Thursday 28 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (29) मुठ्ठी भर खुशी!

सातवें दरजे में मेरे क्लासटीचर थे एसके दीक्षित उर्फ सूर्यकांत दीक्षित उर्फ नमकीन दीक्षित। वे अपने पैंट की जेबों में नमकीन (दालमोठ) भर कर लाते और मौका पाते ही मुठ्ठी भर फाँक लेते। वे एचएससीटी थे यानी हाईस्कूल सीटी। और ड्राइंग तथा भूगोल पढ़ाते थे। ब्लैकबोर्ड पर नक्शे तो ऐसे बना देते कि लगता बस ट्रांससाइबेरियन रेलवे के ट्रैक पर रेलगाड़ी अब अपनी नौ दिन की यात्रा पूरी करने के बाद ही रुकेगी। वे एक रूल भी अपने साथ रखते थे पर मेरी याद में वह रूल किसी लड़के पर इस्तेमाल नहीं किया। वे अक्सर कमजोर आर्थिक घरों से आए बच्चों की फीस स्वयं भर देते थे। क्लास में एक लड़का था शिवबचन, जिसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी और वजह यह थी कि उसके पिता सारी तनखा शराब में उड़ा देते। वह बेचारा अपनी फीस जो कि उस जमाने में बस सात रुपये थी, दे ही नहीं पाता। तब नमकीन मास्साब उसकी फीस अपनी जेब से भर देते ताकि उसका नाम नहीं कटे। नमकीन मास्साब एकदम अंग्रेजों की तरह भक गोरे और कद-काठी पुराने आर्यों के अनुरूप थी। अगर वे दाढ़ी रखा करते तो एकदम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला लगते। पर लड़के उनकी मौज लिया करते। उन्हें नमकीन कह देते तो वे बुरा नहीं मानते बल्कि कहते कि नमकीन पूरे दिन की डाइट है बे! नमकीन न खाऊँ तो फिर वही करूंगा जो बाकी के मास्टर करते हैं यानी कि लौंडों का लंच छीन लिया करता। इन नमकीन दीक्षित मास्साब की मुझसे पता नहीं क्या दुश्मनी थी कि क्लास में घुसते ही हुक्म देते- अबे डेस्क पर खड़ा हो जा। एक दिन मैं उनके पास गया और रुआँसे स्वर में कहा कि आप मुझे ही डेस्क पर खड़ा होने का हुक्म क्यों देते हो? वे मुस्कराए और बोले अबे तेरा चेहरा हरदम मुस्कराता हुआ जो दिखता है। मुझे लगता है कि तूने ही मुझे अभी नमकीन कहा है। 

खैर, इतनी बड़ी भूमिका लिखने का मेरा आशय यह कि अक्सर लोग मेरा चेहरा देखकर अनुमान लगा लेते हैं कि मैं तो चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ हूं। मेरे पास कोई दुख नहीं है। मुझे क्या बस खुशियां तो मुझे पैदाइशी मिली हैं। यहां तक कि मेरे इम्प्लायर भी यही समझते रहे और इस वजह से मुझे वह सुविधाएं नहीं मिलीं जो कमेरे जैसा मुंह बनाए लोगों को मिल जाया करती थीं। जबकि हकीकत इसके एकदम उलट है। सच यह है कि इस उम्र में भी उन तमाम दुखों से ग्रसित रहना पड़ता है जो इस उम्र में लोगों के पास नहीं हुआ करतीं। मसलन मेरे पास आय के कोई निश्चित स्रोत नहीं है और खर्चे बहुत ज्यादा। मगर इन सारे दुखों को मैने झेला है। जो मुझे करीब से जानते हैं वे जरूर मुझसे सहानुभूति रखते हैं पर आज के जमाने में ईर्ष्या करने वाले और आपकी मुस्कराहट से चिढऩे वाले लोग अधिक होते हैं इसलिए जब भी मैं दुखी चेहरा सप्रयास बना लेता हूं तो तमाम लोग प्रसन्न होते हैं कि अब आया ऊँट साला पहाड़ के नीचे।

एक इतने निष्ठुर वक्त में भी ऐसे लोग हैं जो मेरी हकीकत समझते हैं पर वे नहीं चाहते कि मैं दुखी दिखूं क्योंकि इस तरह दुखी दिखने का अर्थ है कि मैने अपने दुखों को जी से लगा लिया है। मैने एक दिन फेसबुक पर अपनी एक ऐसी सेल्फी लोड की जिसमें मैं कुछ सीरियस दिख रहा था तो तत्काल मेरे जानने वालों और मेरे शुभचिंतकों ने मुझसे कहा कि सर यह फोटो हटा लीजिए। मेरे एक मित्र, वरिष्ठ पत्रकार श्री Ashok Madhup और उत्तर प्रदेश में एडीजी श्री Prem Prakash ने कहा कि हमें पता है कि दुख आपके ऊपर भी बहुत हैं पर आप दुखी दिखा न करें। हम आपको खुश देख कर खुश हो जाते हैं। और मैने वह फोटो हटा ली!
( जारी )

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (28)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/28.html 
#vss

No comments:

Post a Comment