Sunday 12 June 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना (3) रहीम का सृजनात्मक साहित्य: भारतीय सांस्कृतिक चेतना का खाँटी प्रतिबिम्ब

रहीम की ज्ञात कृतियाँ हैं—रहीम दोहावली (या रहीम सतसई), बरवै नायिका-भेद, नगर-शोभा, मदनाष्टक, रासपंचाध्यायी, खेटकौतुकम् और शृंगारसोरठ। इनके अतिरिक्त रहीम ने बाबर की चगताई भाषा में लिखी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ या ‘वाक़ियाते-बाबरी’ का फ़ारसी में अनुवाद भी किया था। पंडित मायाशंकर याज्ञिक ने उनके फुटकल कवित्तों, सवैयों और बरवै छंदों का एक संपूर्ण संग्रह ‘रहीम रत्नावली’ के नाम से संपादित किया था। बाद में प्रोफ़ेसर सत्य प्रकाश ने समस्त उपलब्ध रहीम साहित्य का अपनी विस्तृत भूमिका के साथ ‘रहीम रचनावली’ के नाम  से संपादन किया।

सामान्य जनता में सबसे अधिक लोकप्रिय रहीम के दोहे हैं जो मानव-प्रेम और लोक-व्यवहार के विविध आयामों तथा यथार्थ जीवन के खाँटे अनुभवों व मार्मिक प्रसंगों की गहरी अनुभूतियों पर आधारित हैं। इन्हें नीति के दोहे कहा जाता है पर उस पारंपरिक अर्थ में ये शुष्क नीति के दोहे नहीं हैं, जिसमें विदुरनीति और चाणक्यनीति के नाम से अनेक श्लोक प्रचलित हैं, या भर्तृहरि का नीतिशतक है। हिन्दी माध्यम से पढ़ाई करनेवाले मेरी पीढ़ी के लोगों को ऐसे तमाम दोहे कंठस्थ होंगे। बचपन में पढ़े ये दोहे (और अन्य कविताएं भी) जाने कैसे स्वत: याद हो जाते थे और टटोलने पर अब भी स्मृति के किसी कोने में दुबके हुए मिल जाते हैं। जाने क्या बात है कि पढ़ते ही इनके साथ हमारा पूर्ण तादात्म्य स्थापित हो जाता है और लगता है जैसे कोई हमारे ही मन की बात कह गया हो, हमारा स्वानुभूत सच पहले ही उद्घाटित कर गया हो। और अपनी बात को अविस्मरणीय और प्रभावी ढंग से कहने के लिए रहीम ने जो रूपक चुने हैं, वे इतने सटीक हैं कि बात एक बार दिमाग़ में बैठ जाए, फिर निकलने का नाम नहीं लेती; हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। [रहीम के अति-प्रसिद्ध दोहे आगे दिए गए हैं।]

बहुत सधी हुई अवधी में लिखी ‘बरवै नायिका-भेद’ में नायिका की विभिन्न अवस्थाओं का लोक-जीवन की आत्मीय छवियों के साथ सरस, भावपूर्ण वर्णन है, जिसके दो उदाहरण आलेख की दूसरी क़िस्त में आ चुके हैं।

‘नगर-शोभा’ का प्रतिपाद्य विचित्र है। इसमें अनेक (लगभग पचास-साठ) जाति की स्त्रियों की सामाजिक-मानसिक संरचना का निदर्शन है। जैसा कि प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय कहते हैं, मध्यकाल की शायद ही किसी अन्य कृति में इतनी जातियों का उल्लेख एक साथ हुआ हो। यहाँ रहीम रीतिकालीन कवियों की तरह स्त्री की सुंदरता, लावण्य, बाँकी चितवन और काम-क्रीड़ा की प्रवीणता में ही नहीं उलझे हैं, यहाँ उनका गहन समाजशास्त्रीय निरीक्षण और रोज़मर्रा की जिंदगी का यथार्थपरक सामाजिक ज्ञान भी सामने आता है, जो ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उस समय की मान्यताओं के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी है। एक उदाहरण देखिए—

