मुग़लिया तख़्त का खूनी संघर्ष, मराठों के बीच ग्रह युद्ध, पेशवा बालाजीविश्वनाथ का कारनामा और राजमाता यसुबाई की मुग़ल क़ैद से आज़ादी....
अकबर जब बादशाह बना था, तब उसकी उम्र सिर्फ 13 साल की थी। वो अपने वफादार सेनापति बेहरम खान की मदद, या यूं कहें कि उसके रहमो करम पर तख़्त तक पहुंचा था, लेकिन बाद में उसने अपने दिमाग़ और बाहुबल से शासन किया। उसने राजपूतों और दूसरे रजवाड़ों से संबंध बनाए और धीरे धीरे 65 प्रतिशत भारत पर क़ाबिज़ हो गया। उसका 50 साल में बनाया गया साम्राज्य इतना मज़बूत था कि उसके बाद जहांगीर और शाहजहां को सिर्फ उस साम्राज्य को बनाए रखने का काम ही करना था, जो उन्होंने बखूबी किया। इन दोनों ने पूरे 85 साल शासन किया और अकबर के बनाए साम्राज्य को बरक़रार रखा, लेकिन औरंगेजेब के इरादे कुछ और थे।
जो लोग ये सोचते हैं कि औरंगेजेब बददिमाग़, ग़ुस्सैल या स्पष्टवादी था, तो वे ग़लती कर जाते हैं। दरअसल औरंगज़ेब बहुत कूटनीतिज्ञ और तेज़ दिमाग़ का मालिक था। उसकी चाल वक़्त और हालात के हिसाब से बदल जाती थी। हालांकि इस बात में भी शक की कोई गुंजाइश नहीं है, कि वो बहादुर भी था। या यूं भी कह सकते हैं कि उसके जैसा ताक़तवर शासक मुग़लों में नहीं हुआ। साथ ही साथ वो बहुत महत्वकांक्षी भी था। उसने गद्दी अपने भाइयों से निपट कर और निपटा कर हासिल की थी, सो उसे टक्कर देने वाला उस वक़्त मुग़लों में कोई नहीं था। 25 से 30 साल वो भी अपने पूर्वजों के साम्राज्य को संभालता रहा, लेकिन उसकी महत्वकांक्षा उसे दक्खन ले कर आ गई। उसने अपनी ज़िंदगी के आख़री 21 साल दक्खन में लगा दिए और मुग़ल साम्राज्य को दक्खन तक बढ़ाने में कामियाब भी हुआ, लेकिन मराठों को कभी पूरी तरह क़ब्ज़े में नहीं रख सका। मराठे उससे लड़ते रहे... टूटे भी, मगर बिखरे नहीं। साल के छह महीने वो मराठों के जिन इलाक़ों पर क़ब्ज़ा करता था, बाद के छह महीनों में मराठे वो इलाके फिर क़ब्ज़ा लेते थे, लेकिन ये भी सच है कि औरंगेजेब ही वो मुग़ल बादशाह था, जिसने 90 प्रतिशत भारत पर 50 साल शासन किया।
औरंगेजेब महत्वकांक्षी था, लेकिन उसकी यही महत्वकांक्षा उसे कमज़ोर करती चली गई। अपनी ज़िंदगी के जो आख़री 21 साल उसने दक्खन को जीतने में लगाए, उन्हीं 21 सालों में उसकी पकड़ उत्तर में कब कमज़ोर होती चली गई, उसे पता भी नहीं चला। उसकी मौत के बाद उसके पांचों लड़कों ने भी वही किया, जो उन्होंने अपने बाप से सीखा था। सत्ता के संघर्ष में मोअज़ज़्म(बहादुर शाह 1) ने अपने ही भाइयों को मार गिराया, लेकिन इसके बाद सत्ता के लिए खून ख़राबा और संघर्ष मुग़लों की तक़दीर बन गया। मोअज़्ज़म ने 1712 तक शासन किया और उसकी मौत के बाद उसके चारों लड़कों में भी सत्ता के लिए खूनी संघर्ष हुआ। एक महीने तक मोअज़्ज़म कि लाश दिल्ली के लाल किले में पड़ी रही। आखिर में उसका सबसे बड़ा लड़का जहांदार शाह अपने भाइयों को मार कर बादशाह बना, लेकिन सिर्फ एक साल के लिए। 1713 में उसके भतीजे फर्रुखसियर ने सय्यद बंधुओं की मदद से अपने चाचा को हटा कर तख़्त हासिल कर लिया।
