Saturday 11 June 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास - तीन (15)

(चित्र: जर्मन सरदार ओडोसेर के समक्ष समर्पण करते आखिरी रोमन शासक रोम्युलस) 

4 सितंबर, 476 ई. 

यह रोम का आखिरी दिन था। तेरह सदियों की संस्कृति का आखिरी दिन। कभी एक विशाल साम्राज्य के राजधानी का आखिरी दिन।

घोड़े पर सवार जूलियस सीज़र की मूर्ति तोड़ी जा चुकी थी। कोलोसियम की दीवारें गिर गयी थी। जूपिटर का मंदिर जीर्ण हो चुका था। पैलेटाइन पहाड़ी पर राजमहल की छवि धूमिल हो चुकी थी।

रोम की स्थापना रोम्यूलस ने की थी। रोमन गणतंत्र का अंत कर रोमन साम्राज्य की स्थापना ऑगस्तस सीज़र ने की। यह प्रकृति का व्यंग्य ही कहा जा सकता है कि रोम के अंतिम शासक का नाम ‘रोम्युलस ऑगस्तस’ था। यह कोई तलवार हाथ में लिए, कवच धारण किए, रेशमी टोगा लहराते, पत्तों का मुकुट पहने राजा नहीं, बल्कि मात्र ग्यारह वर्ष का अबोध बालक था।

रोम की सेना में जुड़े एक जर्मन बर्बर (बारबेरियन) सरदार ओडोसेर ने एक हफ्ते पहले युद्धभूमि में रोम्युलस के पिता ओरेस्टर को मार डाला। आज जब उनके घोड़े के टापों की आवाज़ रोम में सुनाई दी, तो एक बुजुर्ग ने कहा,

“सभ्यता का अंत हुआ, असभ्यों की विजय हुई।”

बालक रोम्युलस के पूरे परिवार को मौत के घाट उतारने के बाद जब ओडोसेर का घोड़ा उस बालक राजा के समक्ष रुका, तो ओडोसेर ने तलवार की नोक गले से लगाया। रोम्युलस काँपते हुए रोने लगे। ओडोसेर ने ठहाके लगाते हुए उन्हें क्षमा-दान दिया और कहा,

“डरो मत बच्चे! तुम्हारे पिता और मेरे पिता अतीला के दरबार में बहुत अच्छे दोस्त थे। मैंने भी उनके साथ पहले काम किया है। हमें रोमवासी असभ्य कहते हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि हम बर्बर हैं, हम में संवेदना नहीं। यह तो युद्धभूमि का न्याय था, जो तुम्हारे पिता के साथ मुझे करना पड़ा। लेकिन, तुम्हारी ज़िम्मेदारी अब मेरी है। अब इस रोम की भी।”

रोम कभी खत्म नहीं हुआ। रोम तो आज भी है। ग्रीको-रोमन इतिहासकारों ने इस व्यवस्था की समाप्ति को रोम का अंत मान लिया। वे चाहते तो जर्मन राजाओं की सूची बना कर इतिहास आगे ले जा सकते थे, लेकिन उन्होंने उन्हें असभ्य दिखा कर उसी बिंदु पर रोमन सभ्यता का इति लिख दिया।

पूरब में कुस्तुनतुनिया में बैजंटाइन साम्राज्य अवश्य फलता-फूलता रहा। वह ईसाई धर्म और ग्रीको-रोमन संस्कृति का केंद्र बना। उसे कोई प्रत्यक्ष खतरा नहीं था, और वह भविष्य में यूरोप पर विजय की सोच सकते थे। सत्ता से भले ही उन्होंने विजय नहीं पायी, लेकिन ईसाई धर्म ने धीरे-धीरे यूरोप में पसरना शुरू किया। 

उन्होंने पेगनों से कई चीजें सीखी भी। जैसे कि उन्होंने 25 दिसंबर की एक काल्पनिक तिथि चुन कर यीशु का जन्मदिन मनाना शुरू किया। यीशु का जन्मस्थान आदि भी तय किया गया। उनकी और वर्जिन मैरी की एक तस्वीर तैयार की गयी। संत पॉल, संत पीटर, संत ऑगस्तिन आदि की छवियाँ भी बनने लगी, और इस तरह वे कुछ हद तक मूर्तिपूजक होते गए। फिर भी, अगर यहूदियों से कुछ बैर को अलग रख दिया जाए तो सैद्धांतिक रूप से किसी और एकेश्वरवादी धर्म से उनकी भिड़ंत नहीं थी। यीशु के बाद किसी और मसीहा का जन्म नहीं हुआ था। लेकिन, इतिहास के वाक्य यूँ पूर्ण-विराम पर नहीं खत्म होते। 

रोमन साम्राज्य के अंत के एक सदी बाद अरब में एक पैगंबर का उदय हो रहा था। 
(समाप्त)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/06/14.html
#vss 

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