Sunday, 2 December 2018

संविधान का मूल ढांचा और विविधिता में एकता - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

अचानक कुछ दिनों से सुप्रीम कोर्ट पर हमले तेज हो गए हैं। इन हमलों का एक बड़ा कारण है राम मंदिर बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कि इस मुक़दमे की सुनवायी जनवरी 2019 में होगी। राम मंदिर राम के लिये कितना महत्वपूर्ण हैं यह तो राम ही बता पाएंगे, पर यह विवाद जिन्हे अरसे से खाद पानी दे रहा है, उनके लिये आसन्न चुनाव को देखते हुए बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। इस मुक़दमे पर लिखना मेरा ध्येय नहीं है, ध्येय है इस विवाद के बहाने संविधान और उसके मूल ढांचे पर चर्चा करना।


संविधान, किसी भी देश का वह मूलभूत विधि विधान है जो सरकार के विभिन्न अंगों की रूपरेखा और मुख्य कार्य का निर्धारण करता है। वर्तमान में, भारत का संविधान 465 अनुच्छेद, 25 भागों और 12 अनुसूचियों में लिखा गया है। भारतीय संविधान में दुनियाभर के प्रमुख संविधानों से उचित और उपयोगी प्रावधान लिए गये हैं और देश की उपयुक्तता और जरुरतों के लिहाज से उसमें परिवर्तन परिवर्द्धन और संशोधन किया है। संविधान भारत सरकार के अधिनियम, 1935 पर आधारित है। भारतीय संविधान न तो कठोर है और न ही लचीला। इसके मूल ढांचे में बिना छेड़छाड़ किये समयानुकूल ज़रूरतों के अनुसार, समय समय पर संशोधन किये जाने का प्राविधान है।  संविधान के मूल ढांचे के अंगों में धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, संसदीय स्वरूप, एकल नागरिकता, एकीकृत तथा स्वतंत्र न्यायपालिका, राज्य के नीति निर्देशक तत्व जो संविधान के अनुच्छेद 36 से 50 में अंकित हैं, मौलिक अधिकार, सार्वभौम वयस्क मताधिकार, शक्तियों का पृथक्कीकरण आदि आदि विंदु आते हैं।

संविधान में वर्णित शब्द, धर्मनिरपेक्षता, भारत में मौजूद सभी धर्मों को देश में समान संरक्षण देने और शासकीय कार्य में सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार और समान अवसर उपलब्ध कराने के रूप में परिभाषित है।
संघवाद, भारत के संविधान में संघ/ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता के बंटवारे का प्रावधान है। संघवाद की अन्य विशेषताओं जैसे संविधान की कठोरता, लिखित संविधान, दो सदनों वाली विधायिका, स्वतंत्र न्यायपालिका और संविधान के वर्चस्व, को भी पूरा करता है। इसलिए भारत एकात्मक पूर्वाग्रह वाला एक संघीय राष्ट्र है।
भारत में सरकार का स्वरूप संसदीय गणतंत्र है। भारत में दो सदनों – लोकसभा और राज्य सभा, वाली विधायिका है। सरकार के संसदीय स्वरूप में, विधायी और कार्यकारिणी अंगों की शक्तियों में कोई स्पष्ट अंतर नहीं है। भारत में, सरकार का मुखिया प्रधानमंत्री होता है। उसकी स्थिति मंत्रिमंडल में सभी सामान हैं पर वह ( प्रधानमंत्री ) समान में सर्व प्रमुख है।
भारत का संविधान देश के प्रत्येक व्यक्ति को एकल नागरिकता प्रदान करता है। भारत में कोई भी राज्य किसी अन्य राज्य के वासी होने के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। इसके अलावा, भारत में, किसी भी व्यक्ति को देश के किसी भी हिस्से में जाने और कुछ स्थानों को छोड़कर भारत की सीमा के भीतर कहीं भी रहने का अधिकार है। हमारा संविधान एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका प्रणाली को प्राविधित  करता है। सुप्रीम कोर्ट भारत का सर्वोच्च न्यायालय है। इसे भारत के सभी न्यायालयों पर प्रशासनिक  अधिकार प्राप्त है। संविधान सुप्रीम कोर्ट को असीमित न्यायिक और संविधान के संरक्षण का अधिकार देता है। इसके बाद उच्च न्यायालय, जिला अदालत और निचली अदालतों का स्थान है। किसी भी प्रकार के प्रभाव से न्यायपालिका की रक्षा के लिए संविधान में कुछ प्रावधान बनाए गए हैं जैसे कि जजों के लिए कार्यकाल की सुरक्षा और सेवा की निर्धारित शर्तें आदि।
संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36 से 50) में राज्य के नीति के निर्देशक सिद्धांतों के बारे में उल्लेख किया गया है। ये दिशा निर्देश राज्य को कल्याणकारी राज्य का स्वरूप प्रदान करते हैं। इन्हें कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती हैं । ये सामान्य तौर पर आज़ादी  के संघर्ष के दौरान विकसित हुयी, समाजवादी, गांधीवादी और उदारवादी विचारधारा का परिणाम है। 
संविधान में 42 वें संशोधन अधिनियम (1976) द्वारा, मौलिक कर्तव्यों को संविधान में शामिल किया गया । इस उद्देश्य के लिए, एक नया हिस्सा, भाग IV– ए बनाया गया और अनुच्छेद 51– ए के तहत दस कर्तव्य शामिल किए गए। यह प्रावधान नागरिकों को इस बात की याद दिलाता है कि अधिकारों का उपयोग करने के दौरान उन्हें अपने कर्तव्यों का भी निर्वहन करना चाहिए। अधिकार अबाध नहीं है बल्कि उनके साथ नागरिकों के कुछ कर्तव्य भी प्राविधित किये हैं जो राज्य, नागरिकों से अपेक्षा करता है।
भारत में,18 वर्ष से अधिक उम्र के प्रत्येक नागरिक को जाति, धर्म, वंश, लिंग, साक्षरता आदि के आधार पर बिना भेदभाव के मतदान का अधिकार प्राप्त है। सार्वभौम व्यस्क मताधिकार सामाजिक असमानताओं को दूर करता है और सभी नागरिकों के लिए राजनीतिक समानता के सिद्धांत को बनाए रखता है।