‘’उत्तम जाति है बाम्हनी, देखत चित्त लुभाय। परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय॥
रूपरंग रतिराज में, छतरानी इतरान। मानो रची विरंचि पचि कुसुम-कनक में सान॥
बनियाइनि बनि आइकै, बैठी रूप की हाट। प्रेम पेक तन हेरिकै, गरुवै टारत बाट॥
गरब तराजू करति चख, भौंह मोरि मुसकाति। दांड़ी मारति बिरह की, चित चिंता घटि जाति॥‘’

[ब्राह्मणी की उत्तम जाति है, उसे देखकर चित्त लुभाता है। उसका पैर छूने से पल भर में गंभीर पाप हर उठते हैं। क्षत्राणी रूप, रंग और कामकला के ज्ञान से इठलाती है, मानो ब्रह्मा ने उसे स्वर्ण-पुष्प में सानकर और पच्चीकारी करके रचा हो। बनियाइन (वणिक-बधू) ऐसे बनठनकर बाज़ार में आकर बैठती है जैसे रूप की हाट हो। प्रेम-पगी नज़र से शरीर को निहारती हुई भारी बाट उठाती है। गर्व से तराजू को देखकर भौंहें तिरछीकर मुस्कराती है। बिरह की दांड़ी मारती है (विरह का दुख कम करती है) तो मन की चिंता घट जाती है।]

‘मदनाष्टक’ महज़ शृंगार-काव्य नहीं है, इसकी विशेषता यह है कि इसमें बीच-बीच में रहीम ने संस्कृत और खड़ी बोली के मिश्रण का एक नया प्रयोग किया है, जैसे अमीर खुसरो ने फ़ारसी और अवधी के मिश्रण का प्रयोग किया था—‘जे हाल मिसकी मकुन तगाफ़ुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ...’। जैसे खुसरो में वैसे ही रहीम में भी, दो भाषाओं के मिश्रण के बावजूद न तो छंद-भंग होता है, न लय और प्रवाह में कोई बाधा आती है। मदनाष्टक से एक उदाहरण देखिए—

“दृष्ट्वा तत्र विचित्रताम् तरुलता, मैं गया था बाग में। क्वचित् तत्र कुरंगशावकनयनी, गुल तोड़ती थी खड़ी।“

[उस विचित्र वृक्ष-लता को देखकर मैं बाग में गया था। वहीं कहीं वह हिरण के बच्चे की-सी आंखोंवाली फूल तोड़ती खड़ी थी। ]

‘रासपंचाध्यायी’ मूलत: श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के पाँच (29वें से लेकर 33वें) अध्यायों का संयुक्त नाम है। इन अध्यायों को इस पुराण का प्राण माना जाता है। इनमें श्रीकृष्ण की दिव्य रासलीला के माध्यम से वैष्णव प्रेम और समर्पण अपनी आध्यात्मिक पराकाष्ठा पर पहुँच गये हैं, जो भक्तों को काम-विजय की सिद्धि प्रदान करनेवाले माने जाते हैं। सूरदास जी ने तो इसे सूरसागर में समेट लिया है, किन्तु कई अन्य कृष्ण-भक्त कवियों ने रासपंचाध्यायी के इस मूल तत्व को लेकर स्वतंत्र कृतियों की रचना की है, जिनमें रहीम, नंददास, हरिराम व्यास, गोपालदास और नवलसिंह कायस्थ विशेष प्रसिद्ध हैं। रहीम-रचित रासपंचाध्यायी का वर्णन नाभादास (सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी) के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भक्तमाल’ में मिलता है, जिसमें उसके दो पद भी उद्धृत हैं, पर रासपंचाध्यायी अब अप्राप्य है।
[मेरे पास तो भक्तमाल भी नहीं है कि उन्हीं दो पदों को उद्धृत कर दूँ।] रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में कृष्ण की रासलीला से संबंधित रहीम के दो पद दिए हैं, जिन्हें उन्होंने ‘फुटकल’ की श्रेणी में रखा है। इनका विषय देखकर इसकी पूरी संभावना लगती है कि ये रहीम की लुप्त रासपंचाध्यायी से ही बिखरकर जनमानस में आ पड़े हों। ये दोनों यहाँ उद्धृत हैं—

