अराजक बनती भीड़ हिंसा तो हैरान करती ही है पर उस भीड़ हिंसा की अराजकता पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या सत्ता में बैठे महत्वपूर्ण लोगों का मौन और अधिक हैरान करता है। यह मौन प्रच्छन्न रूप से उकसाता है भीड़ को जो करना है कर गुज़रो। जैसे ही गौरक्षकों के नाम पर सामुहिक हिंसा का ज्वर फैलने लगा था वैसे ही अगर इसे एक अपराध और कानून व्यवस्था की समस्या समझ कर प्रोफेशनल ढंग से लिया गया होता तो आज वह ज्वर वायरल होकर सन्निपात नही हो गया था।
गोरक्षकों की भीड़ हिंसा से 50 लोग और बच्चा चोरी की अफवाहों से 30 लोगों की हत्या के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में फैसला देते हुए प्रिवेन्टिव, सुधारात्मक और दण्डात्मक कदमों की बात कही है। किसी व्यक्ति, समूह या भीड़ द्वारा इरादतन या गैर-इरादतन हत्या भारतीय दंड संहिता, यानी IPC के तहत अपराध है, के विषय मे नए दिशा निर्देश जारी करते हुए कहा है कि मॉब लिंचिंग की घटना होने पर तुरंत FIR, जल्द जांच और चार्जशीट, छह महीने में मुकदमे का ट्रायल, अपराधियों को अधिकतम सज़ा, गवाहों की सुरक्षा, लापरवाह पुलिसकर्मियों के विरुद्ध कार्रवाई, पीड़ितों को त्वरित मुआवज़े जैसे कदम राज्यों द्वारा उठाए जाएं। यह निर्देश नए है। इन सभी विषयों पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी अनेक फैसले दिए हैं, जिन्हें लागू नहीं करने से भीड़ हिंसक अपराधियों का हौसले बढ़े है।
मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं को रोकने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और यूपी में गैंगस्टर एक्ट के प्रयोग किये जा सकते हैं।.लेकिन जब राजनीतिक संरक्षण की वजह से कश्मीर घाटी में पत्थरबाजों और हरियाणा में जाट आंदोलन के उपद्रवियों और सत्तारूढ़ दल के लोगों के विरुद्ध दर्ज मामले वापस हो जाते हैं तो इसका सीधा असर पुकिस के मनोबल पर पड़ता है। . सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि, " भीड़ हिंसा या मॉब लिंचिंग को पृथक अपराध बनाने के लिए संसद द्वारा नया कानून बनाया जाना चाहिए। " लेकिन समस्या कानून की कमी नहीं बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छा शक्ति की कमी है। आज भी आईपीसी IPC की धारा 302, 304, 307, 308, 323, 325, 34, 120-बी, 141 और 147-149 और CRPC की धारा 129 और 153 ऐसे अपराधों के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं। पर हमने कानून को कानूनी तरह से लागू करने की आदत भी अब कम हो रही है।
राजनीतिक दलों के संरक्षण की वजह से पुलिस कार्रवाई में हिचकती है। जब गोरक्षक या मॉब लिंचिंग के अपराधियों को नेताओं का संरक्षण मिलता है, तो फिर पुलिस कार्रवाई कैसे करे...? बुलंदशहर हिंसा में सुबोध हत्याकांड की घटना में पुलिस की भूमिका देख लें। ऐसे घृणित अपराधों को संरक्षण दे रहे नेताओं को चुनाव के अयोग्य घोषित करते हुए, उनके विरुद्ध सख्त आपराधिक कार्रवाई यदि की जाए, तो फिर छुटभैये नेताओं की मॉब लिंचिंग की दुकान खुद-ब-खुद बंद हो जाएगी।
तुषार गांधी की एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर, 2017 को राज्यों को मॉब लिंचिंग रोकने का आदेश दिया था।हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन नहीं करने की वजह से, उनके खिलाफ अवमानना का नोटिस भी जारी किया गया । कुछ आपराधिक सोच के नेताओं के संरक्षण में मॉब लिंचिंग एक संगठित उद्योग बन गया है, जिसके राजनीतिक दलों को ही ठोस कार्रवाई करने की पहल करनी होगी।