इस प्रकार भारत का संविधान सबसे निचले स्तर या जमीनी स्तर पर लोकतंत्र, मौलिक अधिकारों और सत्ता के विकेंद्रीकरण के रूप में खड़ा है। इन शक्तियों और अधिकारों के कमजोर पड़ने की किसी भी संभावना को देखते हुए, संविधान के संरक्षक के रूप में काम करने, संविधान का उल्लंघन करने वाले किसी भी कानून या कार्यकारी अधिनियम को रद्द करने और इस प्रकार संविधान की सर्वोच्चता लागू करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई।

भारत के संवैधानिक इतिहास में 1973 का साल एक परिवर्तन विंदु के वर्ष के रूप में याद किया जाता है, जब संविधान में संशोधन के प्राविधान के अनुसार संविधान को कितना संशोधित किया जा सकता है यह विंदु सुनवायी के लिये सुप्रीम कोर्ट में आया। मामला था, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की पीठ ने अपने संवैधानिक रुख में संशोधन करते हुए कहा कि, " संविधान संशोधन के अधिकार पर एकमात्र प्रतिबंध यह है कि इसके माध्यम से संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। " अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद यह सिद्धांत अभी भी कायम है और जल्दबाजी में किए जाने वाले संशोधनों पर अंकुश के रूप में कार्य कर रहा है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में 68 दिन, ( 31 अक्टूबर 1972 से शुरू होकर 23 मार्च 1973 ) तक सुनवायी हुयी। 24 अप्रैल 1973 को, चीफ जस्टिस सीकरी और उच्चतम न्यायालय के 12 अन्य न्यायाधीशों ने न्यायिक इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय दिया। सभी प्रयास सिर्फ इस एक मुख्य सवाल के जवाब के लिए थे कि "क्या संसद की शक्ति संविधान का असीमित संशोधन करने के लिए थी ?" दूसरे शब्दों में, "क्या संसद संविधान के किसी भी हिस्से को रद्द, संशोधित और बदल सकती है चाहे वो सभी मौलिक अधिकार छीन लेने का ही क्यों ना हो ?" अनुच्छेद 368 में, उसको साधारण रूप से पढ़ने पर, संविधान के किसी भी भाग में संशोधन के लिए संसद की शक्ति पर कोई सीमा नहीं थी इस अनुच्छेद में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे संसद को एक नागरिक के भाषण की स्वतंत्रता या उसकी धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार छीन लेने से रोका जा सके। लेकिन अगर संविधान के मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशों को गम्भीरता के साथ संविधान सभा की गहन बहसों के आलोक में पढा जाय तो यही तथ्य निकलता है कि संविधान के मूल ढांचे में संसद, सर्वोच्च होते हुये भी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती है। संविधान संशोधन ने मूल ढांचा प्रभावित और परिवर्तित हो रहा है या नहीं यह देखने का अधिकार संविधान के ही अनुसार सुप्रीम कोर्ट का है। इसीलिये राजनेता समय समय और अपने राजनीतिक एजेंडे की पूर्ति के बाधा के रूप में कभी कभी सुप्रीम कोर्ट को देखते हैं और उस पर अपनी भड़ास यदा कदा निकालते हैं।

