Monday, 15 March 2021

श्रीमंत अतुल्य और अपराजेय पेशवा बाजीराव प्रथम - तीसरा अध्याय

बालाजीविश्वनाथ की कूटनीति, शाहूजी महाराज की रिहाई और तारारानी कि हार...

ये अठारवीं सदी का हिंदुस्तान था और इस सदी में अगर कोई किस्मत वाला राजा हुआ, तो वो थे सतारा के छत्रपती शाहू जी महाराज। जिनका जन्म 18 मई 1682 को महाराष्ट्र के गांगुली नामक गाँव मे हुआ था। हालांकि दुखों के पहाड़ भी ईन पर कई बार टूटे। पहले तो 1689 में सिर्फ सात साल की उम्र में ही पिता(छत्रपती संभाजी महाराज) का साया इनके सर से छीन लया गया, वो भी बहुत ही नृशंसता के साथ और फिर मां साहेब यसुबाई सहित इन्हें औरंगज़ेब ने क़ैद कर लिया... लेकिन इसे अच्छी किस्मत नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे, कि क़ैद में भी रहे तो किसी क़ैदी की तरह नहीं, बल्कि राजा की ही तरह...जी हां...ये सच है कि औरंगज़ेब शाहू महाराज को अपने साथ-साथ अपनी नज़र के सामने रखता था, लेकिन किसी राजा की ही तरह। शाहूजी और उनकी मां साहेब यसुबाई का रहन-सहन, खान-पान और पहनावा हरगिज़ किसी राजपरिवार से कम नहीं था। शाहू जी के लिए शिक्षक भी लगा रखे थे, जो उन्हें मोडी, उर्दू, फारसी, इतिहास और भूगोल भी पढ़ाते थे। औरंगज़ेब ने उन्हें घुड़सवारी भी सिखवाई, लेकिन उतनी ही, कि वे एक जगह से दूसरी जगह सफर कर सकें। यानी उन्हें जंग में दौड़ने वाले घोड़ों पर कभी नहीं बैठाया गया, ना ही कभी हाथ मे तलवार थमाई गई। यही तो थी औरंगज़ेब की राजनीति। साथ ही उनकी देख-रेख के लिए अपनी दूसरी बेटी ज़ैनतुन्निसा को छोड़ रक्खा था। मुग़ल शहज़ादी ज़ैनतुन्निसा की उम्र उस वक़्त (1707 में) लगभग 55 साल की थी। वो शाहू जी और उनकी मां साहेब का बहुत खयाल रखती थी। शाहू जी भी उन्हें अपनी मां के जैसा सम्मान देते थे। इतना ही नहीं, बल्कि औरंगज़ेब ने ही शाहू जी की दो शादियां भी करवाई थीं, वो भी अपने विश्वासपात्र मराठा सरदारों की लड़कियों से। हालांकि दोनों से ही शाहूजी को कोई संतान नहीं हुई।

अब बात करें उस दिन की, यानी 3 मार्च 1707 की, तो उस दिन पूरी मुग़लिया सल्तनत में मातम छाया हुआ था या अंदरखाने खुशियां मनाई जा रही थीं, नहीं मालूम, लेकिन इतना ज़रूर मालूम है कि हिंदुस्तान के इतिहास में सबसे ज़्यादा हिस्से पर राज करने वाले मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब आलमगीर की आंखें बंद होते ही न सिर्फ उसके बेटों की, बल्कि वज़ीरों की आंखों में भी कई ख़्वाब जगमगाने लगे थे। अब इसे भी अच्छी क़िस्मत ही कहेंगे कि बचपन से लेकर जवानी तक क़ैद में, लेकिन राजशाही ज़िंदगी जीने वाले शाहू जी जब पूरी तरह से छत्रपती बनने की उम्र में थे, तो औरंगज़ेब नहीं रहे। यानी की यहीं से अब शाहू जी की रिहाई का रास्ता भी निकल सकता था.... और फिर एक बार उनकी अच्छी किस्मत ने ही उनका साथ दिया। औरंगज़ेब के सिधारते ही कुछ दिन के लिए ही सही लेकिन उसके तीसरे बेटे आज़म शाह ने शाहूजी की रिहाई के दस्तावेज़ के रूप में तख़्त संभाला। ये वही आज़म शाह था जो बालाजीविश्वनाथ के असर में था और जिसकी आंखों में औरंगज़ेब के मरने के पहले ही तख़्तनशीं होने की चमक बालाजी ने देख ली थी। 

