रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर उर्जित पटेल ने त्यागपत्र दे दिया है। अपने त्यागपत्र के कारणो का खुलासा करते हुए उन्होंने इसे अपनी पारिवारिक समस्या का कारण बताया है। पर पिछले कुछ महीनों से केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय और आरबीआई के बीच जो शीत युद्ध चल रहा था, उसे देखते हुए इस इस्तीफे को उर्जित पटेल के महज निजी और घरेलू समस्याओं का परिणाम नहीं माना जा सकता है। यह आरबीआई और सरकार के बीच चल रहे तनातनी का परिणाम है। पर एक गम्भीर और अनुभवी नौकरशाह की तरह उर्जित वही कहेंगे जो अमूमन सभी नौकरशाह, सरकार से असहमत होने पर पद त्याग करते समय कहते हैं। यह इस्तीफा चाहे इसका कोई भी कारण हो, सरकार के लिये एक गम्भीर झटका है। उर्जित के इस्तीफे पर प्रतिक्रिया व्यक्ति करते हुये पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कुछ समाचार चैनलों को बताया है कि, " विश्वास कीजिये, आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल का त्यागपत्र एक चिंतित करने वाली खबर है। जब सरकारी सेवक ऐसी परिस्थितियों से रूबरू हो जाते हैं जिनका समाधान निकालना उनके बस में नहीं रहता है तो वे सरकार के नीतियों और रवैय्ये के प्रति विरोध स्वरूप इस्तीफा दे देते हैं। " वैसे आरबीआई के इतिहास में यह पहला इस्तीफा नहीं है। किसी भी आरबीआई के गवर्नर का पहला इस्तीफा 1957 में सर बेनेगल रामा राव ने दिया था, जिनका नीतिगत मतभेद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और वित्त मंत्री टीटीके कृष्णमाचारी से हो गया था।
उर्जित पटेल सितंबर 2016 में डॉ रघुराम राजन के निर्धारित कार्यकाल की समाप्ति के बाद आरबीआई के गवर्नर बने थे। ये रघुराम राजन के डिप्टी गवर्नर भी थे। इनकी नियुक्ति को लेकर भी राजनीतिक विवाद हुआ था। उर्जित की नियुक्ति भी विवादों के घेरे में रही और अब जब वे पद त्याग कर रहे हैं तब भी विवादों के घेरे में ही हैं। अभी इसी 14 दिसंबर को रिजर्व बैंक बोर्ड की बैठक आयोजित है। उनके और सरकार के बीच मतभेदों के चलते, इस बैठक के पहले उर्जित द्वारा इस्तीफे की अटकलें वित्तीय क्षेत्र के जानकार लगा रहे थे। उनके अनुसार उर्जित पटेल का इस्तीफा चौंकाने वाली घटना नहीं है। 1990 के बाद उर्जित पहले रिजर्व बैंक गवर्नर थे जिन्होंने कार्यकाल पूरा होने से पहले इस्तीफा दे दिया है। उर्जित पटेल का 3 साल का कार्यकाल सितंबर 2019 में पूरा होने वाला था। एक संक्षिप्त बयान में उन्होंने कहा कि उन्होंने तत्काल प्रभाव से अपना पद छोड़ने का निर्णय किया है। पटेल आरबीआई के 24वें गवर्नर थे।
रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट 1934 के अनुसार रिज़र्व बैंक को स्वायत्तता प्राप्त है और यह केंद्रीय बैंक भारत के वित्तीय और मौद्रिक अनुशासन को बनाये रखने के लिये जिम्मेदार है। इधर सरकार और आरबीआई के बीच आरबीआई की धारा 7 के सरकार द्वारा प्रयोग किये जाने को लेकर विवाद उठ गया था। यह धारा सरकार को यह अधिकार देती है कि वह गम्भीर वित्तीय परिस्थितियों में आरबीआई को बाध्यकारी निर्देश दे सकती है। यह एक असामान्य प्राविधान है जो असामान्य परिस्थितियों के लिये ही है। सरकार इसी रिजर्व बैंक एक्ट के सेक्शन-7 के तहत केंद्र