Monday 16 November 2020

शब्दवेध (14) स्फोट शब्द (3)

कल की पोस्ट में मैंने आरंभ किया, “शब्द का  उच्चारण  उस  उपादान या  स्रोत  से निर्धारित होता है जिससे वह नाद उत्पन्न होता है जिसका वाचिक अनुकरण  किया गया है।   परंतु अर्थ उस वस्तु के गुण धर्म के अनुसार तय होता है  जिसके लिए इसका प्रयोग किया जाता है ।” और फिर इसका विवेचन करने की जगह अपने विषय से  भटक  गया, इसलिए उसे वापस ले लिया।   

होठों से वायु के वेग से बाहर निकलने से उत्पन्न ध्वनि  जिसे हमने पक, फक, बक, भक रूप में प्रस्तुत किया,  उसका पहली बार  सार्थक  प्रयोग  इनमें से कौन सा था  यह तय करना  इस बात पर निर्भर करता है कि किस बोली मैं इसका  पहली बार  प्रयोग हुआ  और दूसरों ने इसे किस रूप में सुना और उसका  उच्चारण कैसे किया।   

यहां हम कुछ  भ्रमों के शिकार हो सकते हैं।  पहला यह  कि ये मनुष्य के   सहज  मनोभाव हैं,  इनके साथ किसी तरह का सचेत  प्रयत्न नहीं होता इसलिए  इनको  सार्थक शब्द नहीं कहा जा सकता।  परंतु  अन्य भाषाओं के लोग  इनका प्रयोग  नहीं करते।  जन्मबधिर लोग इनका प्रयोग नहीं करते।  यहां तक कि हंसना भी हम समाज से सुनकर ही सीखते हैं।  सभी समाजों के लोग एक तरह से नहीं हंसते। हम  किसी चीनी को उसी तरह मुक्त भाव से हंसते  नहीं पाएंगे  जिस तरह एक भारतीय को।  एक निश्छल व्यक्ति की  तरह  किसी अपराधी या कपटी को हंसते नहीं पाया जा सकता।  हंसी की अपनी भाषा है और  यह मनोभाव और भाषा के अनुसार बदलती रहती है और इसे भी  हम समाज से सीखते हैं।  

हमने पीछे पकाना,  पकवान, पाक, पक्व   आदि  को  मुख से निकली पक् से उत्पन्न मान लिया।   इसमें ध्वनि से अधिक ध्यान  इस बात पर था कि मुंह से यह ध्वनि भी निकलती है और  इनको  खाया भी जाता है। परंतु दूसरी चीजों को खाने खाते समय जो ध्वनि निकलती है उससे  पकवान  खाने की ध्वनि  अलग नहीं होती,  मुंह किसी चीज को पकाने का काम नहीं करता।  इसलिए  इनका स्रोत संबंध  आग से है जिसके जलने और बुझने में   ऐसी ध्वनि होती है जिसकी नकल हम पक, भक्, बग रूप में करते हैं।   इसलिए हमें  इसको  उस स्रोत  में  तलाशना होगा जिसमें  इसकी क्षमता हो। 

सबसे रोचक है पक/ पंग,  भक/ भग/भंग, भंज के रूप में अनुकृत ध्वनि जो किसी चीज के फटने या फूटने से पैदा होती है। इस क्रिया में यदि वह टूट कर बिखरता नहीं, दरक कर रह जाता है तो दरार के लिए ‘भग’ का प्रयोग होता था और टूट जाने पर टूटे टुकड़ों को भाग कहते थे। इस स्रोत और कार्य व्यापार से एक प्रभावशाली शब्दावली का जनन हुआ है। ऐसा लगता है पंक का आदिम अर्थ चूर्ण या धूलि था जो पंश्-धूलिसात् करना में, पांशुल - धूलि से सना, मलिन में बदल गया और पंक कीचड़ के आशय में प्रयोग में आने लगा, परंतु पंगु= टूटा/कटा हुआ के लिए प्रयोग में आता रहा। पकड़ना इसी तरह मूलतः ‘टूटे हुए को जोड़ना’, ‘बिखरे हुए को समेटना’,  ‘बाँधना’ के आशय में प्रयुक्त हुआ और बाद में हाथ में लेना लिए। ‘पग्गड’,“पाग’/ ‘पगड़ी’, ‘पगहा’ = का वाचिक अर्थ बाँधने वाला  रहा लगता है; (हा प्रत्यय=वाला, जैसे भुतहा, मरकहा, लसरहा)। पंगा लेना =टकराना, न कि पंजा लड़ाना। 