बालाजीविश्वनाथ ने आज़म से मिलने में बिलकुल भी देर नहीं की। आज़म शाह इस वक़्त अहमदनगर में था और उसने अपनी बादशाही का ऐलान भी यहीं से किया था, लेकिन ये इतना आसान नहीं था, क्योंकि उसे अभी दिल्ली जाकर अपने बड़े भाईयों मुअज़्ज़म शाह(बहादुर शाह प्रथम) और अकबर द्वितीय से भी निपटना था। सो उसने अपने छोटे भाई कमबख्श को दक्खन का नवाब बनाने का वादा कर यहीं छोड़ दिया और खुद अपनी सेना लेकर दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले बालाजीविश्वनाथ से मुलाक़ात की।

बालाजी को ऐसे ही उस दौर का सबसे तेज़ दिमाग़ वाला कूटनीतिज्ञ नहीं माना जाता था। उन्होंने आज़म शाह को समझाया कि अगर तुम शाहू जी को रिहा करते हो तो मराठे तुमसे ख़ुश हो जाएंगे और तुम्हारी मदद करेंगे। कम से कम यहां दक्खन में तो तुम्हारा ही सिक्का चलेगा....अब दिल्ली तुम खुद जा कर समझो, यहां हम संभाल लेंगे.....और आज़म ने बालाजी की बात मान ली, लेकिन वो सिर्फ शाहू जी को आज़ाद करने पर राज़ी हुआ। साथ ही ये शर्त भी रखी कि अगर मराठों ने उसकी मदद करी, तभी वो यसुबाई साहेब और शाहूजी की दोनों पत्नियों को रिहा करेगा। 

बालाजीविश्वनाथ ने वक़्त की नज़ाक़त को समझा और इस शर्त पर क़रार कर लिया। साथ ही ये भी तय किया कि आज़म शाह को एक मुग़लिया सनद भी जारी करना पड़ेगी, कि वो जिस शाहूजी को आज़ाद कर रहा है, वो ही असल शाहूजी महाराज हैं, छत्रपती संभाजी महाराज के पुत्र...छत्रपती शिवाजी महाराज के पोते और मराठा साम्राज्य के अगले छत्रपती महाराज। साथ ही इसे बालाजी की दूरंदेशी ही कहना होगा कि उन्होने इस बात के लिए भी आज़म शाह को राज़ी किया कि जब तक शाहूजी छत्रपती की गद्दी नहीं संभाल लेते, ये बात गुप्त रखी जाए कि उनकी रिहाई का रास्ता बालाजीविश्वनाथ भट से होकर गुज़रा है, क्योंकि राह अभी इतनी आसान भी नहीं थी कि शाहू जी सतारा पहुंचें और उन्हें सर्वसम्मति से सभी लोग अगला छत्रपती मान कर गद्दी पर बैठा दें। वे जानते थे कि तारारानी इतनी आसानी से गद्दी नहीं छोड़ने वाली और उन्हें(तारारानी को) हराना भी इतना आसान नहीं होगा। सो उन्होंने आज़म से कहा कि आप कहीं दूर ले जाकर इन्हें रिहा करें, ताकि तारारानी के गुप्तचरों को ये तो ख़बर मिले कि शाहूजी आज़ाद हो गए हैं, लेकिन ये ना पता चलने पाए कि किस तरह आज़ाद हुए हैं।

