Monday 25 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (27B) झाँसी से चल कर गाँव तक!

ट्रेन के झाँसी पहुँचते ही आउटर सिग्नल पर ब्लैक आउट हो गया। चारों तरफ़ घुप अँधेरा घिर गया। ट्रेन की हेड-लाइट बंद कर दी गई। मुझे टीटी ने कहा, यहीं उतर लो और चले जाओ। मैं सँभाल कर अपने डिब्बे से उतरा। लेकिन मैंने पाया कि तमाम और स्त्री-पुरुष तथा बच्चे उतरे। वे सब अपने गंतव्य की तरफ़ चल दिए। मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दिया। काफ़ी दूर तक रेल लाइन के किनारे चलते रहे, फिर लोग एक दिशा की तरफ़ मुड़े। शुक्र था कि रात चाँदनी थी इसलिए नदी, नाले दिख रहे थे। अब हम शहर में थे। मेरे सामने समस्या थी, कि कहाँ जाऊँ? बस अड्डे पर आप बिना टिकट सफ़र कर नहीं सकते। सिर्फ़ ट्रेन ही मुफ़्त यात्रा करा सकती है। इसलिए मैंने स्टेशन का रास्ता पूछा और बतायी गई उस दिशा की तरफ़ बढ़ने लगा। 

ब्लैक आउट आधा घंटे का था और फिर रोशनी से शहर जगमगाने लगा। पौन घंटे में मैं स्टेशन पहुँच गया। कानपुर जाने वाली ट्रेन पता की। मालूम पड़ा कि रात 12 बजे एक फ़ास्ट पैसेंजर जाएगी। वह गाड़ी यहीं से बनती थी। इसलिए एक सन्नाटे वाले प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी भी थी। मैं जा कर उसमें बैठ गया। दो-तीन हमउम्र लड़के और बैठे थे। मैंने उनसे कहा, कि मेरे पास टिकट नहीं हैं और न पैसे हैं। मुझे कानपुर तक जाना है, कोई रास्ता बताओ। उन्होंने कहा, कि इस कोच में टीटी आएगा तो उतार देगा। तुम आगे एक डिब्बे में चले जाओ, वहाँ टीटी तथा अन्य स्टाफ़ के लोग होंगे। टीटी और रेलवे वालों के परिचित उसी में सफ़र करते हैं। उसमें कोई टिकट नहीं माँगता। कोई पूछे भी तो कोई भी नाम बता देना कि उनके भाई हैं, जैसे तिवारी जी के या सिंह साहब के अथवा श्रीवास्तव जी के। मैं उस बताए गए कोच में जा कर बैठ गया। बर्थ भी ख़ाली। एक अधेड़ सज्जन और बैठे थे। बातचीत होने लगी तो उन्होंने बताया कि वे कानपुर जा रहे हैं। मैंने कहाँ मैं भी। संयोग ऐसा कि वे गोविंद नगर सी ब्लॉक के थे मैं छह ब्लॉक का। रात साढ़े नौ के क़रीब उन्होंने अपने थैले से एक पोटली निकाली। इसमें भोजन था। देसी घी की पूरियाँ और उबले आलू की तली हुई सब्ज़ी। भोजन की महक मुझे भी विचलित करने लगी। लगा, जैसे सुगंध ही नहीं भोजन भी नाक में घुसा जा रहा है। एक बार इच्छा हुई कि काश वे मुझसे भी पूछें और उन्होंने जैसे मेरे मन की बात पढ़ ली। बोले, खाइए!

अब मध्यवर्गी ब्राह्मण संस्कार पहले तो मना किया लेकिन जैसे ही उन्होंने दोबारा कहा, मैं उनके दस्तरख़ान पर बैठ गया। अवस्थी जी अपने बिजिनेस के काम से झाँसी आए थे। टीकम गढ़ के पास उनकी बहन भी रहती थी। बहन के घर से ढेर सारी पूरियाँ बाँध दी गई थीं। वे पूरियाँ, आलू की सब्ज़ी और अचार इतना दिव्य लगा कि वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके बाद वे ऊपर की सीट पर जा कर सो गए। गाड़ी चली किंतु मेरी आँखों में नींद कहाँ! घर जा कर क्या बताऊँगा? यह सवाल बार-बार परेशान कर रहा था। इसी चिंता-फ़िक्र में नींद आई और जब खुली तब ट्रेन झाँसी के बाद चिरगाँव, मोंठ, उरई, कालपी पार कर पुखरायाँ स्टेशन पर खड़ी थी। अब कानपुर अधिक दूर नहीं था। मुझे फ़ौरन कोई फ़ैसला करना था। मैंने तय किया कि मैं अपने गांव चला जाऊँ। वहाँ दादी से डाँट-डपट नहीं पड़ेगी। जैसे ही मलासा, लालगंज पार कर ट्रेन पामाँ रुकी। मैं उतर गया। यहाँ से गाँव क़रीब 15 किमी था। सुबह के साढ़े चार बज रहे थे। प्लेटफ़ॉर्म पर अकेली सवारी मैं। उतर कर चारों तरफ़ देखा। एक काला कोट मेरी तरफ़ बढ़ा आ रहा था। मैं समझ गया स्टेशन मास्टर होगा और रात की घटना याद हो आई। मैं विपरीत दिशा में तेज़ी से बढ़ा और रेलिंग फाँद कर उस तरफ़ हो गया। लेकिन काला कोट यहाँ भी पहुँच गया। मैं दूसरी तरफ़ मुँह कर पेशाब करने के बहाने खड़ा हो गया। दो-तीन मिनट बाद पलटा तो पाया कि वह मेरे पलटने का इंतज़ार कर रहा है। उसने टिकट माँगी, मैंने कहा नहीं है। वह अपने कमरे में ले आया। यहाँ तीन चार लोग बैठे थे। एक दरोग़ा जी बरामदे में बैठे अलाव ताप रहे थे। 

स्टेशन मास्टर ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी और मैंने जवाब भी मनगढ़ंत दिए। मसलन मैंने कहा कि मैं स्टूडेंट हूँ और पुखरायाँ में पढ़ता हूँ। पैसे ख़त्म हो गए, लेने जा रहा हूँ। अब स्टेशन मास्टर ने लेक्चर देना शुरू किया, कि आजकल के लौंडे पहले तो सिनेमा देखते हैं, फिर डब्लू-टी ट्रेन में चलेंगे। अचानक वह बोला, अच्छा आईडी कार्ड दिखाओ। अब मैं फँस गया। मैंने कहा, लाया नहीं। वह कुछ बोलता, उसके पहले ही दरोग़ा जी बोले- अरे श्रीवास्तव जी, काहे लड़के को परेशान किए हो? फिर उन्होंने मेरा घर, गाँव पूछा और मैं बताता गया। उन्होंने कहा, अलाव तापो, अभी रात को कहाँ जाओगे। दरोग़ा जी गजनेर थाने के एसओ थे और उनकी फटफटिया भी वहीं खड़ी थी। उन्होंने चाय पिलाई और जब उजाला फूटने लगा तो बोले, चलो मेरे साथ मैं गजनेर तक छोड़ दूँगा। मुझे तो जाना ही है। गजनेर से मेरा गाँव चार किमी था और सुबह नौ बजे तक मैं गांव पहुँच गया। दादी खूब खुश हुईं।

© शंभूनाथ शुक्ल

कोस कोस का पानी (27A)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/27a.html 
#vss

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