से सीधे कोई मदद नहीं ली, ना ही कभी उन्हें मराठों पर हावी होने दिया, लेकिन राजसबाई ने सत्ता सम्भालते ही हाथ उस व्यक्ति से मिलाया, जो उस वक़्त मराठों का सबसे बड़ा दुश्मन था। राजसबाई ने मीर कमरुद्दीन खान(बाद में हैदराबाद का पहला निज़ामुल मुल्क आसफ जहा) से हाथ मिला लिया और शाहूजी महाराज की जगह अपने पुत्र को छत्रपती बनाने का ख़्वाब देखने लगीं। उनका ये क़दम खांडेराव दाभाड़े और परशुराम त्रिम्बक पंत को पसंद नहीं आया और वे फिर से शाहू जी की तरफ लौट आए। राजसबाई की इस महत्वकांशा का फायदा मीर कमरूद्दीन ख़ान ने उठाया। उसने पैसे का और जागीरों का लालच दे कर कई मराठा सरदारों को अपनी तरफ मिला लिया। यहां तक कि चंद्रसेन जाधव भी उससे जा मिला।

इस तरह का खेल लगातार चलता रहा। मराठा सरदार कभी इधर, तो कभी उधर होते रहे, लेकिन एक व्यक्ति ऐसा था, जिसने कभी शाहूजी महाराज और स्वराज का साथ नहीं छोड़ा और वे थे श्रीमंत पेशवा बालाजीविश्वनाथ भट। या यूं कहना भी ठीक रहेगा, कि शाहूजी को स्थापित करने वाला अगर कोई व्यक्ति था, तो वे बालानिविश्वनाथ ही थे। उनकी निष्ठा, उनका विश्वास, उनकी ईमानदारी, उनकी मेहनत, उनकी ताकत, उनका सर्वस्व, यहां तक कि उनका परिवार भी वे छत्रपती और स्वराज पर न्योछावर कर चुके थे। वे ऐसे ही पेशवा के पद तक नहीं पहुंचे थे। और पेशवा का सिर्फ पद ही नहीं हासिल किया था, बल्कि उन्होंने पेशवा के पद को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया, नई ताक़त प्रदान की, पेशवा पद की गरिमा बढ़ाई और इसीलिए उन्हें स्वराज का दूसरा संस्थापक कहा गया। उनकी कुर्बानियों का पुलिंदा वैसे तो बहुत लंबा है, लेकिन कुछ बातें जानना बहुत ज़रूरी है-

इसके लिए थोड़ा सा पीछे चलना पड़ेगा... पहले तो 1708 में जाकर देखना पड़ेगा कि जिस व्यक्ति ने मुग़ल क़ैद से शाहूजी महाराज को आज़ाद करवाया और सातारा के अजिंक्य तारा किले में छत्रपती की गद्दी तक पहुंचाया, उस व्यक्ति के पास खुद के रहने के लिए कोई ढंग का वाड़ा(मकान) तक नहीं था। 1707 से लेकर 1711 तक तो वे पुणे के पास सासवड़ में अम्बाजी पंत पुरंदरे के वाड़े में पुरंदरे परिवार के साथ रहे। अम्बाजीपन्त पुरंदरे देशस्थ ब्राह्मण थे, जिन्हें आगे चल कर पेशवा बनने के बाद बालाजीविश्वनाथ ने स्वराज में मुतल्लिक नियुक्त किया था, यानी कि उप पेशवा का पद। ये वही व्यक्ति थे, जिन्होंने बालाजीविश्वनाथ के देहांत के बाद बाजीराव को पेशवा बनाए जाने की सबसे ताक़तवर हिमायत की थी। पेशवा बालाजीविश्वनाथ ने 1711 की शुरुआत में अपने परिवार के रहने के लिए एक बहुत ही साधारण सा वाड़ा भी सासवड़ में बनवाया। क्योंकि उस वक़्त स्वराज के पास धन-संपदा नहीं थी, सो बालाजीविश्वनाथ कैसे अपने रहने के लिए महल-किले बनवा सकते थे? 