सरकार उर्जित पटेल पर अपनी बात मनवाने का दबाव डाल रही थी। आरबीआई एक निश्चित राशि अपने पास रखती है जो सरकार या देश का रिजर्व फंड कहा जाता है, उसका डिविडेंड आरबीआई प्राप्त करता रहता है। यह राशि संचित होती जाती है और उसे अत्यंत असामान्य परिस्थितियों में ही उपयोग किया जा सकता है। रिजर्व बैंक से मोदी सरकार द्वारा स्पेशल डिविडेंड करीब 3 लाख करोड़ रुपए मांगने की बात सामने आई थी। यह राशि देने के लिये आरबीआई राजी नहीं था। आरबीआई का कहना था कि सरकार को यह राशि लेने के बजाय एनपीए हो रहे बैंकों के लोन पर सख्ती करके उन्हें वसूल किया जाय। रिज़र्व बैंक ने कुछ सख्त कदम उठाए भी थे। सरकार और आरबीआई के बीच और भी मतभेद थे। जैसे, एनबीएफसी और छोटे उद्योगों को सरकार, चुनावी साल होने के कारण आसान किश्तों पर कर्ज दिलाना चाहती थी। आरबीआई पहले से ही चले आ रहे एनपीए के कारण खस्ताहाल हो रहे बैंकों की वित्तीय स्थिति को पहले मज़बूत करना चाहता था क्योंकि उसे यह आशंका थी कि चुनावी साल में राजनीतिक दृष्टिकोण से दिए गए ऋण की वसूली आसान नही होती है। सरकार का दबाव आरबीआई के गवर्नर पर उनके अधिकारों की कटौती को लेकर भी था। आरबीआई के बोर्ड की भूमिका पर भी सरकार ने सवाल उठाए थे। बोर्ड रिजर्व बैंक गवर्नर के अधिकारों में कटौती करना चाहता था। सरकार ने स्वदेशी जागरण मंच के एस गुरुमूर्ति को अपने एजेंडे के तहत ही आरबीआई बोर्ड में भेजा था।
पिछले महीने सरकार और आरबीआई के बीच कई मामलों में खींचतान चली थी। इनमें वित्तीय घाटे को नियंत्रण में रखने के लिए आरबीआई रिजर्व राशि के बड़े हिस्से को सरकार को हस्तांतरित करना और बाजार में और तरलता लाना शामिल है। सरकार, नोटबंदी और जीएसटी की जटिलताओं से उतपन्न परिस्थितियों से जूझ रही थी और वित्तीय घाटा बढ़ता जा रहा था। अगर यह चुनावी साल न होता तो हो सकता था सरकार आरबीआई के फंड के लिये इतनी व्याकुल नहीं रहती। उसी वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिये सरकार आरबीआई के उक्त फंड का इस्तेमाल करना चाहती है। यह विवाद तब खुल कर तब सामने आ गया जब 26 अक्टूबर 2018 को आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के मुंबई में एक व्याख्यान के दौरान यह कहा, कि जो सरकार केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का सम्मान नहीं करती, उसे देर-सबेर वित्तीय बाजार के आक्रोश का सामना करना पड़ता है। उसी समय वित्तीय मामलों के जानकारों ने यह कह दिया था कि सरकार की वित्तीय स्थिति उतनी अच्छी नहीं है जितनी की सरकार दावा कर रही है।
अंत मे सरकार द्वारालगातार तीसरी बार आरबीआई ऐक्ट के सेक्शन 7 को लागू करने के बाद गवर्नर उर्जित पटेल असहज महसूस कर रहे थे और उनके इस्तीफे की अटकले बाज़ार में गर्म थीं। लेकिन इस असहजता से बचने के लिये आरबीआई गवर्नर और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों की कई बैठकें हुयी और मीडिया में जोरों से जब यह विवाद समाचार फैला तो सरकार भी बैकफुट पर आ गयी और सरकार ने कहा कि, आरबीआई की स्वायत्तता के साथ किसी भी प्रकार का कोई विवाद ही नहीं है। सरकार आरबीआई की स्वायत्तता के साथ है। उस समय यह उम्मीद बंधी थी कि अब रास्ता निकल आएगा पर यह विवाद खत्म नहीं हुआ था बल्कि दब गया था या यूं कहें यह विवाद मीडिया की नज़रों से ओझल कर दिया गया था। धारा 7 का प्राविधान असाधारण परिस्थितियों के लिये है और जब से यह प्राविधान बना है इसका प्रयोग किसी भी सरकार ने नहीं किया है। यह प्राविधान एक प्रकार से आरबीआई की स्वायत्तता को अतिक्रमित करता है। आरबीआई की स्वायत्तता की समाप्ति के बेहद दूरगामी परिणाम होंगे।