बालाजीविश्वनाथ की कूटनीति कितनी दूरंदेश थी, इस बात की पुष्टि इसी से होती है कि वे शाहूजी के आज़ाद होने से पहले ही सतारा पहुंच गए और जब ये ख़बर तारारानी तक पहुंची की शाहूजी आज़ाद हो रहे हैं, तो उन्होंने कहा कि ये तोत्या(फ़र्ज़ी) शाहूजी यहां तक नहीं पहुंचना चाहिए। उधर आज़म शाह अपने लावलश्कर के साथ दिल्ली के लिए रवाना हुआ, अपने भाइयों से निपटने के लिए। उसके साथ शाहू जी महाराज, महारानी यसुबाई और शाहूजी की दोनों रानियां भी थीं। अहमदनगर से दिल्ली के रास्ते में बालाजीविश्वनाथ के साथ पूर्व निर्धारित योजना के तहत आज़म शाह ने शाहूजी को कुछ मराठा कैदियों के साथ भोपाल में रिहा किया, जिन्हें 1689 में औरंगज़ेब ने शाहू जी के साथ ही बंदी बनाया था।

इधर सतारा में तारारानी ने सभी सरदारों को बुलाया और उन्हें इस बात पर राज़ी किया कि ये जो आ रहा है ये तोत्या(फ़र्ज़ी) शाहू है और ये मुग़लों की ही एक चाल है। सो योजना ये बनाई गई कि मराठा सीमा में घुसते ही शाहू जी को मार दिया जाए... और पता है, ये काम किसके ज़िम्मे सौंपा....?... बालाजीविश्वनाथ भट के...क्योंकि सभी मुश्किल काम अब उन्हें ही सौंपे जाने लगे थे। तारारानी बालाजी को मुश्किल से मुश्किल काम सोंपतीं तो थीं, क्योंकि जानती थीं कि ये कूटनीतिज्ञ कोई भी काम अपने दिमाग़ और तलवार के बल पर कर सकता है, लेकिन पूरी तरह भरोसा नहीं करती थीं। इसीलिए उन्होंने बालाजी को इस काम की ज़िम्मेदारी तो दी, लेकिन धनाजी जाधव के नेतृत्व में। 

अब शाहूजी बुरहानपुर होते हुए मराठा सीमा में जैसे ही दाखिल हुए, उनके सामने थे धनाजी जाधव, बालाजीविश्वनाथ और मराठा सेना। जैसे ही उनकी नज़र बालाजी पर पड़ी, उन्होंने बालाजी को पहचान लिया। वे घोड़े से उतरे और बालाजीविश्वनाथ को गले लगा लिया। धनाजी जाधव और दूसरे मराठा सरदार और सैनिक सोच में पड़ गए कि आख़िर माजरा क्या है। फिर बालाजी ने धनाजी को बताया कि ये कोई तोत्या नहीं है। यही हैं असली शाहूजी महाराज, जिनकी जानकारी निकालने के लिए सात साल पहले आपने ही मुझे औरंगज़ेब के ख़ेमे में भेजा था। ये बात सुन कर धनाजी खुश तो हुए लेकिन बालाजी को एक तरफ आने के लिए कहा। एकांत में बालाजी ने धनाजी जाधव को आज़म शाह से हुए क़रार के बारे में पूरी जानकारी दी और उन्हें शिवाजी महाराज, संभाजी महाराज और स्वराज का हवाला दे कर समझाया कि अगर आज सच का साथ नहीं दिया, तो जिंदगी भर अपने आप को मुआफ़ नहीं कर पाएंगे....। बस....फिर क्या था धनाजी जाधव ठहरे असल मराठा, स्वराज के सैनानी, वे राज़ी हो गए और योजना बनी तारारानी को समझाने की या नहीं समझीं तो कैसे सतारा पर क़ब्ज़ा करना है और शाहूजी को छत्रपती की गद्दी पर कैसे बैठाना है, इसकी।