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पहले, प्रतापगढ़ में डीएसपी जियाउल हक, फिर मथुरा में एसपी द्विवेदी, फिर बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह और अब ग़ाज़ीपुर में कॉन्स्टेबल सुरेश वत्स की ड्यूटी पर भीड़ द्वारा की गयी हत्या, और पुलिस के हमलों का एक बड़ा कारण है राजनीतिक दलों द्वारा पुलिस मजामत पर शातिर चुप्पी.। पुलिस एक व्यक्ति नहीं है यह सत्ता की प्रतिनिधि है बल्कि सरकार का एक चेहरा है। यह हमला सरकार पर है। बुलंदशहर हिंसा में सत्तारूढ़ दल के विधायक का पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या के बारे में अनर्गल और झूठे बयान और सरकार द्वारा उक्त विधायक के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करना, न ही उसके बयानों से पल्ला झाड़ लेना और न ही उस विधायक को चुप रहने के लिये कहना, उन सभी राजनीतिक दलों के असामाजिक और उद्दंड लोगों का मन बढ़ाता है जो राजनीति में केवल अपने अपराध छुपाने की गरज से आये हुये हैं। सरकार और राजनीतिक दलों को को एक बात समझ लेनी चाहिये कि अपराधी की कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं होती है और कानून के प्रति अवज्ञा का भाव उनके अंदर का स्थायी भाव होता है। वे राजनीति में बस पनाह के लिये आते हैं, न कि उस राजनीतिक दल की विचारधारा से प्रभावित होकर उसे लागू करने के लिये। जैसे ही उक्त राजनीतिक दल का छप्पर उजड़ने लगता है वे दूसरे छप्पर की तलाश में चल देते हैं।
घटना चाहे बुलंदशहर की हो या गाजीपुर की, कहीं की भी हो, भीड़ हिंसा में चाहे इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह मारा जाय या सिपाही, सुरेश वत्स , एक बात साफ है कि इन दोनों हमलों में हिंसक भीड़ को यह पता है कि भीड़ की हिंसा पर कोई कानूनी कार्यवाही मुश्किल से होती है और भीड़ में असल अपराधी का छुप जाना आसान तथा उसकी पहचान कर के सज़ा दिलाना कठिन होता है। अपराधी सरकार और पुलिस की नब्ज पहचानता है। वह सरकार का रुख भी देखता है कि सरकार का क्या रवैय्या है ऐसी अराजक भीड़ हिंसा पर। रवैय्या साफ और स्पष्ट है कि भीड़ हिंसा के महिमामंडन का यह खेल जो पिछले कई साल से चल रहा है, उसके बारे में सरकार ने केवल मुआवजा घोषित करने के अलावा, ऐसी कोई कार्यवाही नहीं की जिससे भीड़ हिंसकों या पीट पीट कर माIर देने वालों के खिलाफ सरकार का रुख सख्त है यह पता लगे। बल्कि अपने नेताओं की भीड़ हिंसा को जायज़ ठहराने वाली बयान बाज़ी पर भी न तो किसी ने आपत्ति जताई और न ही कोई कार्यवाही की। पुलिस में भी यही सन्देश गया कि यह सरकार और यह सत्तारूढ़ दल की सहानुभूति अंदर खाने कहीं न कहीं ऐसे उद्दंड भीड़ हिंसकों के साथ है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो यह क्रम और चलेगा। इससे पुलिस मनोबल और अनुशासन पर भी बुरा असर पड़ रहा है। सरकार से अधिक पुकिस के बड़े अफसरो की जिम्मेदारी है कि वे इस कठिन समय मे पुलिस बल को एक सबल और विश्वसनीय नेतृत्व प्रदान करें।
© विजय शंकर सिंह
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