संविधान के अस्तित्व पर सबसे पहले आशंका युक्त चर्चा 1969 में हुई जब इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के विशेषाधिकार और प्रिवी पर्स को खत्म करने का प्रगतिशील कदम उठाया। उस समय इंदिरा गांधी के साथ साम्यवादी दल थे और दक्षिणपंथी, वामपंथी विचारधारा के बीच एक स्पष्ट टकराव दिखा। तब परंपरागत सोच के लोगों को लगा कि संविधान की मूल धारणा ही बदली जाएगी। उसी के बाद यह महत्वपूर्ण फैसला आया।

दूसरी बार संविधान पर खतरे की आशंका 1975 में महसूस की गयी जब देश मे 26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुयी थी। तब के अखबारों की कटिंग नेट पर हैं पढिये तो लगेगा कि देश के संविधान में व्यापक परिवर्तन होने वाला है। पांच साल पर होने वाला आम चुनाव का समय टला, अभिव्यक्ति पर पहरे और मीडिया पर सेंसर लगा, डीआईआर, मीसा जैसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता को आघात पहुंचाने वाले प्राविधान लागू हुए, सभी विरोधी दलों के नेता जो सरकार के विरोध में थे को निरुद्ध कर दिया गया, और देश मे भय का वातावरण बना। आपातकाल की घोषणा के समय सभी संवैधानिक मान्यताएं और नियम कायदे ताख पर रख दिये गए। उस दौरान संसद में बोलते हुये सीपीएम के नेता एके गोपालन ने इंदिरा गांधी के इस कदम को संविधान की हत्या बताया था। गोपालन भूमिगत हो गए थे पर जब संसद का अधिवेशन हुआ तो वे उसी में प्रगट हुये। पर संविधान का यह हनन देश की जनता को रास नहीं आया और उसने आपातकाल में हुयी प्रशासनिक ज्यादतियों के कारण, कभी की बेहद लोकप्रिय रही इंदिरा सरकार द्वारा संविधान के साथ की गयी छेड़छाड़ को खारिज़ कर दिया।

उसके बाद संविधान के साथ क्रूर मज़ाक 1992 में 6 दिसम्बर को हुआ जब सुप्रीम कोर्ट में यह लिखित हलफनामा दायर करने के बाद भी यूपी सरकार ने अयोध्या स्थित विवादित ढांचे को ढहाने से रोकने के लिये कोई प्रयास करने के बजाय अपनी मूक सहमति दे दी और दुनियाभर में संविधान की मूल धारणा सेकुलरिज्म का मज़ाक बना। किसी निर्वाचित सरकार द्वारा सत्ता में रहते और सर्वोच्च अदालत को लिखित रूप से आश्वस्त कर के संविधान की ऐसी निर्लज्ज अवहेलना करने का उल्लेख दुनिया के संवैधानिक इतिहास में आज तक नहीं मिलता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की अवमानना के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को दंडित भी किया पर वह दंड वास्तविक कम और प्रतीकात्मक अधिक था।

2014 के बाद जब से एनडीए सरकार आयी है तब से कुछ ऐसी घटनाएं और ऐसे बयान आये हैं, जिनसे साफ तौर पर संविधान के प्रति अवज्ञा का भाव झलकता है। कभी कोई जनप्रतिनिधि संविधान की मूल आत्मा धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के बजाय एक धर्म विशेष का राष्ट्र ( थियोक्रैटिक राज्य ) बनाने की बात करता है, तो कोई संसदीय प्रणाली के बजाय अमेरिकी संविधान की तरह राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत करता है तो कभी कोई पूरे देश मे एक साथ चुनाव कराने की अनिवार्य बाध्यता की वकालत कर संघीय ढांचे को चुनौती देता है तो कोई सुप्रीम कोर्ट को धमकी देता है कि अदालतें वही फैसले दें जो सरकार लागू कर सकें, और यह कह कर वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को चुनौती देता है। जब कि स्वतंत्र न्यायपालिका, संघीय स्वरूप, संसदीय प्रणाली और धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूलाधार हैं जिन्हें बदला ही नहीं जा सकता है। अगर यह कोशिश हुयी तो अराजकता होगी और उसका परिणाम दुर्भाग्यपूर्ण होगा। यह अलग बात है कि इन मुद्दों पर जनता की भावनाओं को भड़का कर कुछ राजनैतिक दल और राजनेता अपनी ज़मीन भले बना लें।

