Friday 1 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (7) पंडत जी, बचाओ!

हमीर पुर में जहाँ डीएम आवास है, उससे थोड़ा हट कर काफ़ी ऊँचाई पर सर्किट हाउस है। यह पीडब्लूडी का गेस्ट हाउस है लेकिन जहाँ राज्य सम्पत्ति विभाग के अतिथि गृह नहीं होते वहाँ डीएम सभी सरकारी, अर्ध-सरकारी विभागों के गेस्ट हाउसों के एक-एक सुइट अपने पास रखता है, ताकि जिनको वह उचित समझता है उन्हें दे सके। मुझे इसी गेस्ट हाउस का एक सुइट मिल गया। सामने काफ़ी नीचे यमुना नदी बहती है। दरअसल 1857 के बाद से अंग्रेजों ने डीएम आवास और सर्किट हाउस ऐसी जगह बनाये थे, जहाँ से निकल भागने में सुविधा हो। अधिकतर नदी किनारे ऊँचाई पर बनाए गए न बाढ़ का ख़तरा न निकल जाने में समय लगेगा। चूँकि गर्मी का महीना था इसलिए यमुना चढ़ी तो नहीं थीं लेकिन पानी पर्याप्त था और यूँ भी यहाँ तक आते-आते यमुना में गहराई बढ़ जाती है। दूर नदी के उस पार कानपुर ज़िले में बीहड़ों का प्रसार दिख रहा था। शाम को अपने साथ के छात्र नेता अशोक चंदेल, जो बाद में हमीर पुर से कई बार विधायक और सांसद रहे, ने भोजन पर बुलाया। हम दोनों वहीं गए। अशोक का मकान काफ़ी विशालकाय था, वहीं छत पर अपनी फड़ जमी। 

अगली सुबह मैं थोड़ा घूमने चला गया। मैं इस यात्रा के क़रीब दस साल पहले यानी 1981 में दैनिक जागरण के लिए हमीरपुर से रिपोर्टिंग कर चुका था इसलिए शहर में अपने काफ़ी परिचित थे। सुबह-सुबह महेश अवस्थी आ गए और हम टहलते हुए सीढ़ियाँ उतर कर यमुना के पानी तक आ गए। सुबह रेती पर टहलने का अलग सुख होता है। हवा भी ठंडी और दोनों तरफ़ ऊँचे-ऊँचे कगार। मुझे कभी यह समझ नहीं आया कि अंग्रेजों ने 1820 में हमीरपुर ज़िले का मुख्यालय हमीरपुर को ही क्यों बनाया? जबकि इस ज़िले में महोबा, चरखारी, मौदहा, राठ और कबरई जैसे क़स्बे थे। बल्कि चरखारी के तालाब और वहाँ के राजा का महल आज भी यथावत है। हमीरपुर यमुना के दाएँ किनारे पर बसा एक किमी लंबा और इतना ही चौड़ा क़स्बा है। इसके एक तरह यमुना है और दूसरी तरफ़ बेतवा जो कुछ आगे जाकर मिल जाती हैं। कानपुर-बाँदा रेल लाइन भरूआ सुमेरपुर से गुजरती है। इस तुलना में हमीरपुर में न तो कोई उद्योग, न व्यापार न खनिज सम्पदा है। ऊपर से हर साल बरसात में यमुना और बेतवा का उफान शहर को सुतिया की तरह घेर लेता है। शहर के पश्चिम की तरफ़ उरई जाने वाली सड़क पर नाला है जो बरसात में रोड ब्लॉक कर देता है। बरसात में जो यहाँ फँस गया सो फँस गया। अब डीएम कंपाउंड तो ऊँचाई पर है। इसलिए वहाँ तो ख़तरा नहीं है पर आम जनता के लिए हमीरपुर नरक बन जाता है। गर्मियों में पानी की क़िल्लत। कोई तालाब भी यहाँ नहीं है। 