ये वही साल था जब बालाजीविश्वनाथ को पेशवा बना दिया गया था। इधर शाहूजी महाराज और बालाजीविश्वनाथ स्वराज को फिर से स्थापित करने में लगे थे और मराठों में ग्रह युद्ध चल रहा था, तो उधर फर्रुखसियर और सिखों के बीच संघर्ष शुरू हो गया था। इस संघर्ष में फर्रुखसियर ने बहुत बर्बरता दिखाई और उसका वर्चस्व भी बंगाल से लेकर उत्तरपश्चिम और बुंदेलखंड, मालवा से लेकर गुजरात तक बन गया। औरंगेजेब के गुजरने के बाद पहली बार ऐसा लग रहा था कि मुग़ल फिर से उठ खड़े हुए हैं। ये वही दौर था जब मराठों को अपनी ही लड़ाई से फुरसत नहीं मिल रही थी। एक तरफ थे शाहूजी महाराज और बालाजीविश्वनाथ, तो दूसरी तरफ राजसबाई के पुत्र सम्भाजी को मीर कमरूद्दीन खान(निज़ाम) का साथ मिल गया था।
1714 में जब सम्भाजी ने कोल्हापुर की गद्दी पर क़ब्ज़ा किया था, तो खांडेराव दाभाड़े और परशुराम पंत शाहूजी की तरफ लौट आए थे। हालांकि बालानिविश्वनाथ की दाभाड़े परिवार से कभी नहीं बनी, लेकिन वे इन सब बातों से ऊपर उठ कर सोच रहे थे। 1716 में खांडेराव दाभाड़े के पुत्र त्रिम्बकराव दाभाड़े को शाहू जी ने सेनाखासखेल नियुक्त किया और 1717 में उसके पिता खांडेराव दाभाड़े को स्वराज का सरसेनापति बना दिया। इन नियुक्तियों में बालाजीविश्वनाथ की मर्ज़ी भी शामिल थी, क्योंकि उन्हें इनकी जरूरत थी। वे जानते थे कि ये परिवार क़ाबिल और बहादुर है। इसी तरह बालाजीविश्वनाथ ने पुराने मराठा सरदारों के लिए भी योजना बनाई हुई थी। इसी योजना के तहत पुराने मराठा सरदारों को अलग-अलग इलाक़ों में जागीरें दी गईं और वहां से चौथ एवं सरदेशमुखी जमा करने के अधिकार भी। कुल मिला कर इस पूरे वक़्त में स्वराज के उतने हिस्से को ही फिर से खड़ा करने का काम हो पाया, जितना छत्रपती शिवाजी महाराज ने अपने अथक प्रयासों और संघर्ष से बनाया था, लेकिन उसमें भी दो हिस्से हो गए थे। इनमें सतारा, पुणे, रत्नागिरी, कोंकण, रायगढ़ और कुछ तटीय इलाका, यानी ज्यादार स्वराज के इलाके शाहूजी के ही पास थे, बाकी का कोल्हापुर और उससे लगा हुआ कुछ हिस्सा सम्भाजी द्वितीय के पास।
लेकिन.... ऐसा नहीं था कि इस सब के बीच बालाजीविश्वनाथ की नज़र से मुग़ल बचे हुए थे। उनकी नज़र बराबर मुग़लों पर बनी हुई थी। वे बस सही मौके का इंतज़ार में थे....और ये मौक़ा उन्हें मिला 1718 में जब दिल्ली दरबार से सय्यद बंधू दक्खन की तरफ आए। दरअसल वे अब दक्खन में मुग़लों के सूबों पर फिर से पकड़ बनाना चाहते थे, जिन पर ऊपर से तो सूबेदार के तौर पर ही, लेकिन अंदर से स्वतंत्र हो कर मीर कमरूद्दीन खान(निज़ाम) मुग़ल सूबेदारी कर रहा था। सय्यद बंधूओं की मुलाक़ात कमरूद्दीन से अहमदनगर में हुई, लेकिन वापस जाने से पहले वे मराठों की भी टोह लेना चाहते थे, मगर पेशवा बालाजी ने उल्टे उनकी टोह ले ली।