14 दिसंबर 2018 को आरबीआई बोर्ड की बैठक आयोजित है। आरबीआई का कोई भी गवर्नर अपने कार्यकाल में आरबीआई की स्वायत्तता पर हमला हो यह कभी भी नहीं चाहेगा। अगर सरकार सच मे आरबीआई को अपने इशारे पर चलाना चाहती है तो यह देश की वित्तीय स्थिति के लिये बेहद चिंताजनक है। वित्त विशेषज्ञों का यह मानना है कि अगर सरकार धारा 7 के लागू होने पर हठधर्मिता की राह पर है तो, 14 दिसंबर को होने वाली बैठक का एजेंडा आने के बाद उर्जित पटेल के पास कोई और विकल्प नहीं बचा था। सरकार आरबीआई की मौद्रिक नीति जो आरबीआई के मौलिक अधिकार क्षेत्र है पर भी अतिक्रमण कर सकती है और बोर्ड में अपने लोगों को नियुक्त करके आरबीआई के अधिकांश अधिकारों और शक्तियों पर स्वतः अधिकार कर लेगी। ऐसी परिस्थितियों की भनक लगने के कारण ही उर्जित पटेल ने इस्तीफा देने का अतिवादी कदम उठाया है।
आरबीआई और सरकार के बीच विवाद का मूल कारण रिज़र्व बैंक का 9.59 लाख करोड़ रुपए का कैश रिज़र्व है जिस पर सरकार की निगाह है। खबरें थीं कि सरकार अपना बजट घाटा पूरा करने की नीयत से चाहती थी कि वो 3.6 लाख करोड़ रुपया सरकार को ट्रांसफर कर दे। लेकिन यह नक़द रिजर्व केवल बैंक में रखा रुपया ही नहीं होता है बल्कि आरबीआई नई मुद्रा जारी करने के लिए, विदेशी मुद्रा - खासकर डालर के मुक़ाबले रुपए की कीमत बनाये रखने के लिए, अंतराष्ट्रीय व्यापार में क्रेडिट रेटिंग बनाये रखने के लिए और किसी आर्थिक संकट से निबटने के लिए इस सुरक्षित रिजर्व का उपयोग करता है। वित्तीय जानकारों का मानना है कि अगर सरकार ने आरबीआई पर धारा 7 के प्रयोग से इस रिजर्व राशि का उपयोग अपने वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिये किया तो, देश किसी भी आसन्न वित्तीय संकट के समय उस संकट का सामना नहीं कर पायेगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने यह संकट भांप लिया था अतः जैसे ही सरकार और आरबीआई के बीच तनाव की खबरें फैलिन वैसे ही आईएमएफ ने केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को हर हाल में बनाये रखने की बात कह कर अपनीप्रतिक्रिया ज़ाहिर कर दी।
उर्जित पटेल के इस्तीफे का आरबीआई और देश की अर्थव्यवस्था, मौद्रिक अनुशासन और बैंकों के पर्यवेक्षण पर क्या असर पड़ता है यह अभी नहीं कहा जा सकता है पर यदि सरकार से धारा 7 के बाध्यकारी प्राविधान लागू करने, रिजर्व फंड का उपयोग वित्तीय घाटा को पूरा करने, बैंकों के एनपीए को कुछ हद तक पाटने और चहेते पूंजीपतियों को आसान और उदार शर्तों पर ऋण देने के मुद्दों पर मतभेद के कारण उर्जित पटेल ने आरबीआई के गवर्नर पद से यह इस्तीफ़ा दिया है तो, यह एक चिंताजनक स्थिति है।रिज़र्व बैंक की इस लूट और उसकी स्वायत्तता को बचाना चाहिए। जो हो रहा है वो देश हित मैं बिल्कुल नहीं है।
( विजय शंकर सिंह )
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