Monday, 17 December 2018

एक कविता - उमड़ा बादल / विजय शंकर सिंह

कोई बात है,
तुम उदास हो,
चुप हो,
और गुमसुम भी ।

आंखें भी,थोड़ी नम,
थोड़ी भटकती हुयी,
कुछ दूर तक देखती,
कोई ठौर खोजती,
फिर खो जाती हैं,
अपने में ।

गुम हो जाती हैं, वहीं,
जहां से उठी थी,
उम्मीद की एक आस ।

बात क्या है,
हिल तो रहे हैं, अधर,
शांत सागर में
डोलती नाव सी,
पुतलियां भी घूम रही हैं,
पर निरवलम्ब,
अनायास, और बेसब्र।

न हवा है, न बादल,
बस एक चमकती धूप और
दूर तक अंतस में,
विक्षोभ समेटे,
शांतफैला सागर ।

कहो, कहो न प्रिये,
वह उमड़ा बादल
चुपके से
क्या कह कर चला गया !!

© विजय शंकर सिंह

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