इसे ही कहते हैं मास्टरस्ट्रोक....सय्यद बंधुओं से मिलते ही बालाजी समझ गए कि ये भी फर्रुखसियर से परेशान आ गए हैं और उसे हटाना चाहते हैं। बालाजी ने उनसे अलग जा कर बात की और थोड़ी ही देर में सब कुछ तय हो गया। जनवरी 1719 में पेशवा बालाजीविश्वनाथ ने पहली बार नर्मदा पार की और दिल्ली की तरफ बढ़े। इधर बालाजीविश्वनाथ अपनी सेना लेकर दिल्ली की तरफ बढ़ रहे थे, तो दूसरी तरफ सय्यद बंधुओं ने जाटों और सिखों को भी न्योता भेज दिया था। 28 फरवरी 1719 को दिल्ली में कोहराम हुआ। दिल्ली के ऊपर से सिक्ख, नीचे से जाट और दक्खन से आगरा होते हुए मराठों ने लाल क़िले पर एक साथ धावा बोला। युद्ध हुआ, जिसमें मुग़ल बादशाज फर्रुखसियर की बुरी तरह से हार हुई। ये पूरी रणनीति बालाजीविश्वनाथ और सय्यद बंधुओं के ही दिमाग़ की उपज थी। फर्रुखसियर को तख़्त से हटा दिया गया और मराठों के प्रभाव से फर्रुखसियर के चचेरे भाई रफी उल दरजात को बादशाह बनाया गया।
बात सिर्फ इतनी नहीं थी कि अब मुग़ल बादशाह वो बना था, जो मराठों के प्रभाव से तख़्त तक पहुंचा था, बल्कि इससे कहीं ज़्यादा कुछ था बालानिविश्वनाथ के इस दांव में। हुआ ये था कि जब बालाजीविश्वनाथ सतारा से निकले थे, तो अपनी योजना किसी को नहीं बताई थी। यहां तक कि शाहूजी को छोड़ कर सब को यही मालूम था कि बालाजी स्वराज के इलाक़ों से चौथ वसूली की मुग़लिया सनद लेने जा रहे हैं। सेना वे अपने साथ ये बोल कर ले गए थे, कि पहली बार दिल्ली जा रहे हैं, तो किसी तरह की परिशानि नहीं आनी चाहिए। उनके साथ इस मुहीम में खांडेराव दाभाड़े और पिला जी जाधव के अलावा और भी कुछ सरदार थे। साथ ही युवा बाजीराव भी थे, जिनके सैन्य जौहर उत्तर वालों से पहली बार देखे थे।
सो पेशवा बालाजीविश्वनाथ ने मुग़ल बादशाह रफी उल दरजात से स्वराज के इलाक़ों के अलावा जब उन इलाक़ों से भी चौथ वसूली की सनद हासिल की, जो मीर कमरूद्दीन खान(निज़ाम) के क़ब्ज़े में थे, यानी अहमदनगर, औरंगाबाद और हैदराबाद भी...तो दरबार मे मौजूद लोग हैरान रह गए। साथ ही उन्होंने वो काम भी किया, जिसका इंतज़ार सिर्फ छत्रपती शाहूजी महाराज या मराठा स्वराज ही नहीं कर रहा था, बल्कि खुद पेशवा बालाजीविश्वनाथ भी कर रहे थे। शाहूजी महाराज की मां साहेब यसुबाई की मुग़ल क़ैद से 30 सालों के लंबे इंतजार के बाद रिहाई...साथ में शाहूजी की दोनों रानियां भी थीं(जिनसे उनका विवाह औरंगेजेब ने ही करवाया था, जब वे उसकी क़ैद में थे)। जिस दिन ये सब सतारा वापस लौटे, उस दिन सतारा ही नहीं बल्कि पूरे स्वराज में दिवाली मनी थी...और बजा था पेशवा बालाजीविश्वनाथ के नाम का डंका। श्रीमंत पेशवा बालाजीविश्वनाथ भट की इस जीत ने उन्हें मराठा इतिहास में अमर कर दिया था।
नूह आलम
Nooh Alam
पांचवा अध्याय -
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/blog-post_18.html
#vss
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