सार्त्र की क़ब्र पर
( केदारनाथ सिंह )
( केदारनाथ सिंह )
सैकड़ों सोई हुई क़ब्रों के बीच
वह अकेली क़ब्र थी
जो ज़िन्दा थी
कोई अभी-अभी गया था
एक ताज़ा फूलों का गुच्छा रखकर
कल के मुरझाए हुए फूलों की
बगल में
वह अकेली क़ब्र थी
जो ज़िन्दा थी
कोई अभी-अभी गया था
एक ताज़ा फूलों का गुच्छा रखकर
कल के मुरझाए हुए फूलों की
बगल में
एक लाल फूल के नीचे
मैट्रो का एक पीला-सा टिकट भी पड़ा था
उतना ही ताज़ा
मेरी गाइड ने हँसते हुए कहा--
वापसी का टिकट है
कोई पुरानी मित्र रख गई होगी
कि नींद से उठो
तो आ जाना!
मैट्रो का एक पीला-सा टिकट भी पड़ा था
उतना ही ताज़ा
मेरी गाइड ने हँसते हुए कहा--
वापसी का टिकट है
कोई पुरानी मित्र रख गई होगी
कि नींद से उठो
तो आ जाना!
मुझे लगा
अस्तित्व का यह भी एक रंग है
न होने के बाद!
अस्तित्व का यह भी एक रंग है
न होने के बाद!
होते यदि सार्त्र
क्या कहते इस पर--
सोचता हुआ होटल लौट रहा था मैं।
***
क्या कहते इस पर--
सोचता हुआ होटल लौट रहा था मैं।
***
कवि केदारनाथ सिंह की यह कविता फ्रांसीसी विचारक ज्यां पॉल सात्र पर है। बीसवीं सदी के वैचारिक आंदोलन में सात्र एक बड़ा नाम है।
ज्यां-पाल सार्त्र अस्तित्ववाद के पहले विचारकों में से माने जाते हैं। वह बीसवीं सदी में फ्रान्स के सर्वप्रधान दार्शनिक कहे जा सकते हैं। कई बार उन्हें अस्तित्ववाद के जन्मदाता के रूप में भी देखा जाता है।
अस्तित्ववादी विचार या प्रत्यय की अपेक्षा व्यक्ति के अस्तित्व को अधिक महत्त्व देते हैं। इनके अनुसार सारे विचार या सिद्धांत व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया से ही उद्भूत होते हैं। पहले चिंतन करने वाला मानव या व्यक्ति अस्तित्व में आया, अतः व्यक्ति अस्तित्व ही प्रमुख है, जबकि विचार या सिद्धांत गौण। उनके विचार से हर व्यक्ति को अपना सिद्धांत स्वयं खोजना या बनाना चाहिए, दूसरों के द्वारा प्रतिपादित या निर्मित सिद्धांतों को स्वीकार करना उसके लिए आवश्यक नहीं। इसी दृष्टिकोण के कारण इनके लिए सभी परंपरागत, सामाजिक, नैतिक, शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक सिद्धांत अमान्य या अव्यावहारिक सिद्ध हो जाते हैं। उनका मानना है कि यदि हम दुख एवं मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकार कर लें तो भय कहाँ रह जाता है।
अस्तित्वादी के अनुसार दुख और अवसाद को जीवन के अनिवार्य एवं काम्य तत्त्वों के रूप में स्वीकार चाहिए। परिस्थितियों को स्वीकार करना या न करना व्यक्ति की ही इच्छा पर निर्भर है। इनके अनुसार व्यक्ति को अपनी स्थिति का बोध दु:ख या त्रास की स्थिति में ही होता है, अतः उस स्थिति का स्वागत करने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए। दास्ताएवस्की ने कहा था- ‘‘यदि ईश्वर के अस्तित्व को मिटा दें तो फिर सब कुछ (करना) संभव है।’
केदारनाथ सिंह की यह कविता उसी सात्र की कब्र पर उन्हें याद करते हुये लिखी गयी है जिन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रचेता होने का सम्मान दिया है। केदारनाथ जी का जन्म 7 जुलाई 1934 ई॰ को उत्तर प्रदेशके बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ था। उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1956 ई में हिन्दी में एम॰ए॰ और 1964 ई में पी-एच॰ डी॰ की उपाधि प्राप्त की। उनका निधन 19 मार्च 2018 को दिल्ली में हुआ। उन्होंने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र में बतौर आचार्य और अध्यक्ष काम किया था।
© विजय शंकर सिंह
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