एक-

“जाति हुती सखि गोहन में मनमोहन को लखि ही ललचानो।
नागरि नारि नई व्रज की उनहूँ नंदलाल को रीझिबो जानो॥
जाति भाई फिरि के चितई, तब भाव रहीम इहै उर आनो।
ज्यों कमनैत दमानक में फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो॥“

[झुंड के साथ जाते हुए (उस युवती ने) मनमोहन कृष्ण को देखा तो उसका हृदय ललचा उठा। व्रज के लिए नई उस चतुर युवती ने यह भी ताड़ लिया की नंदलाल कृष्ण भी उस पर रीझ गए हैं। उसने जाते-जाते एक बार मुड़कर (कृष्ण की ओर) देखा। इस दृष्टि-विनिमय में जो घटित हुआ, उससे रहीम के मन में यह भाव आया—जैसे कोई कुशल धनुष चलानेवाला तोपों की बाढ़ में घुसकर तीर से (सेना के) झंडे को मार ले जा रहा हो। {यह कृष्ण-लीला के संदर्भ में एक नया रूपक है, जो रहीम के समय प्रचलित युद्ध-पद्धति और उसके प्रत्यक्ष अनुभव के बिना संभव नहीं था, और यह रहीम ही दे सकते थे।}]

दो—

“कमलदल नैनन की उनमानि।
बिसरति नाहिं सखी ! मो मन में मंद-मंद मुसकानि।
वसुधा की बस करी मधुरता, सुधापगी बतरानि॥
मढ़ी रहै चित उर बिसाल की मुकुतामल थहरानि।
नृत्य समय पीताम्बर हू की फहर-फहर फहरानि॥
अनुदिन श्रीवृन्दावन ब्रज में आवन-आवन जानि।
अब रहीम चित से न टरति है सकल स्याम की बानि॥“

[हे सखि ! कमल की पंखुड़ियों-जैसी कृष्ण की आँखों का ख़याल जाता ही नहीं। मेरे मन को उनकी मंद-मंद मुसकान भुलाए नहीं भूलती। उनकी अमृत-पगी वाणी ने सारी पृथ्वी की मधुरता को वश में कर लिया है। उनके विशाल वक्षस्थल पर रह-रहकर कांपनेवाली मोती की माला मेरे चित्त में मढ़ी रहती है। उनके नाचते समय की पीताम्बर की फरफराहट मेरे चित्त में भी फरफरा रही है। उनके आने की बात जानकार मैं रोज़ व्रज-वृन्दावन आती हूँ। रहीम कहते हैं, अब अपने में पूर्ण (निराकार ब्रह्म और सगुण माया के समुच्चय) साँवले कृष्ण की धज चित्त से हटती ही नहीं।]

‘खेट-कौतुकम्’ रहीम का ज्योतिष-ग्रंथ है। ज्योतिष के क्षेत्र में इसका क्या स्थान है, यह तो नहीं मालूम, क्योंकि यह ग्रंथ भी उपलब्ध नहीं है। लेकिन भाषा-कौतुक की दृष्टि से यह काफ़ी रोचक  है—संभवत: एक कौतुकपूर्ण भाषाई प्रयोग के तहत ही रहीम ने इसे लिखा हो। इसकी भाषा संस्कृत और फ़ारसी की खिचड़ी है और दोनों को एक में गूंथकर संस्कृत छंद में लिखी गई है जो अपने-आप में एक नायाब चीज़ है (रहीम ने कुछ शुद्ध संस्कृत के श्लोक भी लिखे थे)। खेट-कौतुकम् का एक पद बहुतों से सुना जाता है—

“यदा चश्मख़ाने भवेदाफ़ताबस्तदा ज्ञानहीनोsथ गुस्साबरूदम्।
सदा संगदिल सख़्तगो द्रव्यहीन: कुवेषो सदा स्यान्नहोशोहवासम्॥“

[अनुमानत: इसका अनुवाद होगा—जब जातक के नेत्र-स्थान में सूर्य हो तो वह ज्ञान-हीन और बहुत गुस्सेवाला होता है। स्वभाव से हमेशा संगदिल और कठोर रहता है, धन-हीन होता है, बुरा वेश धारण करता है और उसे होशोहवास नहीं रहता।]
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi

अब्दुर्रहीम खानखाना (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/06/2.html 

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