Sunday 26 June 2022

कनक तिवारी / हिंदू , हिंदुत्व , सेकुलरिज्म और मुसलमान (1)

                        
दक्षिण पूर्व एशिया के मुल्कों के बनिस्बत भारत हिंदूइज़्म को 85% भारतीयों के प्रतिनिधि धर्म के रूप में सुरक्षित रख पाया है। वह प्रलोभन से बचता रहा कि अंतरराष्ट्रीय प्रचार कर उसे विश्व धर्म बनाए । वह उसे राज्य धर्म बनाने से भी परहेज करता रहा है।                   

हिंदू धर्म असल में जनधर्म रहा है। हिंदू धर्म ने संगठन बनाकर धार्मिक विश्वासों का राज्यीकरण, संप्रदायीकरण या एकाधिकार नहीं किया। भारत पर अन्यों के आक्रमण और हुकूमत के बावजूद हिंदू धर्म ने हिंसक राजनीतिक चुनौतियां देने के बदले अपने सांस्कृतिक आयामों पर  भरोसा करते बार-बार और तरह-तरह से संवाद स्थापित किया ।    ‌   वसुधा के लिए कुटुंब- दृष्टि रखने के बावजूद हिंदू धर्म की बुनियाद सामाजिक अवधारणाओं, व्यक्ति की अपरिमित आजा़दी और आत्मानुशासन से सहिष्णुता पर निर्भर रही है । इसमें इतना खुलापन रहा कि भौगोलिक , वैचारिक या राजनीतिक सरहदें उसे बांध नहीं सकीं।              

हिंदू धर्म हवाओं की तरह लिरिकल और पानी की तरह वैचारिक तरल है। इस धर्म की अग्नि है जो मनुष्य होते रहने के संकल्प को बाले रहती है ।इस धर्म का विस्तार अबूझे आकाश की तरह है। सामाजिक, माननीय कर्तव्यों के लिए धरती के एक-एक अवयव में यह धर्म दिखाई देता है।            

हिंदू धर्म व्यक्ति से लेकर मुक्ति की यात्रा में आजा़दी के रास्ते चाहता रहा है । उसके लिए संभव नहीं कि उसे राज्य, सरकार या कोई समूह नियंत्रित करे। वह देह में निवास नहीं करता। अलबत्ता देह की पहचान धारे व्यक्ति के उत्कर्ष और उत्सर्ग  के लिए कदम कदम चलकर उसके सोच और विश्वास में अपनी अभिव्यक्तियां टांकता चलता है ।             वह अन्य धर्म के मानने की सीख नहीं देता और प्रचार नहीं करता। वह खुद को सीख देता ,खुद को ही समझता रहता है। लोग हिंदू धर्म के पास आत्मा से नियंत्रित होकर आते हैं। उनका विवेक उन्हें समझाइश  देता है कि  हिंदू होने का मर्म समझें, यहां तक कि हिंदू न होने का भी।
          
हिंदुओं की ऐतिहासिक या मिथकीय पैदाइश से लेकर उनकी उपलब्धियों तक धर्म को भूगोल से पनाह मिलती रही । हिमालय से कन्याकुमारी और अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक अक्षांशों और देशांशों  घिरी जमीन पर हिंदू अपना एकाधिकार नहीं मानता रहा। लेकिन उसे अपनी प्रयोगशाला ज़रूर समझता  रहा है ।              

सत्य के साथ लगातार प्रयोग करने के हिमायती रहते उसमें प्रतिविश्वास भी घुलते गए । हिंदू की सत्य दृष्टि अविचल, अटल और अकल्पनीय है। उसके लिए सत्य समुद्र है और व्यक्ति का सत्य समुद्र का जल। मनुष्य के लिए आजा़दी है कि अपने को समुद्र की एक बूंद समझे या अपने को पूरा समुद्र ही समझ ले।              एक जीवित इकाई से दूसरी इकाई के रिश्ते की पड़ताल करना हिंदू धर्म के केंद्रीय आग्रहों में रहा है। वह जड़ वस्तु में भी लुप्त चेतना तलाशने में एकजुट रहा है । वह एक साथ वैचारिक एकांत और व्यावहारिक सामाजिकता का समर्थक है। उसका नष्ट करने में विश्वास नहीं है। वह दंत कथाओं के फीनिक्स पक्षी की तरह मुट्ठी भर राख से उठने की जिजीविषा का संदेश समझता है।
     
