सुप्रीम कोर्ट हो या कोई भी कोर्ट, हलफनामा हो या कोई भी कागज, यह सरकार का कोई मंत्री नहीं देखता है। यह उस विभाग का सचिव अगर मामला बहुत महत्वपूर्ण रहा तो वह देखता है या संयुक्त सचिव। हलफनामे में क्या जाएगा, क्या भाषा होगी, सरकार के पक्ष के अनुसार उसे ड्राफ्ट किया जाता है फिर दस्तावेजों के आलोक मे उसे निखारा जाता है, यह सब काम सचिवालय का है। हलफनामा तैयार होने के बाद, सरकार का न्याय विभाग उसके वैधानिकता की पड़ताल करता है, फिर वह सरकार के स्टैंडिंग कौंसिल या जैसा मामला हो एडवोकेट जनरल या अटॉर्नी जनरल तक उसका परीक्षण होता है। अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों में कई कई दौर की मीटिंग्स होती है और फिर किसी बड़े अफसर के दस्तखत से वह हलफनामा अदालत में जाता है। मंत्री,अगर इतना महत्वपूर्ण मामला है कि सरकार उसमे घिरी है तो वह भी मीटिंग लेता है और अपना दृष्टिकोण रखता है पर उस हलफनामे को कानूनी जामा पहनाने का काम अधिकारियों का है। इतने मेहनत के बाद भी हो सकता है कि टाइपो त्रुटि रह जाय पर वह मूलतः स्पेलिंग और पंचुएशन की ही होती है। वैसे सचिवालय का लिपिक स्टाफ इतना एक्सपर्ट होता है कि ऎसी त्रुटि अमूमन नहीं होती है। जब से कंप्यूटर आ गए हैं तो उसका स्पेलिंग करेक्टर और ऑटो करेक्ट सिस्टम त्रुटि रहने नहीं देता। हलफनामा की एक तयशुदा भाषा होती है वह कोई साहित्य नहीं होता है।
राफेल मामले में टाइपिंग गलती हो सकता है हो गयी हो। पर एक बात मैं बहुत पहले से कह रहा हूँ कि पीएम के भाषणों में अक्सर तथ्यात्मक भूलें होती हैं और कुछ तो इतनी गम्भीर हुयी हैं कि उनको लेकर बड़ी भद्द पिटी है। पीएम का भाषण लिखा जाता है और अगर पूरा भाषण नहीं लिखा गया है तो उसके महत्वपूर्ण विंदु ब्रीफ किये जाते हैं। लेकिन न तो पीएम ने और न ही उनके सलाहकारों ने इस बिंदु पर ध्यान दिया। परिणामस्वरूप न केवल पीएम के पद का मज़ाक़ उड़ा बल्कि सोशल मीडिया में भी ऐसी ऐसी बातें हुयी कि पीएम पद की गरिमा गिरी। इस भूल को सुधारा जा सकता था जिसे नहीं किया गया।
राफेल मामले में पीएम सीधे सम्बद्ध हैं। चाहे अनिल अंबानी को सौदे में लाने की बात हो या 126 से 36 विमान कम करने की बात हो चाहे 1000 करोड़ रुपये अधिक देकर, प्रति विमान खरीदने की बात हो। हर बात में उनपर ही जाकर सारे सवाल टिकते हैं। 2012 से ही नरेंद्र मोदी की क्षवि जानबूझकर और एक तयशुदा एजेंडे के अंतर्गत अवतारी और सर्वसमर्थ बनाने की गई है जिसे अंग्रेजी में लार्जर दैन लाइफ इमेज कहते हैं पर अब जब, वही क्षवि जब उसका प्रभामण्डल क्षीण हो रहा है तो उसे बचाने की कोशिश की जा रही है। कभी, पत्नी के परित्याग पर, बुद्ध बना देना, कभी हिमालय में सत्य की खोज में भटकता हुआ साधू बना देना, कभी मगरमच्छ का शिकार कराते हुए टार्जन की तरह पेश करना, तो कभी गुजरात के विकास का सारा दारोमदार इनके कंधे पर डाल कर के देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री घोषित कर देना,तो कभी काठमांडू में पशुपतिनाथ के मंदिर के बाहर एक विनम्र तीर्थयात्री की वेशभूषा और वाराणसी में गंगा आरती के समय उनके कलेवर और हावभाव से उन्हें हिन्दू हृदय सम्राट घोषित कर के आदि शंकर के बाद हिन्दू धर्म के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत करना, आदि आदि एक संगठित पीआर कवायद उनकी क्षवि बदलने के लिये लगातार किया जा रहा है। क्योंकि 2012 में ही वाइब्रेंट गुजरात की समिट में पूंजीपतियों ने उन्हें पीएम पद के लिये प्रोमोट करना शुरू कर दिया था। 