राफेल विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने लोकतंत्र और संसद के बारे में एक नयी बहस को जन्म दे दिया है। राफेल की कीमतों के बारे में सरकार का कहना है इसकी कीमतें बताना जनहित और राष्ट्रहित में नहीं है। उनका तर्क यह है कि अगर कीमतें लोगों को बता दी गयीं तो इससे राफेल पर जो अस्त्र शस्त्र लगे हैं उनका खुलासा हो जाएगा। पर यही बात जब फ्रांस के राष्ट्रपति से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि कीमतों के बारे में कोई सीक्रेसी क्लॉज नहीं है। पर जो भी धन दिया गया है या धन दिया जाएगा वह सरकार का राजकीय धन है और वह बजट के आवंटन और उक्त बजट की स्वीकृति के बाद ही दिया जा सकता है। साथ ही देश के महालेखा परीक्षक ( सीएजी ) हर सरकारी खर्चे की ऑडिट करता है और इसकी रपट संसद की लोक लेखा समिति ( पीएसी ) को भेजता है। पीएसी उस खर्चे के आधार पर दुरुपयोग पाए जाने पर सरकार से जवाब तलब करती है और किसी विभाग की अगर उसे वित्तीय अनियमितता मिलती है वह वैधानिक कार्यवाही करती है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। राफेल हो या अन्य रक्षा सौदे या अन्य खर्चे इन सबकी ऑडिट होती है।
संसद को यह अधिकार कहां से मिला है इसकी पड़ताल करने के लिये थोड़ा देश के संवैधानिक इतिहास की ओर जाना पड़ेगा। भारतीय संवैधानिक परम्पराएं ब्रिटिश संविधान पर आधारित है। 1857 के विप्लव के विफल हो जाने के बाद, 1858 में जब ब्रिटेन की महारानी की घोषणा के अनुसार ब्रिटिश भारत ब्रिटेन के क्राउन का भाग बना तो, भारत के एक सुव्यवस्थित और अधिनियमित शासन प्रणाली मिली। भारत, अंग्रेजों का उपनिवेश था अतः अंग्रेज़ों ने इसे अपने देश जैसा उदार और स्वतंत्रचेता शासन व्यवस्था नहीं दिया। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल के ही समय उन्होंने कानून बनाने शुरू कर दिए थे। 1935 का गवर्नमेण्ट ऑफ इंडिया एक्ट एक विस्तृत लोकतांत्रिक कानून तो बना पर उसमें भी अधिकांश निर्णायक शक्तियां ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि वायसराय के हांथ में थी। ब्रिटेन की सरकार, भारत मामलों के मंत्री के माध्यम से देश का शासन चलाती थी। 1937 में इसी एक्ट के अनुसार, असेम्बली के चुनाव हुए थे। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ और नया संविधान बना तो, 1935 का यही अधिनियम भारतीय संविधान का आधार बना।
दुनियाभर की आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ब्रिटेन की लोकतांत्रिक व्यवस्था का बहुत योगदान है। उसे लोकतंत्र की जननी कहते हैं। ब्रिटेन के संवैधानिक इतिहास में 1688 ई का साल बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है। ब्रिटेन का संविधान अलिखित संविधान है जो परंपराओं से विकसित हुआ है न कि किसी संविधान सभा ने उसे ड्राफ्ट और पारित किया है। आधुनिक लोकतंत्र का एक मूलभूत सिद्धांत है कि जनता सर्वोच्च है। सारे नियम कायदे जनता के लिये और जनहित में ही बनाये जाएंगे। संघीय व्यवस्था में जनता का प्रतिनिधित्व उसके प्रतिनिधि करते हैं जो मिल कर संसद या विधानसभा का गठन करते हैं तो संसद या विधानसभा सर्वोच्च है। भारतीय संविधान में भी संसद या विधानसभा जिसे विधायिका कहते हैं को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
इंग्लैंड में 17 वीं सदी में एक विवाद खड़ा हुआ। यह विवाद इंग्लैंड की गौरव पूर्ण क्रांति के नाम से जाना जाता है। 1688 ईं की महान् अंग्रेजी क्रांति शांतिपूर्वक संपन्न हो गई और इंग्लैंड का राजा बदल गया,,इंग्लैंड की शासन व्यवस्था बदली,पर एक बूंद रक्त भी कहीं नहीं गिरी। सम्राट जेम्स द्वितीय द्वारा संसद की सर्वोच्चता को चुनौती देने के फलस्वरुप ही इंग्लैंड में 1688 ईस्वी मे क्रांति हुई थी। उसे अपने निरकुंश शासन संसद की अवहेलना करने तथा प्रोटेस्टैंट धर्म विरोधी नीति के कारण गद्दी छोड़नी पड़ी थी। इस गौरवपूर्ण क्रांति के फलस्वरुप इंग्लैंड में स्वछंद राजतंत्र की इमारत टूट चुकी थी। संसदीय शासन पद्धति की स्थापना हो जाने से जनसाधारण के अधिकार सुरक्षित हो गए, और राजनीतिक एवं धार्मिक अत्याचार के भय से मुक्ति पा कर लोग आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होने लगे थे।
हमारा संविधान जब ड्राफ्ट किया जा रहा था तो हमारे संविधान निर्माताओं ने ब्रिटेन के इस गौरवपूर्ण क्रांति से प्रेरणा ग्रहण की और हमने भी यही सिद्धांत अपनाया कि संसद सर्वोच्च है। संविधान के अनुच्छेद 112 से 117 तक के प्राविधान, संसद को सरकार से धन व्यय करने के संबंध में पूछताछ करने की पूरी शक्ति प्रदान करते हैं। इसी सिद्धांत के आधार पर कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया और उसके ऑडिट पर गहन पड़ताल के लिये लोक लेखा समिति, पब्लिक एकाउंट्स कमेटी पीएसी का गठन किया गया है। पीएसी का चेयरमैन इसीलिये नेता विरोधी दल होता है, ताकि वह सरकार के व्यय की बिना किसी सरकार के प्रभाव में आये समीक्षा कर सके। एक रुपया भी बिना संसद की मंजूरी के सरकार व्यय नहीं कर सकती है। संविधान में वित्त विधेयक की मंजूरी के लिये लोकसभा ही महत्वपूर्ण है इसी लिये बजट लोकसभा में पेश होता है और उस पर बहसें एवं संशोधन होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने अपने फेसबुक पेज पर इस बारे में एक लेख लिखा है। उनके अनुसार " राफेल मामले में फैसला करते समय सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में अंकित इस सिद्धांत को नज़रअंदाज़ कर यह बात मान ली कि राफेल की कीमत एक गोपनीय दस्तावेज है और इसे बताया नहीं जा सकता है। " यह भी पहली ही बार है कि रक्षा सौदों के उपकरणों की कीमत सुरक्षा के नाम पर गोपनीय बतायी जा रही है। उन्हीं के शब्दों में पढ़ें,
" The observation in paragraph 25 of the Supreme Court judgment in the Rafale case goes against the above principle, and hence it goes against a cardinal principle of democracy."
