Friday 22 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (27) अपने सफ़र की कुछ यादें!

14 नवंबर1971 को शाम चार बजे के आसपास मैं पैदल ही झांसी रेलवे लाइन के किनारे-किनारे चलते हुए रात आठ बजे के आसपास भीमसेन पहुंचा। जाड़े की रात रेलवे लाइन के किनारे कुछ दिखता नहीं था लेकिन एक धुन थी कि जीवन में कुछ करना है तो घर छोड़ो, मोह छोड़ो कुछ करो। ये नीरस और एकरस जीवन मैं नहीं जी सकता। भीमसेन जंक्शन पर मानिकपुर पैसेंजर खड़ी थी, जो बांदा होते हुए चित्रकूट जाती थी। मैं उसमें चढ़ गया। पैसे तो पास में थे नहीं इसलिए टिकट का सवाल ही नहीं उठता था। तब सोलह-सत्रह के बीच की उमर थी इसलिए ज्यादातर लोग मुझे दसवीं या ग्यारहवीं में पढऩे वाला विद्यार्थी ही समझते। सुबह छह बजे गाड़ी कर्वी पहुंची। यानी चित्रकूट पीछे रह गया था। मुझे एक सहयात्री ने बताया कि चित्रकूट जाना था तो भरतकूप उतरते। मुझे ताव था कि देश को जानना है तो गांवों को जानो इसीलिए मैं चित्रकूट जा रहा था। कर्वी उतर कर मैं लाइन के किनारे-किनारे भरतकूप की तरफ चल पड़ा। पयस्विनी नदी के किनारे एक जगह मैं फ्रेश हुआ। फिर चल पड़ा। भरतकूप पहुंचकर पता चला कि असली चित्रकूट जाने के लिए सीतापुर जाना पड़ेगा जो काफी पीछे छूट चुका है। मैने अब रेलवे लाइन छोड़कर सड़क पकड़ी और सीतापुर तिराहे पहुंचा जहां से दाएं तरफ जाने पर सीतापुर पहुंचा जा सकता था तथा सीधे जाने पर कर्वी पहुंच जाते। मैं दाएं मुड़ गया और करीब एक घंटे पैदल चलकर मैं पहुंच गया सीतापुर। वहां कामदगिरि नाम का एक पहाड़ था। लोगबाग उसकी परिक्रमा कर रहे थे। उस समय उसका एक चक्कर करीब सात कोस यानी चौदह मील का था। अब यह पक्का हो गया है और मात्र डेढ़ कोस का कर दिया गया है। 

मैं भी परिक्रमा के लिए भीड़ में शरीक हो गया फिर लगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं। इसका औचित्य क्या है और बस परिक्रमा छोड़कर मैं लौटने लगा। कुछ पदयात्रियों ने पूछा यह क्या कर रहे हो। मैं कुछ नहीं बोला। चित्रकूट के रामघाट पर आया और मंदाकिनी (पयस्विनी) नदी पार कर उस पार के सतना जिले में पहुंच गया। पयस्विनी में कमर तक पानी था। नदी के पार भयानक जंगल। मैं नदी के किनारे यूं ही चलने लगा। रास्ते में अमरूद के पेड़ थे मैने अमरूद तोड़े और भूख मिटाई। जंगल में चलते-चलते रात हो आई और कुछ दिखे नहीं। एक जगह कुछ उजाला दिखा मैं उधर ही बढ़ लिया। एक बाबाजी की कुटिया थी। अंदर घुसा तो देखा कि एक दीपक जल रहा है और एक बाबाजी रात्रि के भोजन की तैयारी कर रहे हैं। मुझे देखकर वे अचकचा गए। बोले- कस बच्चा। मैने कहा बाबाजी भूख लगी है कुछ मिलेगा। उन्होंने हाथ में पानी लगा-लगाकर सेंकी गई दो रोटियाँ दीं। मिट्टी की बटलोई में बनी बिना हल्दी व नमक वाली दाल दी। खाना अच्छा लगा। बोले- यहां कैसे आया बच्चा। मैने कहा- और कहां जाता? सब कुछ देखने और जानने की इच्छा है। बोले अभी तुम्हारी उमर बहुत कम है। मैने कहा कि बुढ़ापे तक मैं इंतजार नहीं कर सकता। मेरे चेहरे को एकटक देखकर बोले तू संन्यासी नहीं बनेगा। लेकिन गृहस्थ भी नहीं बन पाएगा और तेरा जीवन बड़ा दुखद रहेगा। पर तू रहेगा मस्त। राजा न होकर भी राज करेगा लेकिन मोह तुझे जीवन भर सालेगा। 