2002 के गुजरात दंगों ने उन्हें कट्टर हिंदुत्व का चोला पहना ही दिया था। 2012 के बाद जनता या भाजपा ने उन्हें पीएम के रूप में अपनाने का संकेत दिया हो या नहीं, पर पूंजीपतियों के एक गुट ने उन्हें पीएम के पद पर प्रतिष्ठापित करने का मन बना लिया था। धन और संसाधनों की अविरल आपूर्ति ने उनके पक्ष में एक जबरदस्त माहौल बनाया। उधर यूपीए 2 के कार्यकाल में घोटालों की बाढ़ ने जनमानस में यह बैठा दिया कि नूह की नाव की तरह इस सैलाब से नरेंद्र मोदी ही पार दिला सकते हैं। 2014 में भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली और जन अपेक्षायें भी आसमान छूने लगीं।
शिखर पर पहुंचना कठिन तो होता है, पर शिखर पर बने रहना और भी कठिन होता है। 2014 के चुनाव के बाद जब नरेन्द्र मोदी पीएम बने तो लगा कि एक मज़बूत और योग्य नेतृत्व मिला है पर यह भ्रम कुछ समय तक तो बना रहा फिर जब, उनके पूंजीपति प्रेम, प्रचारक भाव, तमाशाई और फैशन के प्रति जुनून भरा लगाव, आत्ममुग्धता, अहंकार, अनावश्यक मुद्दों पर वाचालता पर जनहित के मुद्दों पर शातिराना मौन, आदि आदि बातें सामने आयी तो लोगों का मोहभंग होना शुरू हुआ। लेकिन उनके समर्थकों की एक बड़ी जमात ने उनके प्रति सम्यक और सुधारात्मक आलोचना का मार्ग अपनाने के बजाय उनके झूठ और मिथ्या तथ्यों का भी अनावश्यक और हास्यास्पद तर्को से उनका बचाव करना शुरू किया। जनता को जो मायाजाल 2014 के चुनाव के समय पीआर एजेंसियों और संकल्पपत्र के माध्यम से दिखाए गए थे धीरे धीरे वे बिखरने लगे। नतीजा यह हुआ जिस काँग्रेस को लोगों ने 2014 में सत्ता से बेदखल कर दिया था वह अब इनसे बेहतर विकल्प के रूप में दिखने लगी। कांग्रेस में कोई गुणात्मक परिवर्तन हुआ है या नहीं यह तो जब तक वह सत्ता में न आये तब तक नहीं कहा जा सकता पर बीजेपी को लेकर यह धारणा ज़रूर बन रही है कि कहीं न कहीं यह सरकार जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर रही है।
अब राफेल मामले में दायर सरकार के हलफनामे में तथ्यात्मक त्रुटि की बात करते हैं। पूरा किस्सा इस प्रकार है।
सरकार ने कल 14 दिसम्बर के फैसले के बाद जब हलफनामा पर सवाल उठे तो 15 दिसंबर को एक संशोधित हलफनामा सरकार ने अदालत में दायर किया। सरकार ने कहा कि पहले दायर हलफनामे में हुयी भूल, भूल टाइपिस्ट की थी। यह बड़ी लापरवाही है लेकिन जब विपक्ष आक्रामक हुआ और जब लोक लेखा समिति ( पीएसी ) ने महालेखा परीक्षक ( सीएजी ) तथा अटॉर्नी जनरल को तलब करके वस्तुस्थिति से अवगत कराने की बात कही तो आज सरकार ने अदालत में संशोधित हलफनामा दायर दिया है। इस पर अदालत क्या करती है यह तो सर्दी की छुट्टियों के बाद ही पता लगेगा।
जनसत्ता की एक खबर के अनुसार, राफेल डील पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले ही दिन केंद्र सरकार ने संशोधन से संबंधित एक हलफनामा सौंपा है और उसकी कॉपी सभी याचिकाकर्ताओं को दी है। फैसले के बाद जब केंद्र सरकार पर ये आरोप लगने लगे कि उसने सुप्रीम कोर्ट को गलत जानकारी दी है तो सरकार की तरफ से अगले ही दिन उसमें सुधार के लिए कोर्ट में हलफनामा सौंपा गया। हलफनामे में कहा गया है कि पहले सौंपे गए एफिडेविट में टाइपिंग में गलती हुई थी, जिसकी कोर्ट ने गलत व्याख्या की है। बता दें कि सरकार ने