वर्तमान सत्तारूढ़ दल जिस वैचारिक पृष्ठभूमि से उद्भूत हुआ है उस विचारधारा में आधुनिक धर्मनिरपेक्षता को कोई स्थान नहीं है। वह विचारधारा संविधान के गठन, उसके अंगीकृत किये जाने के समय और देश के स्वाभाविक विचारधारा, सर्वधर्म समभाव के विपरीत रही है। यह विचारधारा 1937 के सावरकर के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की अनुगामी रही है और आज भी 'धर्म ही राष्ट्र है' के सिद्धांत के खंडित हो जाने के बाद भी उसी सिद्धांत से चिपकी हुयी है। संविधान के मूल्यों का तब भी मज़ाक बनाया गया था जब 26 जनवरी 1950 को यह विधान लागू किया गया था, और यह मज़ाक आज भी एक खास विचारधारा से संक्रमित लोग बना रहे हैं। उनका ऐतराज़, धर्मनिरपेक्षता को लेकर अधिक है और यह बात उन्हें शूल की तरह चुभती है। अक्सर, संविधान के 42 वें संशोधन का उदाहरण दिया जाता है कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द गलत और राजनीति के कारण ठूंसा गया है जो मूल संविधान की प्रस्तावना में नहीं था। यही संशोधन नहीं बल्कि लगभग सभी संशोधन सरकारें अपने राजनैतिक एजेंडा के अनुसार ही करती हैं। पर ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द डाल देने मात्र से ही भारत समाजवादी हो गया और 42 वे संशोधन के बाद ही हम धर्मनिरपेक्ष बने। ये दोनों शब्द अगर प्रस्तावना को संशोधित कर नहीं डाले गए होते तो भी देश का संविधान उतना ही धर्मनिरपेक्ष बना रहता जितना कि उस संशोधन के बाद भी बना हुआ है। समाजवादी तो यह संविधान न अपने अंगीकृत के समय हुआ, न 1976 के बयालीसवें संशोधन के बाद और न अब है। धर्मनिरपेक्ष तो यह सदैव से ही रहा है। धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मभाव या पंथनिरपेक्षता तो भारत की आत्मा में ही है। यह सनातन है और इसके सूत्र वैदिक काल से जुड़े हुये हैं। एक वैदिक ऋचा पढें, 
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् |
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ||
( हम सब एक साथ चले; एक साथ बोले; हमारे मन एक हो )
भारतीय परंपरा के लंबे कालखंड में राजा का तो धर्म रहा है पर राज्य का धर्म कभी नहीं रहा। इसीलिए मुस्लिम काल खंड में जैसे ही किसी सम्राट ने कट्टर इस्लामी राज का एजेंडा लागू करके बढाना चाहा, शक्तिशाली सम्राट के राज्य का पतन शुरू हो गया इसे आप अकबर और औरंगजेब की धार्मिक नीति के अलग अलग मानदंडों में स्पष्टतः देख सकते हैं।

आज़ादी के लंबे संघर्ष के दौरान चाहे वह 1857 का विप्लव हो, या गोखले, तिलक, गांधी के आंदोलन, या भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद आदि क्रांतिकारी संगठनों की गतिविधियां या राजा महेंद्र प्रताप, एमएन रॉय, रास बिहारी बोस आदि के विदेशों से संचालित आंदोलन या सुभाष बाबू का सैन्य हमला कर के भारत को आज़ाद कराने का अनोखा तरीका, सभी इस एक बात पर दृढ़ थे कि आज़ाद भारत का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष ही  होगा, सिवाय वीडी सावरकर और एमए जिन्ना के जो धर्म और राष्ट्र को पर्याय मान बैठे थे। आज जो तत्व धर्मनिरपेक्षता को एक बुराई के रूप में देख रहा है उसकी भारत की आज़ादी के संघर्ष में कोई भूमिका ही नहीं थी, बल्कि वह सावरकर और जिन्ना के अधूरे एजेंडे को येन केन प्रकारेण अब भी पूरा करना चाहता है।