पता नहीं बाबा कितना सच बोल रहे थे कितना मुझ पर रौब मार रहे थे। लेकिन मुझे वहां रुकने की इच्छा नहीं हुई। मैने कहा बाबा स्टेशन कितनी दूर है मुझे जाना है। बाबा बोले तीन कोस। रास्ता बता दिया। मैं उस अंधियारी रात में ही चल पड़ा। करीब घंटे भर चलने के बाद एकाएक मुझे बैलों के गले में बंधी घंटियां सुनाई दीं। मैं तेजी से बढ़ा। एक बैलगाड़ी चली जा रही थी। मैने गाड़ीवान से पूछा- स्टेशन अभी कितनी दूर है? 
- बाबूजी आप भटक गए हैं। इस रास्ते तो भुराहरे ही टेशन पहुंच पाएंगे।
- तुम कहां जा रहे हो? मैने जानना चाहा।
उसने अपना गंतव्य बताया, जो मुझे अब भूल गया है। बोला,  आप ऐसो करो हमाई गाड़ी मां बैठ जाओ। आत्मीयता जताते हुए उसने कहा। रास्ते में उसने बताया कि बाबू जी स्टेशन तो चार कोस से कम न पडि़हे।  गाड़ी में एक कथरी पड़ी थी मैने उसीको ओढ़ लिया क्योंकि जाड़ा भी लग रहा था।

गाड़ीवान अहीर था और वह अपनी ससुराल से अपनी बीवी को विदा करा के ला रहा था। मायके से विदाई के वक्त उसकी बीवी खूब रोई थी, अभी भी वह सुबक रही थी। रास्ते में गाड़ीवान ने अपनी बीवी से कहा कि विदाई के लड्डू बाबूजी को भी खवाओ। सेव के लड्डू वाकई अच्छे लगे। गाँव पहुंच कर गाड़ीवान ने अपनी बीवी को घर में उतारा, फिर बोला अब एक कोस पै टेशन है बाबूजी। चला हम तुमका छोड़ के आवत है। एक अनजान व्यक्ति की यह सदाशयता भिगो देने वाली थी। सुबह के पांच बजे हम कर्वी स्टेशन पहुंचे। अब मैं फिर ऊहापोह में। गाडिय़ां आ-जा रही थी। मैं कहां जाऊं। घर से कुछ सोच के निकला नहीं था। और जीवन में परिवर्तन इतनी तीव्रता से आता नहीं। पूरा दिन बीत गया मैं स्टेशन पर बैठा रहा। भूख भी लग रही थी लेकिन खाता क्या। एक बेंच से दूसरी बेंच। कभी इससे बतियाता तो कभी उससे। शाम को स्टेशन से बाहर निकला। देखा कुछ लोग लकडिय़ां जलाकर ताप रहे थे। मैं भी उनके बीच बैठ गया। वे पास के गांव से किसी काम से आए थे और अब रात आठ बजे आने वाली झांसी पैसेंजर का इंतजार कर रहे थे। मैं भी उनसे बतियाने लगा। उन्होंने कुछ शकरकंद इस अलाव में गाड़ रखी थीं। कुछ देर बाद उन्हें निकाला और खाने लगे। मुझे भी कस कर भूख लगी थी लेकिन अभी मैं सच्चा सर्वहारा बन नहीं पाया था कि बगैर उनकेकहे ही उनकेभोजन पर टूट पड़ूं। लेकिन उन लोगों ने मुझे भी अपने इस भोजन में आमंत्रित किया मैं तो चाहता ही था। डटकर शकरकंद खाई। फिर वे मूंगफली लाए उन्हें भी खाया गया। 

रात आठ बजे झांसी पैसेंजर आई तो वे उसमें सवार हो गए। मैं भी उसी गाड़ी में चढ़ गया। रागोल और उसके बाद गाड़ी महोबा में रुकी तो मुझे शक हुआ कि पिछली बार तो ये स्टेशन नहीं पड़े थे। मैने सोचा था कि झांसी पैसेंजर भीमसेन स्टेशन होकर जाती होगी। मैं भीमसेन के आगे पामां में उतर जाऊंगा जहां से अपने ननिहाल चला जाऊंगा। लेकिन गाड़ी तो किसी और रूट पर भागी जा रही थी। मैने एक सहयात्री से पूछा कि क्या ये गाड़ी भीमसेन नहीं जाएगी। उसने कहा नहीं तो तुम्हें कहां जाना है। मैने कहा कि कानपुर। वो बोला कि कानपुर की ट्रेन तो शाम चार बजे जाती है या फिर देर रात को। आपको कानपुर की टिेकट भी कैसे मिल गई। मैं चुप रहा। कुछ देर बाद टीटीई आ गया और मेरे पास तो टिकट थी नहीं, उसने मुझे अगले जिस स्टेशन पर गाड़ी रुकी। वहीं उतार दिया। सूनसान स्टेशन और घोर अंधेरा। बस तारों भरे आसमान के अलावा और कुछ नहीं दीख रहा था। ठंड भी खूब थी। पता नहीं कहां था मैं।
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (26)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/26.html 
#vss

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