नितिन गडकरी का यह कथन पढें,
" Success has many fathers but failure is an orphan, as when there is success, there will be a race to take credit but in case of failure, everybody will start pointing fingers at each other,"
" Success has many fathers but failure is an orphan, as when there is success, there will be a race to take credit but in case of failure, everybody will start pointing fingers at each other,"
" सफलता के अनेक दावेदार होते हैं, पर असफलता अनाथ होती है। सफलता का श्रेय लेने के लिये एक होड़ सी लग जाती है जबकि असफलता की जिम्मेदारी कोई भी नहीं लेना नहीं चाहता है। "
नितिन गड़करी ने कोई नयी बात नहीं कही है बल्कि उन्होंने एक प्रसिद्ध उद्धरण को ही उद्धरित किया है। पर नयी बात टाइमिंग की है कि जब वे यह बात कह रहे हैं। उनका एक और बयान पढें, " सपने दिखाने वाले अच्छे लगते हैं, पूरे ना होने पर नेताओं की पिटाई भी करते हैं। "
तीन राज्यों में हार के बाद बीजेपी में विरोध की सुगबुगाहट दिखने लगी है. केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि नेतृत्व को हार और विफलता की भी जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए. इशारों-इशारों में गडकरी ने कहा कि कोई भी सफलता की तरह विफलता की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता है. सफलता के कई पिता हैं, लेकिन विफलता अनाथ है. जब भी सफलता मिलती है को उसका श्रेय लूटने की होड़ मच जाती है, लेकिन जब विफलता होती है तो हर कोई एक दूसरे पर उंगली उठाना शुरू कर देता है. वह पुणे जिला शहरी सहकारी बैंक असोसिएशन लिमिटेड द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में बोल रहे थे.
देश मे दो ही कैडर आधारित राजनीतिक दल माने जाते हैं जो विचारधाओं के स्तर पर विकसित हुए हैं । एक भारतीय जनसंघ और दूसरी कम्युनिस्ट पार्टियां। जनसंघ दक्षिणपंथी विचारधारा की समर्थक तो कम्युनिस्ट मार्क्स के विचारों से प्रभावित दर्शन पर आधारित दल है। जनसंघ का गठन आरएसएस की राजनीतिक शाखा के रूप में किया गया था जो एक दल के रूप में लंबे समय तक जनता में स्वीकार्य नहीं हुई। जनसंघ तो 1977 में जनता दल में विलीन हो कर 1980 में पुनः भाजपा के रूप मे पुनर्जीवित हुयी, पर इस पुनर्जीवन का आधार भी कैडर का हित ही रहा है। जब मधु लिमये ने आरएसएस के साथ दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाया तो जनसंघ जो आरएसएस का ही एक राजनीतिक मुखौटा था से जनता पार्टी में विलीन हुये लोग असहज हुये और उन्होंने आरएसएस को त्यागना अस्वीकार कर के एक नयी पार्टी का गठन किया , जो भारतीय जनता पार्टी कहलायी। उस समय भाजपा में जो जनसंघ से जनता पार्टी में गये थे, वे तो गये ही, कुछ वे लोग भी गये जो मूलतः आरएसएस की सोच, पृष्ठभूमि और मानसिकता से सहमति नहीं रखते थे, पर वे बीजेपी के उदारवादी चेहरे, अटल बिहारी बाजपेयी, जिसे आरएसएस के कभी थिंक टैंक कहे जाने वाले गोविंदाचार्य ने बाद में मुखौटा कहा, से प्रभावित होकर गये थे। तब तक भाजपा के कर्णधारों को यह एहसास हो गया था कि कट्टर राष्ट्रवाद और दक्षिणपंथी अर्थव्यवस्था की सोच के नाम पर भारत मे कोई भी राजनीतिक दल चल नहीं सकता है तो उन्होंने आरएसएस की सोच के प्रबल विरोधी महात्मा गांधी की विचारधारा को भले ही दिखाने के लिये ही सही, अपनी विचारधारा का मूल घोषित किया और भाजपा की राजनीतिक विचारधारा घोषित की गयी, गांधीवादी समाजवाद। यह शब्द ही घालमेल है। गांधीवाद और समाजवाद में ही वैचारिक अंतर है फिर जनसंघ से उद्भूत हुये, आरएसएस के साहित्य से प्रशिक्षित लोगों ने वक़्त की नजाकत को समझा और गांधी का जाप शुरू किया। लेकिन गांधी तो एक मज़बूरी तब भी थे और आज भी हैं। लेकिन गांधी की हत्या को भी उचित ठहराने वाले लोग जब उसी गांधी में ही अपना अस्तित तलाशते हैं तो गांधी की ताकत और उनकी प्रासंगिकता का एहसास होता है।
