Wednesday 8 June 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास - तीन (12)

(चित्र: एक चित्रकार द्वारा बनायी ‘महा-उत्पीड़न’ की छवि)

आधुनिक दुनिया में राज्य और धर्म को अलग रखने की वकालत चलती रही है। फौरी तौर पर आज के समय चार रूप देखने को मिलते हैं। 

पहला कि धर्म और राष्ट्र को जोड़ देना, जैसे आर्मीनिया लगभग अठारह सदियों से एक ईसाई देश है। कुछ उदारवादी रूप में स्कैंडिनेविया में भी राज्य-धर्म की परंपरा कमोबेश कायम है। इसी तरह इजरायल यहूदी राष्ट्र, और अरब-उत्तर अफ़्रीका के कई देश इस्लाम राष्ट्र हैं।

दूसरा कि धर्म और राष्ट्र को अलग रख कर देखना, जिसमें कई आधुनिक लोकतंत्र हैं। हालाँकि एक धर्म की बहुलता के कारण यह छवि स्पष्ट नहीं दिखती, लेकिन ‘राज्य-धर्म’ की परंपरा नहीं। 

तीसरा कि धर्म को ख़ारिज कर या नेपथ्य में रख कर राज्य की सत्ता को प्रमुखता देना। जैसे साम्यवादी राष्ट्र और कुछ नास्तिकता-प्रमुख लोकतंत्र।

चौथे रूप में न लोकतंत्र है, और न किसी एक धर्म की सत्ता। ये बनते-बिगड़ते देश या तानाशाही से प्रभावित देश हैं। 

इनके अतिरिक्त भी कुछ अपवाद मिल सकते हैं।

लेकिन, प्राचीन इतिहास में जब ईसाइयत और इस्लाम नहीं आए थे, और यहूदियों के पास सत्ता नहीं थी, तब भी राष्ट्र और धर्म जुड़े हुए थे। जैसा मैंने लिखा कि रोमन राजा स्वयं को देवतुल्य मानते, जूपिटर मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ कर शपथ लेते, और कुछ तो राज्य के प्रधान धर्मगुरु (पॉन्टिफस मैक्सिमस) भी कहलाते। इस कारण जब राज्य पराजित होता, या राजा का धर्म बदलता, तो पूरे राज्य का धर्म बदल सकता था। जैसा हमने आर्मीनिया के विषय में पढ़ा। 

ईसाइयों ने यहूदियों से अधिक सफलता इसलिए भी पायी, कि उन्होंने सीधे सत्ताधीशों (राजाओं) का धर्म-परिवर्तन किया। उदाहरणस्वरूप मैंने पहले रूस के ज़ार व्लादिमीर के धर्म-परिवर्तन की चर्चा की थी, जब रूस जैसा विशाल देश एक झटके में ईसाई बन गया। 

जब रोम में डायोक्लेशियन राजा बने, तो उन्होंने अपने रोमन धर्म को ऊँचाई दिलाने का आखिरी प्रयास किया। अन्यथा जनता का इन जूपिटर और वीनस जैसे देवी-देवताओं से भरोसा उठने लगा था। उन्हें लगता कि जब हमारे राजा ही टिक नहीं पा रहे, तो ये देवी-देवता बस यूँ ही हैं। धार्मिक भ्रष्टाचार और धर्मगुरुओं द्वारा ‘वेस्टल वर्जिन’ (मंदिर की दासी) का शोषण भी बढ़ गया था। ग़ुलामों के वंशजों को यूँ भी मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता।

ऐसे समय में ईसाई प्रचारक रोमनों का मन बदलने लगे थे। उन्होंने एक प्रक्रिया शुरू की, जिसमें बप्तिस्मा कर ईसाई धर्म स्वीकारना नहीं था। सिर्फ़ उन्हें मौखिक ईसाई शिक्षा दी जाती। जैसे व्यक्ति मूर्तिपूजक ही रहे, लेकिन उसे बलि-प्रथा से घृणा हो जाए। भोजन के लिए पशु का माँस खाए, किंतु शौक के लिए शिकार कर या देवता को प्रसन्न करने के लिए जीव हत्या न करे। उसे आडंबरों से बैर हो जाए। धीरे-धीरे मूर्तियों से भी कोई आकर्षण न रहे। यानी दिखने में रोमन, लेकिन मन से ईसाई। यह प्रक्रिया कही गयी ‘कैटेशेसिस’ (Catechesis)।

जब राजा डायोक्लेशियन तक यह खबर पहुँची, तो वह अपोलो देव के मंदिर गए। वहाँ के धर्मगुरू से पूछा कि क्या आदेश है। उन्होंने कहा कि इन ईसाइयों को पकड़ कर सजा देना ही एकमात्र हल है। 303 ई. में राजा ने कुछ इस तरह घोषणा कर दी,

“इन ईसाइयों को रोमन धर्म से छेड़खानी करने की कोई इजाज़त नहीं। रोम का हर नागरिक बलि चढ़ाए, और जो भी ना-नुकर करे, उसे सजा दी जाए।”

इतिहास में इसे ‘महा-उत्पीड़न’ (The Great Persecution) कहा जाता है। ऐसी सजाओं ने रोम-वासियों को धर्म के करीब लाने के बजाय दूर ही कर दिया। निरीह ईसाइयों को यूँ बाँध कर मारा जाना, कोलोसियम के शेरों का ग्रास बनवाना उनके प्रति सहानुभूति दे गया।

उस समय रोम के एक प्रधानमंत्री (सीज़र) कोन्स्टैंशियस ‘क्लोरस’ भी राजा के इन आदेशों से असहमत होते गए। ख़ास कर उनके तीस वर्षीय पुत्र ने हाल ही में ईसाई ‘कैटेशेसिस’ की शिक्षा प्राप्त की थी, और वह एक कुशल सेनापति भी थे। अपनी क्षमताओं और अपने पिता की कुलीनता के कारण उनके भाग्य में राजयोग था। 

उन ‘मन से ईसाई’ व्यक्ति का नाम था- कौन्स्टैंटाइन (Constantine). 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास - तीन (11) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/06/11.html 
#vss 

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