1711 ही वो साल था, कि जब चंद्रसेन अपनी ज़्यादातर सेना लेकर तारारानी से जा मिला था और बालाजीविश्वनाथ स्वराज के लिए नई हुज़ूरत सेना की तैयारी कर रहे थे, लेकिन स्वराज के विस्तार की लड़ाई तो अभी शुरू भी नहीं हुई थी और स्वराज का ख़ज़ाना खाली था। बालानिविश्वनाथ ने कई साहूकारों, व्यापारियों और सरदारों से आर्थिक मदद मांगी। कुछ ने हाथ खड़े किए, तो कुछ ऐसे भी थे, जिन से जो बन पड़ा किया। शाहू महाराज के ख़ेमे में ही कुछ लोग ऐसे थे, जो थे तो शाहूजी के साथ, लेकिन बालाजीविश्वनाथ से वैमनस्यता के चलते खुद भी मदद नहीं कर रहे थे और दूसरों को भी रोक रहे थे। ऐसे में बालाजीविश्वनाथ ने जब इस समस्या को छत्रपती के सामने रखा, तो छत्रपती शाहू को एक ही नाम सूझा....माहादजी कृष्ण जोशी...। 

ये वही माहादजी जोशी थे, जिन्होंने 1707 में बालाजीविश्वनाथ के मनाने पर शाहूजी की धन से मदद की थी। उस वक़्त उसी मदद के भरोसे शाहू जी महाराज ने छत्रपती की गद्दी तक का सफर तय किया था, लेकिन इस बार जब शाहूजी ने माहादजी जोशी से मदद मांगी, तो वे एक अजीब दुविधा में फंसे हुए थे। हालांकि माहादजी उस वक़्त के बड़े साहूकार थे, लेकिन दुविधा यह थी कि वे पहले ही अपना बहुत कुछ, या कहें कि अपनी ताक़त से ज़्यादा शाहूजी जी को स्वराज के पुनर्निर्माण के लिए दे चुके थे। बाकी जो बचा था, वो उन्होंने अपने बच्चों के लिए रख छोड़ा था। माहादजी के दो बेटे थे और एक बेटी, बेटी का ब्याह जल्द ही उन्हें करना था। ज़ाहिर है कि उन्हें अपने रुतबे का भी ख़याल रखना था। सो अपनी दुविधा ये कहते हुए उन्होंने शाहूजी महाराज के सामने रखी कि मैं मदद करना तो चाहता हूं, लेकिन मेरे आगे ज़िम्मेदारी भी बहुत बड़ी है, ऐसे में आप ही कोई उपाय सोच कर बताएं। 

माहादजी जोशी की बात सुन छत्रपती ने बालाजीविश्वनाथ की तरफ देखा और कहा, कि "मेरी तो हर परेशानी का हल बालाजी ही हैं"। बालाजीविश्वनाथ या माहादजी कुछ बोल पाते, उससे पहले छत्रपती बोल पड़े- " आपकी कन्या अगर विवाह योग्य हो गई है, तो बालानिविश्वनाथ का बालक बाजीराव भी विवाह योग्य है, मेरी तो यही इच्छा है, अगर आप दोनों के परिवार भी राज़ी हो जाएं, तो ईससे बेहतर कुछ नहीं होगा"। इस प्रस्ताव पर बालाजीविश्वनाथ ने तो हां में अपनी गर्दन हिला दी, लेकिन माहादजी ने छत्रपती से वक़्त मांगा। हालांकि माहादजी की पत्नी को ये रिश्ता उस वक़्त बिलकुल पसंद नहीं था, लेकिन छत्रपती की इच्छा और माहादजी कि स्वराज के लिए जो निष्ठा थी, उसके आगे वे ज़्यादा विरोध नहीं कर सकीं। उनकी परेशानी ये थी कि उनका परिवार हमेशा से मराठों के बड़े साहूकारों में से एक था, जिनके आगे बालाजीविश्वनाथ का परिवार उन्हें साधारण लगता था। अब उन्हें तो पता ही नहीं था, कि जिस बालक से उनकी बेटी का विवाह होने जा रहा है, वो कितना असाधारण सिद्ध होने वाला है। 