संक्षेप में कहें तो  'भाग' - लागत  धन या श्रम  के अनुसार  उत्पाद या  लाभ में   उचित हिस्सा,  'भाग्य' - कर्म या श्रम के  अनुपात  में  लाभ या उत्पादन  में आगे चलकर मिलने वाला हिस्सा; भक्त - 1. बँटा हुआ, 2.हिस्सेदार;  भगभक्त -  हिस्से का बंटवारा करने वाला;  भग - बटवारे का देवता  या सूर्य/ अग्नि  का एक रूप (भग एव भगवाँ अस्तु देवाः तेन वयं भगवन्तः स्याम । तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुरएता भवेह ।। 7.41.5; अग्निर्नेता भग इव क्षितीनां दैवीनां देव ऋतुपा ऋतावा।...3.20.4; त्रिधातु राय आ सुवा वसूनि भग त्रातर्धिषणे सातये धाः  ।। 3.56.6) ;   भगवान - जिसके पास अर्जित या उत्पादित  संपत्ति  एकत्र हो और जो  भक्तों को उनकी पात्रता के अनुसार वितरित करे, (गृहिणी के लिए  ‘भागवान’   उसके इसी दायित्व  से जुड़ा संबोधन हो सकता है); भगवा - चीर या वस्त्र खंड;  भगई -   कपड़े की वह पट्टी  जिसे  जापान के सूमो पहलवान आदि पहनते हैं  (अनुमानतः  बौद्ध भिक्षु भी  इसी तरह का चीवर धारण करते थे); भगवा - चीवरधारी। भगेविता - भागधेय ? (घर्मेव मधु जठरे सनेरू भगेविता तुर्फरी फारिवारम्।),  भाक् - हिस्सा पाने वाला (यथा यज्ञभाक्)।  फक् को हम फाँक,  और *पंक के चूर्णीकरण वाले आशय में *फंक, फंकी -चूरा में और बक/ बग को बखरा - हिस्सा;  बिखरना/  *बगरना - बिखरना (बगरो बसंत है), में लक्ष्य कर सकते हैं।   

आग के  अकस्मात जल उठने या बुझने से उत्पन्न ध्वनि पक्, फक्,  भक, भग ने संभवतः इन तीनों स्रोतों में सबसे अधिक और दूसरे स्रोतों से समान ध्वनि के संभ्रमित करने वाते शब्दों का जनन किया है। किसी चीज को पकाने का काम  आग ही करती है  इसलिए पक, पक्का > पक्व; पकाना, पाक, पकवान, पकौड़ा. पकौडी,   का सीधा संबंध आग के  जलने बुझने की ध्वनि से और  उस स्रोत (आग) से है जिसका विस्तार दूसरी किसी ऐसी चीज और उसकी क्रिया में किया जा सकता है जिसमें आग या दाहकता की संभावना हो या आग से संबंध हो, जैसे पाकशाला, पक्वाशय, पाचन, पाचक आदि। फा. पाक- पवित्र, पाकीजा अग्नि के पावक या सभी तरह के विकारों को भस्म करके शुद्ध करने वाले भाव से निकले विशेषण हैं। ऋग्वेद में इसका ज्ञानी और अकलुषित के आशय में प्रयोग हुआ है।  पाक - ज्ञानी (पाकः पृच्छामि मनसा विजानन् देवानामेना निहिता पदानि। ऋ.1.164.5;  किं ते पाकः कृणवदप्रचेताः, 10.7.6).

भग का आग के गुण से सीधा अर्थ  आभा,   आलोक, अरुणाभ, पीताभ आदि हो जाता है और गेरू, रामरज,  हल्दी, केसर,  पलाश के फूल में रंगे वस्त्रों के लिए भगवा का प्रयोग होता रहा है। कहते हैं गेरू का प्रयोग कृमिनाशक के रूप में उस युग में ही होने लगा था जब मनुष्य ने वस्त्र का आविष्कार नहीं किया था और यह केवल भारत तक सीमित नहीं था। इसके विकल्प रूप में प्रयोग में आने वाले दूसरे रंग भी कृमिनाशक हैं इसलिए साधु संत भी  भगवा वस्त्र धारण करते रहे हैं। प्राण निछावर करने और सूर्यलोक को पहुँचने का इरादा रख कर केसरिया बाना धारण कर निकलने वाले राजपूतों की कहानियों से हम परिचित हैं। जरदुस्त्र का नाम क्या था हम नहीं जानते, जानते हैं भगवा वस्त्र (जरदवस्त्र) पहनने वाले के नाम से। रोमन राजाओं का पर्पल रोब या केसिरया राजवस्त्र भी इसके गौरव से जुड़ा है। संक्षेप में कहें तो यह पवित्रता का रंग है, गौरव का रंग है, ज्ञान और साधना का रंग है, शौर्य का रंग है।   भगवा का उपहास करते समय हम इन सभी का उपहास करते हैं और इनके विरोधी गुणों की उपासना करते हैं।

वैदिक में भग का संस्कृतीकरण भर्ग के रूप में हुआ जो गायत्री मंत्र में मिलता है और ज्ञान के आलोक से भरने वाले सूर्य का द्योतक है, पर भृगु/ भार्गव में यह  यज्ञविरोधी, औद्योगिक प्रयोजन में काम आने वाले अग्नि का द्योतक है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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