मैंने एक बार पहले मज़ाक़ मज़ाक़ में कहा था कि कुछ टीवी चैनल्स पर डिबेट का स्तर ऐसा हो जाएगा कि हो सकता है पुलिस को स्टूडियो में ही घुस पर धारा 151 सीआरपीसी के अंतर्गत कार्यवाही करनी न पड़ जाय। मैंने एक पोस्ट भी इसी आशय की डाली थी।। यह उस समय की बात है जब टीवी पर घर वापसी और गाय के मामले पर रोज़ बहस होती थी। हालांकि यह सिलसिला अब भी जारी है। उन डिबेटो में, कुछ टोपी पहने मौलाना, और कुछ टीका फटीका लगाए संत महात्मा गाय और अपने अपने धर्म को बचाने की कवायद में लगे रहते थे, लगता था कि बस अब भिड़ंत होने ही वाली है। पर होती नहीं थी।
पर जिन प्रवक्ताओं पर मुझे सन्देह था कि उनके खिलाफ धारा 151 की ऐसी कार्यवाही करनी पड़ सकती है, उनमें कम से कम गौरव भाटिया नही होंगे। कुछ तो गौरव को मैं थोड़ा बहुत जानता हूँ, उनके पिता जी से भी मिलना जुलना होता था, पर आज जो दृश्य देखा और जो श्रव्य सुना उससे यह लगा कि वे भी महाजनो येन गतः स पन्थाः हो चुके हैं। टीवी डिबेट के एंकर को चाहिये कि वे जब भी संवेदनशील मुद्दों पर बहस आयोजित करें तो कम से कम निरोधात्मक कार्यवाही हेतु पुलिस या निजी सुरक्षा गार्ड ज़रूर आस पास रखें। विशेषकर वे टीवी चैनल जो ज्वलंत मुद्दों के बजाय ज्वलनशील मुद्दों पर बहस आयोजित करते हैं।
एक कमाल और भी है, गौरव भाटिया ने हाथापाई का आरोप लगाया जो धारा 323 आईपीसी का जुर्म बनता है, जो असंज्ञेय है, उसकी मौखिक शिकायत पर पुलिस से अनुराग भदौरिया जो पुलिस ने स्टूडियो से उठा लिया पर बुलंदशहर में ड्यूटी पर एक इंस्पेक्टर एक बजरंग दल के गुंडो द्वारा भड़काई भीड़ से पीट पीट कर और गोली से मार दिया गया कोई तेज़ी नहीं। मतलब साफ है, कानून की नहीं बस उनकी चलेगी जो सरकार में हों।
इसी क्रम में वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टण्डन जी की यह टिप्पणी पढें,
" मोदी का 'कांग्रेस की विधवा' कहना, बीजेपी प्रवक्ता गौरव भाटिया द्वारा समाजवादी प्रवक्ता से टीवी स्टूडिओ में मार पीट और बुलंदशहर में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या, सोशल मीडिया के ट्रोल, मॉब लिंचिंग - ये सब कुछ भारत के समाज में बिलकुल नया है. पाँच साल पुराना.
अचानक ऐसा क्या हुआ है कि समाज का एक हिस्सा एकदम हिंसक हो गया है. हालात यहां तक आगाए हैं कि अगर मैं अपने रिश्तेदारों या बचपन के दोस्तों से भी राजनीतिक चर्चा करूं तो वही होगा जो इस वीडियो में गौरव भाटिया करते हुये दिख रहे हैं. बहुतों से बोलचाल बंद हो चुकी है.
दूसरी तरफ समाज का एक बड़ा हिस्सा ज्यादा नैतिक और सोहार्द पूर्ण होता दिख रहा है. खासकर नई पीढ़ी. तमाम सामाजिक समूहों में मेलजोल बढ़ा है.
हो सकता है मैं गलत हूँ क्योंकि मैंने इसका कोई सर्वे नहीं किया है पर ये बीमारी मुझे सवर्णों में ज्यादा दिखाई दे रही है. मैं इस नतीजे पर इसलिये पहुंचा क्योंकि बाकी सामाजिक वर्गों से मेरे निजी संबंध नहीं बिगड़े हैं.
मोदी के समर्थकों में ही ये हिंसा की प्रवृत्ति क्यों बढ़ी है इसका अध्ययन होना चाहिये. अब गौरव भाटिया को ही लीजिये ये समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता के तौर पर भी कई बरस टीवी पर आये - तीखी बहस भी हुई होगी कई बार पर मारपीट तक बात नहीं पहुंची. अब ऐसा क्या हो गया कि वो हिंसा पर उतारू हो गये. कहीं कोई बीमारी ज़रूर है."
वैसे एक बात कहूँ, मुझे लगता है इन डिबेट का कोई असर जनता पर नहीं होता है। अधिकतर लोग यह तमाशा जान गए हैं। सभी विरोधी दलों के प्रवक्ताओं को चाहिये कि ऐसे चैनलों का बहिष्कार करें जो उनकी राय को उचित समय प्रदान नहीं करते हैं। उनका बहिष्कार इन चैनलों को अपनी कार्यशैली बदलने को बाध्य कर देगा।
( विजय शंकर सिंह )
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