राफेल विवाद पर 14 दिसंबर 2018 को, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, तथा अन्य द्वारा दिए गए निर्णय के पैरा 25 में कहा गया है कि,
" That the pricing details are sensitive and so cannot be disclosed to Parliament. "
( कीमतों का विवरण एक संवेदनशील प्रकरण है जिसे संसद को नहीं बताया जा सकता है ।)
विधि के जानकारों के अनुसार, यह दृष्टिकोण कि कीमतों को संसद को भी नहीं बताया जा सकता , ही असंवैधानिक है और संसद के सर्वोच्चता के सिद्धांत को खंडित कर देता है। संसद के माध्यम से जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है कि उसके टैक्स का पैसा कहां, किस प्रकार और किस मद में खर्च हो रहा है। अगर संवेदनशीलता की आड़ एक बार मान ली गयी तो सरकार हर व्यय को संवेदनशील बताने की कोशिश आगे कर सकती है और यह एक प्रकार से धन के दुरुपयोग को ही प्रोत्साहित करेगा। इसका एक उदाहरण सूचना के अधिकार में प्रस्तावित संशोधन से समझा जा सकता है। सरकार जिन सूचनाओं को नहीं देना चाहती और जिनसे वह असहज हो सकती है उसे संवेदनशील बता कर देने से मना करना चाहती है।
आगे इसी फैसले में यह कहा गया है कि राफेल सौदा की कीमतों का विवरण सीएजी को दिया जा चुका है और उन्होंने इसका परीक्षण करके इसे पीएसी को सौंप दिया है। पर जब यह झूठ खुला तो सरकार ने टाइपोत्रुटि का सहारा लिया और एक संशोधित हलफनामा सुप्रीम कोर्ट को सौंपा है। अभी सुप्रीम कोर्ट में शीतावकाश है जब सर्दियों की छुट्टी के बाद अदालत खुलेगी तभी यह पता लगेगा कि इस संशोधित हलफनामे पर अदालत का क्या दृष्टिकोण होता है। जस्टिस मार्कण्डेय काटजू के अनुसार,
" It seems that the observation in para 25 of the judgment is ipse dixit and not factually correct."
ऐसा लगता है कि निर्णय के पैरा 25 में दिया गया अंश इप्से दिक्सिट यानी जैसा बताया गया वैसा ही मान लिया गया है, कोई सुबूत नहीं मांगा गया और न ही उसका परीक्षण किया गया।
आगे भी सभी खर्चे चाहे वे संवेदनशील बताए जा रहे राफेल खरीद से जुड़े हों या अन्य व्यय, अंततः सीएजी के पास ऑडिट के लिये भेजे ही जाएंगे और उसके बाद पीएसी यानी लोकलेखा समिति के पास परीक्षण के लिये जाएंगे और फिर जब संसद के पटल पर रखे जाएंगे तो स्वतः सार्वजनिक हो जाएंगे। सरकार का यह तर्क कीमतें सार्वजनिक करना सुरक्षा से समझौता करना है जब कि सभी को राफेल की यूपीए कालीन समझौते और अब के समझौते की कीमतें पता हैं बस यह पूछा जा रहा है कि पहले समझौते में 126 विमान आने थे, अब वे 36 कैसे हो गए, पहले तकनीक हस्तांतरण होना था, अब वह क्यों हटा दिया गया, पहले फ्रेंच सरकार की सॉवरेन गारंटी थी, अब क्यों कोई गारंटी नहीं है, और पहले 70 साल की अनुभवी सरकारी कम्पनी एचएएल को उसे बनाने का दायित्व मिलने वाला था अब यह दायित्व ऑफसेट पार्टनर के नाम पर पन्द्रह दिन पहले गठित अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंन्स को क्यों दे दिया गया। सवाल उठते रहेंगे और सरकार को जवाब देना ही पड़ेगा, भले ही वे सत्ता को असहज करें।
© विजय शंकर सिंह
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