दोनों ही परिवार चितपावन ब्राह्मण थे। बालाजीविश्वनाथ जंजीरा-कोंकण के श्रीवर्धन गांव से थे और माहादजी जोशी रत्नागिरी के तलसुरे गांव से, लेकिन वे व्यापार के चलते पुणे से करीब 60 मील की दूरी पर चासकमान आ कर बस गए थे। उनकी बेटी काशीबाई जोशी का जन्म भी चासकमान में ही उनके अपने वाड़े में हुआ था। क़रीब दो एकड़ में फैला माहादजी का ये वाड़ा किसी महल से कम नहीं था। फिर एक मार्च 1711 को दोनों परिवार संबंधी बन गए। सासवड़ में ही बाजीराव और काशीबाई का ये ऐतिहासिक विवाह संपन्न हुआ। जिस वक्त ये विवाह हुआ था, तब बाजीराव और काशीबाई, दोनों की ही उम्र 11 साल की थी, क्योंकि उस वक़्त इतनी ही उम्र में शादी हो जाया करती थी। बहरहाल बालाजीविश्वनाथ एक बार फिर शाहूजी महाराज और स्वराज के काम आए। माहादजी कृष्ण जोशी ने अपनी पुत्री की शादी के लिए जो कुछ भी जोड़ कर रखा था, वो सब उन्होंने छत्रपती के सामने रख दिया और इसी धन से स्वराज का आगे विस्तार हुआ। 

ये तो बस उदहारण मात्र के लिए था, वरना पेशवा बालानिविश्वनाथ ने स्वराज की ख़ातिर इतनी कुर्बानियां दी थीं, कि उन्हें गिना नहीं जा सकता। बहरहाल वापस 1714 में लौटते हैं, कि जब तारारानी को उनकी सौतन राजसबाई ने क़ैद कर दिया था और खांडेराव दाभाड़े और परशुराम त्रिम्बक पंत फिर से शाहूजी के पास लौट आए थे- 

तो उस वक़्त बालानिविश्वनाथ ने पुराने मराठा सरदारों को जोड़ा, उन्हें भी जो बालाजी को पसंद नहीं करते थे और उन्हें भी, जिन्हें पेशवा बालाजी पसंद नहीं करते थे, लेकिन स्वराज के विस्तार की खातिर हर संभव समझौता किया। हालांकि कुछ नाम ऐसे भी थे, जो बालाजी के लिए बहुत वफादार साबित हुए। इनमें अम्बाजीपन्त पुरंदरे का नाम सबसे ऊपर रखना चाहिए। उनके बाद माहादजी कृष्ण जोशी और फिर नाम आता है पिलाजी जाधव का, जो एक बहादुर सरदार थे और बालाजीविश्वनाथ के विश्वासपात्र, जिन्होंने बाजीराव व चिमाजी को प्रारंभिक सैन्य शिक्षा भी दी। इन्हीं नामों में एक जनकोजी शिन्दे(सिंधिया) का भी नाम है, जो अपनी विरासत से सतारा के पास कनखेरखेड़ा के पाटिल थे और जिन्हें बालानिविश्वनाथ ने मराठा सेना में अधिकारी के तौर पर शामिल किया था। दूसरी तरफ ऐसे नामों का ज़िक्र करें,  जो किसी तरह बालाजीविश्वनाथ को बर्दाश्त भर कर रहे थे, तो इनमें सबसे ऊपर खांडेराव दाभाड़े का ही नाम आता है। इनके अलावा एक और किरदार छत्रपती के दरबार मे था, जो पेशवा के पद पर बालाजीविश्वनाथ को पसंद तो नहीं करता था, लेकिन उनकी बुद्धि का लोहा भी मानता था... शाहूजी के प्रतिनिधि श्रीपदराव पंत। ये परशुराम त्रिम्बक पंत प्रतिनिधि के सुपुत्र थे। वही परशुराम पंत जो दाभाड़े के साथ तारारानी के पास चले गए थे, लेकिन उन्हीं के साथ वापस लौट भी आए थे। 

अब आगे क्या हुआ, कैसे बालाजीविश्वनाथ ने वो काम कर दिखाया, जिसके लिए उनका नाम मराठा साम्राज्य के इतिहास में अमर हो गया, ये अगले अध्याय में जानेंगे, साथ ही श्रीमंत पेशवा बालाजीविश्वनाथ भट की मृत्यु और उसके बाद पेशवा के पद पर इतिहास के सबसे महान पेशवा श्रीमंत बाजीराव बल्लाल भट की नियुक्ति कैसे हुई, ये भी जानेंगे। सो बने रहें...धन्यवाद।

नूह आलम
( Nooh Alam )

नोट- पिछला(चौथा) अध्याय पढ़ने के लिए कृपया नीचे दी गई लिंक पे जा कर देखें-
चौथा अध्याय -
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/blog-post_17.html
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