         
इतना सब होने पर भी हिंदू धर्म लेकिन भौतिक धरातल पर मैनेजमेंट की कला नहीं सीख पाया‌। उसने आत्मा की रोशनी देखने में कितनी ऊर्जा झोंक दी कि जीवन - मरण के काले और कुटिल पक्षों को काबू करना नहीं सीख पाया । हिंदू धर्म को ठीक से नहीं समझने वाले या उसे जानबूझकर विकृत अर्थ में समझने वाले तमाम व्यक्तियों ने अपने अपने संगठन खड़े कर दिए। उन्होंने सभी तरह के व्यक्त, अव्यक्त विश्वासों और रूहानी प्रतिबद्धताओं को रूढ़ियों ,परंपराओं और उपासना पद्धतियों में तब्दील कर दिया‌। हिंदू धर्म ने उत्सवधर्मिता के भौतिक रूपों से परहेज ही किया था। मनुष्य की उत्सवधर्मिता की ललक का धार्मिक संस्थाओं द्वारा व्यावसायीकरण किया गया।                  

मंदिर ,मठ ,देवालय और धर्मशालाएं धार्मिक विश्वासों को पत्थर और सीमेंट कांक्रीट की इमारतों के जरिए इमारतों में बदलती रहीं। हिंदू धर्म की बुनियादी बानगियां  समूचे परिदृश्य में गंदलाने और धुंधलाने लगीं।              

हिंदू एक साथ तीन स्तरों पर जीते रहे हैं। एक तो सर्वोच्च ज्ञान की परंपराओं के वाहकों के साथ जो पहाड़ों की कन्दराओं में तपस्या करते थे। दूसरे उन संगठनबद्ध धार्मिक क्रियाओं में उलझते पूजा-पाठ और तरह-तरह के मनोविलास के उपकरणों में फंस कर भी लेकिन धर्म की सत्ता की बांग  ज़रूर देते रहे‌ तीसरा उनके जीवन में वे लोग घुस गए थे जो न तो बौद्धिक थे और न ही धार्मिक संगठनों के सूत्रधार ,सदस्य या भक्त।                          ‌अपराजित और अबूझ रहकर भी उदासीन हिंदू धर्म अपनी साधना में कायम रहा। विदेशी हमलों के सांस्कृतिक, धार्मिक और दूसरे असर भी हुए। बचाव और अनुशासन तंत्र नहीं बनाने की वजह से हिंदू नागरिक इस्लाम और ईसाई धर्म में जबरिया लालच के कारण ले जाए गए। उनकी वापसी की कोशिशें नहीं हुई सिवाय इक्का-दुक्का संगठनों द्वारा। बीसवीं सदी के मध्य में राजनीतिक आजा़दी भारत को मिली। उसने पहली बार आत्मिक, सामाजिक, वैयक्तिक और अन्य अनुशासन का आत्मिक तंत्र संविधान बनाकर गढ़ा।            संविधान पहला लिखित बुनियादी दस्तावेज है जो कई दिशाओं में एक साथ जाने की प्रेरणा देता है। उसमें धर्म के इतिहास की खोह भी शामिल है। हिंदू धर्म अपनी अशेष बुनियादी अवधारणाओं और जनता के लगभग सर्वमत से आत्मानुशासन रचता है कि माननीय प्रतिबद्धता के साथ समवेत होकर चलेगा ।              

यह किसी के द्वारा सुझाया गया रास्ता नहीं है, बल्कि खुद के द्वारा उकेरा गया है । संविधान की धार्मिक आयतें भी इसी लिए आत्मविश्वास का एक और संस्करण हैं।
        
हिंदू धर्म का विश्वास है कि हर अन्य धर्म में भी पूर्णता की मंजि़ल तक पहुंचने के रास्ते हैं। डॉक्टर राधाकृष्णन ने कहा था हिंदुइज़्म एक आंदोलन है, यात्रा का ठहराव नहीं। वह प्रक्रिया है, नतीजा नहीं। वह विकासशील परंपरा है, ठूंठ समझ नहीं । दूसरों का नकार हिंदू धर्म के मुताबिक आत्म का स्वीकार नहीं है।              हिंदू धर्म के पाखंड को देखकर लेकिन विवेकानंद गरजे थे कि 33 करोड़ देवी देवताओं के बदले मंदिरों में दलितों, मुफ़लिसों  को स्थापित कर दिया जाए।               संविधान के नायाब टीकाकार ग्रेनविल ऑस्टिन ने लिखा है हिंदू धर्म में इतने विभेद और सिरफुटौवल है कि उन्हें दूसरे धार्मिक मतों से लड़ने की ज़रूरत ही नहीं है। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने शरीयत अदालत को भी नकारते  हुए उसके फैसलों को असंवैधानिक करार दिया है।              विवेकानंद और गांधी धर्म परिवर्तन के कटु आलोचक हैं। दोनों कट्टर और संकीर्ण हिंदू दिमागों  पर जमकर बरसे भी हैं ,जो रूढ़ियों की केचुल  में घुसे रहकर अपना डंक हिंदू कौम की देह में इंजेक्ट करते रहते हैं।
(जारी)।

कनक तिवारी
© Kanak Tiwari 

No comments:

Post a Comment