त्रिपुरा हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि,
बिना किसी दुराशय के किसी धर्म के बारे में मजाकिया टिप्पणी या व्यंग्य धारा 295 A के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में नहीं आती है।
जस्टिस अकील कुरेशी ने अपने फैसले में कहा है कि,
"धारा 295 ए धर्म और धार्मिक विश्वासों के अपमान या अपमान की कोशिश के किसी और प्रत्येक कृत्य को दंडित नहीं करता है, यह केवल अपमान या अपमान की कोशिश के के उन कृत्यों को दंडित करता है, जिन्हें विशेष वर्ग की धार्मिक भावनाओं को अपमानित करने के लिए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे के साथ किया गया।":
यह निर्णय, त्रिपुरा हाईकोर्ट ने दुलाल घोष बनाम त्रिपुरा राज्य के मुकदमे में सुनवाई करते हुए दिया है।
कानून में अपराध के लिये दुराशय यानी मेंसरिया mens rea का महत्व सबसे अधिक है। अपराध की शुरुआत ही दुराशय से होती है। जब तक अपराध का दुराशय स्पष्ट नही हो जाता, तब तक वह कृत्य अपराध के रूप में वैधानिक रूप से नहीं माना जा सकता है।
जस्टिस कुरैशी सोशल मीडिया पर अपनी टिप्पणियों के माध्यम से भगवद गीता का अपमान करके हिंदू समुदाय की धार्मिक भावनाओं को कथित रूप से आहत करने के मामले में पिछले साल याचिकाकर्ता के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई कर रहे थे।
शिकायतकर्ता के अनुसार, याचिकाकर्ता-अभियुक्त ने यह कहकर हिंदू धर्म पर अभद्र और अश्लील टिप्पणी की, कि पवित्र धार्मिक किताब ठकबाजी गीता" है और इसे फेसबुक पर पोस्ट कर दिया।
दूसरी ओर याचिकाकर्ता ने दलील दी कि शिकायतकर्ता द्वारा जानबूझकर पोस्ट को जानबूझकर घुमाया गया और गलत तरीके से समझा गया।
उसने दलील दी कि उसका न तो इरादा था और न ही किसी समुदाय या नागरिकों के वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की इच्छा थी। उसने आगे कहा कि केवल उसकी व्यक्तिगत मान्यताओं के आधार पर, उसे एक आपराधिक मामले में निशाना बनाया जा रहा है और झूठा फंसाया जा रहा है।
इसके अलावा, यह दलील दी गई कि उसकी पोस्ट बंगाली में थी और शिकायतकर्ता ने उसकी पोस्ट का गलत अर्थ निकाला था, जिसका अर्थ वास्तव में यह था कि गीता एक कड़ाही है, जिसमें ठगों को भूना जाता है।
अतिरिक्त लोक अभियोजक ने हालांकि याचिका का विरोध किया कि याचिकाकर्ता ने पवित्र किताब के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करके धार्मिक भावनाओं को आहत करने का स्पष्ट इरादा प्रदर्शित किया था।
उसने यह भी कहा कि यह अकेला मौका नहीं है, जिस पर याचिकाकर्ता ने धार्मिक भावनाओं को आहत करने की ऐसी प्रवृत्ति दिखाई है और उसकी पोस्ट को उसकी पिछली पोस्टों की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।
अदालत ने शुरु में कहा कि धारा 295 ए केवल धर्म के अपमान के उग्र रूप को दंडित करता है, जब यह उस वर्ग की धार्मिक भावनाओं को अपमानित करने के लिए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे के साथ किया जाता है।
इस मामले में, यह उल्लेख किया गया कि उक्त पोस्ट के माध्यम से याचिकाकर्ता ने वास्तव में क्या कहा था, इस बारे में विवाद है। कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता द्वारा गढ़े गए शब्द का अर्थ जो कुछ भी हो सकता है या नहीं हो सकता है, लेकिन "यह निश्चित रूप से उस अर्थ को व्यक्त नहीं करता है जो शिकायतकर्ता बताना चाहता है कि भगवद गीता एक कपटपूर्ण दस्तावेज है।"
खंडपीठ ने कहा,
"याचिकाकर्ता अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं को धारण कर सकता है और कानून के ढांचे के भीतर भी उन्हें व्यक्त कर सकता है, जब तक कि वह अपने भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रयोग में कानून द्वारा तय किसी भी प्रतिबंध का उल्लंघन नहीं करता है।"
इस बिंदु पर, अतिरिक्त लोक अभियोजक ने दलील दी कि ऐसी कोई अभिव्यक्ति नहीं है, जैसा कि याचिकाकर्ता ने अपने फेसबुक पोस्ट पर रखा है।
हालांकि, न्यायालय का मत था कि भले ही इस विवाद को स्वीकार कर लिया जाए, यह न्यायालय या इस मामले के लिए पुलिस की भूमिका नहीं है कि वह फेसबुक पोस्ट का अर्थ निकाले कि इसका कोई अर्थ है या नहीं।
कोर्ट ने एपीपी के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता को हिंदू धर्म का अपमान करने की आदत है और उनकी पोस्ट को उनकी पिछली पोस्टों की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।
इस सबंध में कोर्ट ने कहा,
"न तो शिकायत में और न ही राज्य द्वारा याचिकाकर्ता की आपत्तिजनक प्रकृति की किसी भी पिछली पोस्ट को पेश किया गया है....
फेसबुक पोस्ट पर कोर्ट ने कहा,
" किसी पृष्ठभूमि या अग्रभूमि के बिना, किसी भी सामान्य मनुष्य के लिए यह संभव नहीं है कि वह सामान्य ज्ञान और बुद्धिमत्ता के साथ, याचिकाकर्ता द्वारा पवित्र किताब को दिए गए अपमानजनक या अवमाननापूर्ण अर्थ को समझ सके।"
अंग्रेजी में जो टिप्पणी है, वह इस प्रकार है,
" Insults to religion made unwittingly or carelessly without any deliberate or malicious intention to outrage the religious feelings of a class would not attract Section 295A of the Indian Penal Code, the."
Tripura High Court recently ruled in Sri Dulal Ghosh v. State of Tripura.
( विजय शंकर सिंह )
No comments:
Post a Comment