पहले सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि राफेल लड़ाकू विमान की कीमत निर्धारण और उससे जुड़े अन्य विवरण नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) और लोक लेखा समिति (पीएसी) के साथ साझा किए गए हैं, जिसकी समीक्षा उनके द्वारा की गई है। उसकी रिपोर्ट भी बाद में कोर्ट को सौंपी गई है। आज (शनिवार, 15 दिसंबर) सौंपे गए हलफनामे में सरकार ने कहा है कि उसने केवल रिपोर्ट और रिपोर्ट दर्ज करने की प्रक्रिया का हवाला दिया है।
कैग और पीएसी के मुद्दे के बारे में शीर्ष अदालत के फैसले के पैराग्राफ 25 में इसका जिक्र है । फैसले में कहा गया था कि फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू विमानों की खरीदारी में किसी तरह की अनियमितता नहीं हुई. फैसले में कहा गया कि उसके सामने रखे गए साक्ष्य से पता चलता है कि केंद्र ने राफेल लड़ाकू विमान पर मूल्य के विवरणों का संसद में खुलासा नहीं किया, लेकिन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के सामने इसे उजागर किया गया. शुक्रवार को उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद कांग्रेस नेता और पीएसी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि उनके सामने इस तरह की रिपोर्ट नहीं आयी थी ।
सरकार फिर झूठ बोल रही है। टाइपिंग की गलतीं से स्पेल्लिंग और पंक्चुएशन की गलतियां होती हैं, न कि तथ्य बदलते हैं। पहले हो सकता है धुप्पल में सब चल जाय पर जब शोर मचा और सीएजी तथा अटॉर्नी जनरल के ऊपर बात आयी तो यह रास्ता निकाला गया। इस सौदे में ऐसा क्या है कि इसे इतना छुपाया जा रहा है। सरकार यही बता दे कि अनिल अंबानी किस प्रकार, एचएएल से बेहतर चयन हैं और कीमतें बढाना क्यों जरूरी हैं ।
सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में कोई जांच नहीं की है बल्कि उसने अनुच्छेद 32 के प्राविधान के अनुसार इन मामलों में एक सीमा से अधिक हस्तक्षेप करने में अपनी वैधानिक असमर्थता ज़ाहिर की है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद निम्न विंदु उभरते हैं,
* सरकार ने केवल प्रोसीजर का विवरण और उनके मिनिट्स भेजे थे।
* एयर फोर्स ने सरकार से कहा क्या कि उसे 126 के बजाय 36 फाइटर प्लेन चाहिए ? क्योंकि एयरफोर्स ने 126 की आवश्यकता पहले बतायी थी। यह बदलाव क्यों किया गया इस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने कोई टिप्पणी नहीं की और न हीं सरकार ने बताया कि किस कैबिनेट मीटिंग में 126 से 36 विमान करने का निर्णय लिया गया।
* सम्बंधित फाइलों के नोटशीट पर कब कब क्या टिप्पणी किस किस अफसर ने किया है इसका कोई विवरण सुप्रीम कोर्ट ने न तो मांगा था और न ही भेजा गया।
* मांगा इसलिए नहीं कि किसी भी आरोप की जांच करना अदालत के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं। यह काम पुलिस का है जो सीआरपीसी के अधीन प्राप्त शक्तियों के अनुसार किसी अपराध की जांच करती है।
* सुप्रीम कोर्ट को सरकार ने कीमतों के बारे में भी कोई विवरण नहीं भेजा है। हालांकि कीमतों के बारे में विवरण सीएजी को भेजा गया है, अभी उसकी रिपोर्ट नहीं आयी है।
* डिफेंस एक्यूजिशन कमेटी जो रक्षा सौदों की सर्वोच्च समिति होती है की मीटिंग के मिनिट्स भी न तो सुप्रीम कोर्ट ने मांगे थे और न ही सरकार ने भेजा था। बिना उक्त विवरण के कोई कैसे कह सकता है कि सौदा बिल्कुल साफ सुथरा है ?