2014 में जब मोदी का अवतार हुआ तो यह लगा कि देश ने अब तक का सबसे काबिल प्रधानमंत्री पा लिया है। वह देश के विकास की दशा और दिशा दोनों ही बदल कर रख देगा। जनता ने जितना व्यापक समर्थन दिया था, उसे देखते हुए अगर नेतृत्व ने जो वादे किये थे, उसे देखते हुये अगर नरेंद्र मोदी दूरदर्शी होते तो निश्चय ही देश की दशा दिशा दोनों ही बदल सकती थी। पर इस लोकप्रियता का लाभ नेतृत्व ने अपने चहेते पूंजीपतियों स्वार्थपूर्ति के लिये अधिक किया । हालांकि भाजपा की आर्थिक सोच दक्षिणपंथी आर्थिक विचारधारा जो पूंजी के निजीकरण पर आधारित है के पक्ष में है पर पूंजीवाद के इस गर्हित स्वार्थी स्वरूप जिसे क्रोनी कैपिटैलिज़्म यानी गिरोहबंद पूंजीवाद कहा जाता है को इस सरकार ने अपना उद्देश्य बना लिया और सरकार का हर कदम भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से जनहितकारी दिखे पर वह मूलतः कुछ पूंजीवादी घरानों के हित के लिये ही उठाया गया साबित हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि जनता में असंतोष बढ़ता गया। इस असंतोष को डिरेल करने के लिये राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक उन्माद का सहारा लिया गया ताकि लोगों का ध्यान उनकी मूल समस्याओं से भटके। गौरक्षा, घरवापसी, लव जिहाद आदि आदि भावुक मामले जो 2014 के संकल्पपत्र में थे ही नहीं अचानक मदारी के पिटारी से निकले और उन्होंने लोगों को असल समस्याओ से दूर करना शुरू कर दिया। लेकिन यह क्षणिक था। भावुक मुद्दे क्षणिक ही होते है। इस असंतोष को दूर करने के बजाय सत्ता शीर्ष ने उनका उपहास उड़ाना शुरू किया और परिणाम हाल ही में सम्पन्न हुये विधानसभा के चुनाव में सामने आ गया।
2014 के समय से ही आईटी सेल के नाम पर सायबर लफंगों की एक फौज खड़ी की गयी जिसने राजनीतिक विमर्श को एक नई नीचाई दी। अपशब्द, कुतर्क, मिथ्यावाचन, कूट इतिहास और गोएबेलिज़्म के दम पर बेरोजगार युवकों की यह फौज जो एक समय मोदी शाह जोड़ी के लिये हवा बनाने के अभियान में लगी अब वह इनके लिये गले की फांस बन गयी है। आरएसएस जो भाजपा का पितृ संगठन है ने अब मोदी शाह के खिलाफ सोचना शुरू कर दिया है। वह सिर्फ सोचता है लेकिन उसकी सोच के आधार पर जो लोग बोलते हैं वे वही बोलते हैं जो वह सोचता है। नितिन गडकरी की मुखरता का सच यही है। नितिन गडकरी के हाल के बयानों को देखिये तो मोदी शाह की जोड़ी के प्रच्छन्न विरोध के रूप में वे दिखेंगे।
सच तो यह है कि संघ ने भाजपा का चेहरा बदलने की कवायद शुरू की है। जैसे बड़ी कम्पनियां अपने उत्पाद को थोड़ा फेरबदल के साथ बेहतर दिखा कर बाजार में प्रस्तुत करती हैं, वैसे ही यह भी चेहरा बदलने की एक शातिर कवायद है। नितिन गडकरी खुद भी गिरोहबंद पूंजीवाद के सनर्थक हैं पर इन्हे उन बुराइयों से मुक्त होकर दिखाया और पेश किया जा रहा है जो मोदी शाह युगल में आ गयी है। मोदी शाह की जोड़ी न केवल ठस, अहंकारी और अलोकतांत्रिक सोच की है बल्कि वे आपराधिक मानसिकता के भी हैं, शाह तो तड़ीपार भी रह चुके हैं। पर नितिन विनम्र और व्यापारिक मानसिकता के हैं।
© विजय शंकर सिंह
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