Wednesday 25 November 2020

अशोक कुमार पांडेय की एक टिप्पणी - आर एस एस और संविधान

कुछ उद्धरण
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--‘जो लोग क़िस्मत से सत्ता में आ गये हैं वे हो सकता है कि हमारे हाथों में तिरंगा झण्डा थमा दें लेकिन हिन्दू कभी उसे स्वीकार या सम्मानित नहीं करेंगे। यह तीन का अंक अपने आप में ही अशुभ है, और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों वह निश्चय ही देश के लिये बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करेगा और देश के लिये हानिकारक होगा।|

(आरएसएस के मुखपत्र आर्गेनाइजर, अंक 3 में छपे लेख "भगवा ध्वज का रहस्य" से.)

--हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिये एक नया ध्वज स्थापित किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ़ नक़ल और भटकाव का एक उदाहरण है। हम एक प्राचीन और गौरवशाली देश हैं जिसका एक शानदार अतीत है। फिर, क्या हमारे पास अपना कोई ध्वज नहीं है? क्या इन हज़ारों सालों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं है? बेशक़ है। फिर क्यों हमारे दिमागों में ऐसी जड़ता और शून्य पूरी तरह से भरे हुए हैं? 

(आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवरकर की पुस्तक ‘बंच आफ़ थाट्स’ से, पेज़-237-238, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, बेंगलोर- 1996)

--‘संविधान बनाते समय हमारे ‘स्व’ और हिन्दू होने को भुला दिया गया। इस जोड़ने वाली आत्मा की अनुपस्थिति में एक ऐसा संविधान बनाया गया है जो बिखराव ले आयेगा…हमें सरकार के एक ऐसे इकाई वाले रूप को स्वीकार करना होगा जिसमें एक देश, एक राष्ट्र और एक राज्य हो…जिसमें पूरे देश के लिये एक विधानसभा और एक ही मंत्रालय हो।

(गोलवलकर की किताब ‘श्री गुरुजी समग्र दर्शन’,(संपादित) खण्ड-1, पेज़-144, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, बेंगलोर 1996 से) 

--‘सरकार का वर्तमान संघीय रूप अलगाववाद को न केवल जन्म देता है बल्कि उसे बढ़ावा भी देता है, एक तरह से यह एक राष्ट्र के तथ्य को मान्यता देने से इंकार करता है और इसे नष्ट करता है। इसे पूरी तरह से ख़त्म किया जाना चाहिये, संविधान को साफ़ किया जाना चाहिये और एकात्मक प्रकार की सरकार स्थापित की जानी चाहिये।’

(एम एस गोलवलकर की किताब ‘श्री गुरुजी समग्र दर्शन’,(संपादित) खण्ड-1, पेज़-104, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, बेंगलोर 1996 से)

--‘इसके बावज़ूद कि पिछले दिनों डा अम्बेडकर के बम्बई में यह कहने की ख़बर है कि मनु के दिन अब लद गये, यह एक तथ्य है कि आज भी हिन्दुओं का दैनिक जीवन मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों के सिद्धांतों और आदेशों से प्रभावित होता है। यहां तक कि एक उदार हिन्दू भी कुछ मामलों में ख़ुद को स्मृतियों में अन्तर्निहित नियमों से बंधा हुआ पाता है और उनसे अपने जुड़ाव को पूरी तरह त्याग देने पर शक्तिहीन महसूस करता है।’

( 6 फरवरी, 1950 के आर्गेनाइज़र में पेज़ 7 पर ‘मनु रूल्स आवर हर्ट्स’ से)

--(आरक्षण लागू करके) शासक हिन्दू सामाजिक समरसता की जड़ें खोद रहे हैं और उस अस्मिता की चेतना को नष्ट कर रहे हैं जिसने अतीत में इन विभिन्न संप्रदायों को एक सद्भावपूर्ण स्थिति में एक संपूर्ण इकाई की तरह रखा था।

(गोलवलकर, एन एन गुप्ता की किताब ‘आर एस एस एन्ड डेमोक्रेसी’ से उद्धृत, पेज़ – 17, प्रकाशक – सांप्रदायिकता विरोधी समिति, दिल्ली)

- ‘डा अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों के लिये विशेषाधिकारों का प्रावधान 1950 में हमारे गणराज्य बनने के दिन से सिर्फ़ दस वर्षों की अवधि के लिए किया था। लेकिन अब 1973 आ गया है। यह लगातार बढ़ाया जा रहा है। हम केवल जाति के आधार पर ज़ारी विशेषाधिकारों के ख़िलाफ़ हैं क्योंकि यह उनमें पृथक अस्तित्व बनाये रखने का स्वार्थभाव पैदा करेगा। यह शेष समाज से उनकी अखण्डता को नुक्सान पहुंचायेगा।

(एम एस गोलवलकर, स्पाटलाइट्स , पृष्ठ- 116, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, 1974 से)

अभी के लिए इतना ही....
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( विजय शंकर सिंह )

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