* सॉवरिन गारंटी की शर्त क्यों और किसके कहने पर बदली गयी इससे जुड़े दस्तावेज भी सुप्रीम कोर्ट ने नहीं देखे और यह सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। सौदे के विफल होने पर पैसा वसूलने के लिये अब कोई जिम्मेदार नहीं होगा। पहले यह गारंटी की शर्त थी, जिसमे फ्रांस सरकार की भूमिका थी, अब किसी की भी नहीं है।
* पहले अनुभवी कंपनी एचएएल को चुनना फिर अनुभवहीन कंपनी अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को चुनना यह अचानक क्यों और कैसे हुआ यही सबसे बड़ा रहस्य है।
उपरोक्त तथ्यों की तह में पहुंचने के लिये ही जेपीसी की मांग की जा रही है जो उचित है। अक्सर बड़े घोटालों में कागज़ का पेट भरा होता है पर घोटाले होते हैं। अतः बना जांच के क्लीन चिट का कोई औचित्य नहीं है।
कानून में क्लीन चिट जैसा कोई शब्द कहीं नहीं है। या तो आरोप साबित होंगे या नहीं होंगे। साबित होंगे तो अदालत में ट्रायल होगा और नहीं साबित हुए तो मुकदमा फाइनल रिपोर्ट में खारिज़ हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च अपीली न्यायालय है। वह किसी मुक़दमे का ट्रायल नहीं करती है बल्कि कानूनी पेचीदगियों पर अपील और उनके दलील सुनती है। वह जांच एजेंसी नहीं है। जांच का काम सीआरपीसी में पुलिस को है। सुप्रीम कोर्ट बिना जांच के ही किसी को दोषी या निर्दोष मान लेने की प्रवित्ति अपनाती है तो इसकेे दूरगामी परिणाम होंगे। अपराध की जांच ही न हो और अपराध का आरोपी दोषी या निर्दोष मान लिया जाय यह प्रवित्ति न्यायशास्त्र के मूल सिद्धांत के ही विरुद्ध है। अपराध और दंड के बीच जांच की प्रक्रिया को अचानक नज़रअंदाज़ कर देना, अपराशास्त्र के स्थापित नियमो को ही नकार देता है। अगर अपराध का आरोप है तो उसकी जांच की जानी चाहिये, अन्यथा कोई भी बिना जांच के ही किसी को दोषी या निर्दोष मान लेना यह न्याय के विचलन का खतरनाक विंदु होगा।
राजनेताओं को अवतार मानने की परम्परा एक अलोकतांत्रिक कदम है। वे भी मानव ही है। मानवीय गुण और दुर्गुण उनमें भी होते हैं। चाहे परम लोकप्रिय जन नेता महात्मा गांधी हों या कोई भी वे अवतार या ईश्वर या देवी शक्ति सम्पन्न चीज नहीं हो सकते हैं। उनके द्वारा किये गए कृत्यों की समीक्षा और आलोचना करना जिस दिन जनता बंद कर देगी, उसी दिन वह नेता खुद को निर्विकल्प समझ लेगा और अहंकार से भर जाएगा। परिणामस्वरूप उसका विनाश तो होगा ही वह उनको भी विनाश के गर्त में डाल देगा जिनका वह नेतृत्व कर रहा है।
© विजय शंकर सिंह
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