बुंदेलखंड में सभी जगह देशी राजाओं ने पीने और इस्तेमाल के लिए तालाब बनवाए थे। जिनकी खूब देख-रेख की जाती थी। अंग्रेजों ने इन तालाबों की तरफ़ ध्यान तो नहीं दिया लेकिन इनका सौदा भी नहीं किया तथा न ही इनका स्वरूप बिगाड़ा। किंतु आज़ादी के बाद की सरकारों ने तालाब, जोहड़ ही नहीं नदियों में शहर का कचरा और मैला डालना शुरू किया तथा तालाबों को पाट कर उन्हें बेचना भी। देखा जाए तो 15 अगस्त 1947 हमारी लूट की आज़ादी का दिन था जो आज तक चल रही है। 1962 के बाद से विकास प्राधिकरणों के ज़रिए राज्य सरकारें भू-माफिया बन गईं। पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम प्रधान लूट की सबसे छोटी इकाई है। 

हमीरपुर के सर्किट हाउस में और तो सारी सुविधाएँ थीं। कमरों में कूलर भी लगे थे और बेड भी साफ़-सुथरे किंतु पानी की क़िल्लत थी। केयर-टेकर ने पीने का पानी तो भर कर रख दिया था मगर नहाने के लिए टैंक के पानी के भरोसे थे, जो एक विशाल हाल में अंडरग्राउंड बना हुआ था। केयर-टेकर ने बताया कि 20 बाई 20 बाई 10 का यह टैंक है अर्थात् कुल 4000 लीटर का। उसी से मोटर के ज़रिए पानी खींचा जाता था। अब हमारे मित्र स्नान में पूरा एक घंटा लगाते थे। वे नहाने गए चेहरे पर साबुन लगाने के बाद जब धोने के लिए टोंटी खोली तो वह सूँ-सूँ करने लगी। दरअसल बिजली चली गई थी। बाथरूम से चिल्लाये- पंडत जी पानी नहीं आ रहा। मैं केयर-टेकर को बुलाने चला गया। उसने कहा, अब तो टैंक से पानी निकालना पड़ेगा। उधर आँख पर लगा साबुन वीर सिंह को परेशान किए था। वे बाथरूम से निकल कर बाहर आ गए, पटरे के अंडरवियर में ही। बोले, कहाँ है टैंक ले चलो। टैंक में तीन बाई तीन फुट का मेन-होल जैसा मुँहारा था। केयर टेकर रस्सी-बाल्टी लेने चला गया और आँख की जलन से बिलबिलाते वीर सिंह ने मुँहारे से टैंक के पानी में छलाँग लगा दी। आँख की जलन को शांति मिली तो पानी से ऊपर चेहरा निकाला और अंदर का दृश्य देख कर चीखने लगे। पंडत जी बचाओ! पंडत जी बचाओ!!! दरअसल एक तो यह टैंक हाल के अंदर था इसलिए थोड़ी बहुत रोशनी बस उसी मुँहारे से जाती थी। बाक़ी घोर अंधकार! कोई सांप उनके हाथ से चिपक गया तो वे और चीखने लगे हाथ झटक कर भागे। मुँहारे तक आ तो गए किंतु मुँहारे से पानी चार फ़िट नीचे था इसलिए मुँहारे की मुँड़ेर तक उनका हाथ ही नहीं पहुँचे। जितना उछले पानी उतना ही उनको जकड़े। अब उन्हें आठवें दर्जे में पढ़ाया आपेक्षिक घनत्त्व याद आने लगा। केयर-टेकर जब रस्सी लाया तब 10 मिनट के श्रम के बाद उनको निकाला जा सका। 

बाहर निकल कर बोले, पंडत जी ब्राह्मणों से चतुर क़ौम कोई नहीं, इसीलिए वे पानी शरीर पर छिड़क कर स्नान कर लेते हैं। 
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/6_29.html
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