सबरीमाला मंदिर विवाद पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कन्नूर की रैली में जो बयान दिया, वह भले ही एक राजनैतिक बयान माना जाय, पर वह अदालत की सर्वोच्चता पर हमला है। सबरीमाला निर्णय, उपासना के अधिकार में लिंगभेद को मान्यता नहीं देता है। एक आयु विशेष की महिलाओं को उनके उपासना के अधिकार जो मौलिक अधिकारों की श्रेणी में आता है को मान्यता देता है और उसे बहाल करता है। सुप्रीम कोर्ट महिलाओं को भगवान अयप्पा का  दर्शन करने का कोई स्थायी आदेश नहीं देता है, बल्कि आयु और लिंग के आधार पर महिलाओं को उपासना के मौलिक अधिकार को संरक्षित करते हुये उनके अधिकारों से वंचित करने वाले नियम और प्राविधान को असंवैधानिक मानता है। ऐसा ही आदेश, अदालतें शनि शिंगणापुर और हाजी अली के मामले में दे चुकी हैं। उनपर कोई राजनीतिक वितंडा भी नहीं खड़ा किया गया । 2006 में संघ ने, जो आज सबरीमाला प्रकरण में राजनैतिक संभावना खोज रहा है, स्वयं सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं के दर्शन पूजन प्रतिबंध के खिलाफ याचिका दायर किया था। यहां न अयप्पा की शुचिता महत्वपूर्ण मुद्दा है और न ही महिलाओं के उपासना का अधिकार, बस राजनीतिक स्वार्थ हित ही सर्वोपरि है। 

संसदीय प्रणाली में लोग न प्रधानमंत्री चुनते हैं और न ही मुख्यमंत्री। हम सांसद चुनते हैं और विधायक । हमारे चुने बहुमत प्राप्त दल या दलों के समूह के सांसद या विधायक अपने नेता का चयन करते हैं। वही नेता मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनता है और अपना मंत्रिमंडल गठित करता है, जो संसद या विधानसभा के विश्वासपर्यंत सरकार में रहता है। इधर कुछ सालों से पहले पीएम या सीएम का नाम उछाला जाता है फिर तब सदन चुना जाता है। यह संसदीय लोकतंत्र में अध्यक्षात्मक प्रणाली के लोकतंत्र का तड़का आप कह सकते हैं। एक बार भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अध्यक्षात्मक प्रणाली की बात उठायी थी। पर उस पर कोई बहुत बहस इसलिए नहीं हुई कि वह संविधान संशोधन से लागू करना संभव ही नहीं था क्योंकि संसदीय प्रणाली संविधान के मूल ढांचे का एक विंदु है। उसी प्रकार आडवाणी जी ने द्विदलीय प्रणाली जैसा कि अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दो दल हैं के आधार पर संसदीय प्रणाली की भी चर्चा उठायी थी। उनका आशय केवल कांग्रेस और भाजपा ही मुख्य दल रहें और शेष अप्रासंगिक हो जांय। पर भारत की संसदीय प्रणाली में यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि यहां डीएमके, अन्नाडीएमके, बीजू जनता दल, तेलुगु देशम, टीएमसी, और शिवसेना जैसी मज़बूत और अपनी निजी आधारवाली क्षेत्रीय पार्टियां न केवल विद्यमान हैं बल्कि उन्होंने अपने अपने राज्यों में इन दोनों बड़े दलों को अपनी अपनी शर्तों पर बांध रखा है। यह भी विविधता का ही एक परिणाम है।

संविधान महज कानूनी दस्तावेज नहीं है यह देश का एक आधार भी है। भारत का इतिहास ही विविधता में एकता और एकता में विविधता का रहा है। इतिहास की शुरुआत से आज तक जो अजस्र धार प्रवाहित हो रही है उसमें तमाम सभ्यताएं, संस्कृतियों के गुण दोष मिले हुए हैं। सभ्यताओं के आपसी समागम ने एक ऐसी नायाब सभ्यता को जन्म दिया है जिसमे से एक ही धर्म, सभ्यता, संस्कृति आदि को खींच कर अलग नहीं किया जा सकता है। यह एक अनुपम तानाबाना है। यह अकेला ऐसा देश रहा है जहां पर दुनियाभर के सभी धर्मों के लोग और विचारधाराएं आयीं और यहां सभी एक दूसरे में समा गयी। हमारे संविधान ने भी उसी प्रकार से विश्व के लगभग सभी संविधानों के मुख्य गुणों को अपनाया है। लेकिन यह बात भी सच है कि कोई भी कानून और विधि विधान सम्पूर्ण, त्रुटि रहित और असंशोधनीय नहीं होता और भारतीय संविधान भी इसका अपवाद नही है। संविधान को कैसे जनोन्मुख और प्रगतिशील बनाये रखा जाय यह हमारे चुने हुये जनप्रतिनिधियों की मेधा, इच्छाशक्ति, दूरदृष्टि, नेतृत्वक्षमता तथा स्टेटसमैनशिप पर निर्भर करता है।

© विजय शंकर सिंह

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