उधर आज़म शाह दिल्ली पहुंचे, उससे पहले ही औरंगज़ेब का बड़ा बेटा "मुअज्ज़म" जिसे शाहआलम प्रथम के नाम से भी जाना ताजा था और जो उस वक़्त काबुल(अफ़ग़ानिस्ता) का मुग़ल सूबेदार था, उसने लाहौर के उत्तर में स्थित शाहदौला नामक पुल पर मई 1707 में बहादुर शाह प्रथम के नाम से अपने आप को मुग़ल बादशाह घोषित कर दिया। बूँदी के बुधसिंह हाड़ा और आमेर के विजय सिंह कछवाहा को उसने पहले से ही अपने साथ मिला लिया था। इन्हीं दोनों की सहायता से उसे बड़ी संख्या में राजपूतों का समर्थन भी हासिल हो गया। उत्तराधिकार को लेकर बहादुरशाह प्रथम एवं आज़म शाह में सामूगढ़ के समीप जाजऊ नामक स्थान पर 18 जून 1708 को युद्ध हुआ, जिसमें आज़म शाह और उसके दो बेटे बीदर बख़्त व वलाजाह मारे गये। इस तरह बालाजीविश्वनाथ और आज़म शाह के बीच हुए क़रार का भी रास्ता बंद हो गया, जिसके तहत मराठे आज़म शाह की मदद करते और आज़म शाह महारानी यसुबाई और शाहूजी की पत्नियों को रिहा करता। दरअसल मराठा फौजें उसकी मदद के लिए निकल ही नहीं पाईं, क्योंकि यहां तो ख़ुद शाहू जी और तारारानी के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा था और ग्रह युद्ध जैसे हालात थे।

इसी बीच शाहू जी ने सतारा को घेर लिया। उनके लिए बालाजीविश्वनाथ ने जो काम किया था, वो अद्वितीय था। यहां भी शाहू जी की किस्मत ने ही ज़ोर मारा की उन्हें बालाजीविश्वनाथ जैसा समर्पित और ईमानदार व्यक्ति मिला। अब तक लगभग आधे से ज़्यादा मराठा सरदारों को बालाजी शाहू महाराज के साथ मिला चुके थे और धनाजी के रूप में सर्वशक्तिमान सेनापती भी उनके साथ हो गया था। अक्टूबर 1707 में प्रसिद्ध "खेड़" का युद्ध हुआ। सतारा के पास ही खेड़ नामक जगह पर शाहूजी महाराज की फौज ने तारारानी की फौज को परास्त किया। इस लड़ाई के नतीजे में तारारानी ने शाहूजी को मराठा साम्राज्य का छत्रपती स्वीकार कर लिया। शाहूजी ने भी तारारानी को कोल्हापुर की गद्दी सौंप कर उनके बेटे शिवाजी द्वितीय को भी एक छोटे से राज्य का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। 12 जनवरी 1708 को शाहू जी का राज्याभिषेक हुआ और वे मराठा साम्राज्य के "पांचवे छत्रपती शाहूजी महाराज" बन गए। इस जीत का सेहरा उन्होंने बालाजीविश्वनाथ भट के सर बांधा और अब तक जो बालाजीविश्वनाथ दौलताबाद के सरसूबेदार थे, उन्हें मराठा साम्राज्य के "सेनाकर्ते" जैसे अहम पद पर नियुक्त किया। उस वक़्त सेनाकर्ते का काम बहुत ही महत्वपूर्ण होता था। ये अशिकारी ही मराठा फौज की भर्ती, खान-पान, ट्रेनिंग और सेना की पगार का काम देखता था, साथ ही सेनापती के साथ मिल कर सैन्य अभियानों की योजना बनाना और उसके लिए धन की व्यस्था करने का काम भी इसी अधिकारी की ज़िम्मेदारी होती थी। सो बालाजीविश्वनाथ अब समूचे मराठा साम्राज्य के सेनाकर्ते हो गए थे। 

ये बात 1708 की है। बालाजीविश्वनाथ 1713 में मराठा साम्राज्य के पेशवा कैसे बने और आगे इस पद पर रहते हुए उन्होंने क्या-क्या किया। कैसे मराठा साम्राज्य को बढ़ाने में बालाजीविश्वनाथ ने अहम भूमिका निभाई और क्यों उन्हें मराठा साम्राज्य का छत्रपती शिवाजी महाराज के बाद दूसरा संस्थापक कहा गया, ये अगले अध्याय में देखिएगा। धन्यवाद।

( नूह आलम )

दूसरा अध्याय 
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