Sunday 22 November 2020

विचारविमर्श - संघ के हिंदुत्व और हिन्दूधर्म में अंतर

आरएसएस सरसंघकार्यवाह मोहन भागवत ने हिन्दूधर्म पर अपनी दावेदारी फिर से पेश की है। उनका मानना है हिन्दूधर्म की मान्य परंपराओं का वाहक है आरएसएसएस। सच्चाई इसके एकदम विपरीत है। मोहन भागवत कुछ सामान्यीकरणों का इस्तेमाल करते हैं और उनका जिक्र करके यह सिद्ध करते हैं कि वे हिन्दूधर्म के ध्वजवाहक हैं। इस प्रसंग में पहली बात यह कि हिंदूधर्म कोई राजनीतिक धर्म नहीं है। जबकि आरएसएस एक राजनीतिक-सांस्कृतिक संगठन है। वे जिस हिंदूधर्म को मानते हैं वह राजनीतिक है, उनका लक्ष्य है हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना, जबकि हिंदूधर्म के मानने वाले दार्शनिकों — लेखकों का लक्ष्य कभी भी हिन्दू राष्ट्र बनाना नहीं रहा। हिन्दूधर्म में धार्मिक, साहित्यिक और दार्शनिक कृतियों को धार्मिक बनाने या उनको राज्य के प्रचार का उपकरण बनाकर इस्तेमाल नहीं किया गया, मसलन्, श्रीमद्भगवतगीता को ही लें, यह सबसे पुरानी किताब है लेकिन राज्य के प्रचार का उपकरण नहीं रही, योग सबसे पुराने हैं लेकिन योगासन को कभी भी किसी हिन्दू राजा ने समाज और शिक्षा में अनिवार्य रूप से लागू नहीं किया। सूर्य नमस्कार एक विधि है लेकिन कभी अनिवार्य नहीं थी, जबकि आरएसएस के जन्म के पहले अनेक यशस्वी हिन्दू राजा हुए, लेकिन उन्होंने धर्म, धार्मिक - दार्शनिक किताबों, जीवनशैली या व्यायाम के रूपों को समाज पर थोपने की कोशिश नहीं की, धर्म उनके लिए उपकरण नहीं था बल्कि जीवन को समझने और जीने का साधन था। आरएसएस के लिए धर्म, राजनीतिक उपकरण और वैचारिक अस्त्र है।

हिन्दूधर्म ने कभी राजनीति और राजसत्ता से अपने को नहीं जोड़ा, किसी राजा ने हिंदूधर्म के अनुसार राज्य संचालन नहीं किया, यहाँ तक कि आम जनता की जीवनशैली के बारे में भी मनुस्मृति तक का कभी इस्तेमाल नहीं किया।इसके विपरीत आरएसएस के लोग सत्ता से जुड़े हैं, राजनीति में खुलकर भाग लेते हैं, राजसत्ता का जमकर उपयोग करते हैं, जबकि हिन्दूधर्म में यह परंपरा नहीं है।परंपरागत हिन्दूधर्म सत्ता और राजनीतिरहित धर्म है। इस अर्थ में वह धर्मनिरपेक्षता के ज्यादा करीब है।

हिन्दूधर्म में धार्मिक, साहित्यिक और दार्शनिक कृतियों को धार्मिक बनाने या उनको राज्य के प्रचार का उपकरण बनाकर इस्तेमाल नहीं किया गया, मसलन्, श्रीमद्भगवतगीता को ही लें, यह सबसे पुरानी किताब है लेकिन राज्य के प्रचार का उपकरण नहीं रही, योग सबसे पुराने हैं लेकिन योगासन को कभी भी किसी हिन्दू राजा ने समाज और शिक्षा में अनिवार्य रूप से लागू नहीं किया।
आरएसएस का मानना है हिन्दूधर्म में वैविध्य है तो उनके यहाँ भी वैविध्य है।वे हिन्दूधर्म की बहुलता और वैविध्य की संगति में अपने संगठन के विचारों को पेश करते हैं। इस प्रसंग में पहली बात यह कि संघ का बहुलता और वैविध्य का दावा शुद्ध कागजी है, उसका आचरण से कोई संबंध नहीं है। संघ के लोगों और सांगठऩिक ईकाईयों में हिन्दूधर्म के मर्म के कहीं दर्शन नहीं होते। हिन्दूधर्म की विशेषता है उसमें ज्ञान का सम्मान है, हर चीज ज्ञान यानी दार्शनिक स्तर पर विवादों के जरिए हल करने की परंपरा है। ज्ञान की जिन सरणियों को विचारधारा के रूप में विकसित किया गया उनमें अन्य और विरोधी के विचारों के साथ सम्मान और प्रेम के साथ बहस चलाई गयी। अन्य के विचारों के साथ मत-भिन्नता को सामने रखकर संवाद करने की परंपरा रही है, वे कभी अपने विचारों को मनवाने पर जोर नहीं देते, विचारों को तलवार से नहीं जोड़ा, शास्त्र को शस्त्र के साथ नहीं जोड़ा। विचारों को सत्ता के साथ नहीं जोड़ा। असहिष्णुता और घृणा के साथ नहीं जोड़ा। इसके विपरीत आरएसएस तो सीधे अन्य की सत्ता को नहीं मानता, उसके लिए हिन्दुत्व के सामने सभी धर्म दोयमदर्जे के हैं।

हिन्दूधर्म ने इस्लाम की सत्ता मानी उसके खिलाफ कभी घृणा का प्रचार नहीं किया, जैनियों और बौद्धों की सत्ता मानी लेकिन कभी इन धर्मों के खिलाफ घृणा और असहिष्णुता का प्रदर्शन नहीं किया। अनेकबार जैनियों और बौद्धों के साथ संघर्ष हुए लेकिन भारत में कहीं पर भी इनके खिलाफ घृणा का प्रचार नहीं किया। हिंदूधर्म में अनेक मत-मतान्तर हैं जिनके अंदर मूल विचारों और मान्यताओं को लेकर गहरे मतभेद हैं, लेकिन कभी भी अन्य के विचारों के प्रति घृणा का प्रचार नहीं किया गया। बल्कि प्राचीन और मध्यकालीन भारत में उन विद्वानों को ज्यादा सम्मान का दर्जा मिला जो गैर-हिन्दूधर्म के मानने वाले थे, नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों में उन सभी विद्वानों को सम्मान मिला जिन्होंने बुनियादी तौर पर हिन्दूधर्म और उसके दार्शनिक नजरिए की मुखालफत की थी। इसके विपरीत आरएसएस का आचरण देखें, वे जबसे सत्ता में आए हैं तबसे लगातार शिक्षा के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहे हैं, पाठ्यक्रम बदल रहे हैं, गैर-संघी विद्वानों का अपमान कर रहे हैं, हमले कर रहे हैं, उनका विभिन्न तरीकों से उत्पीड़न कर रहे हैं, इस प्रसंग में जेएनयू में शिक्षकों और छात्रों का विभिन्न स्तरों पर हो रहा उत्पीड़न आदर्श उदाहरण है। हिन्दुस्तान में मध्यकाल में भी इस तरह वैचारिक उत्पीडन नहीं हुआ जिस तरह का वैचारिक उत्पीडन जेएनयू में आरएसएस के द्वारा नियुक्त वीसी ने किया है। इससे एकबात सिद्ध होती है कि आरएसएस का हिन्दूधर्म के वारिस होने का दावा खोखला है, क्योंकि आरएसएस तो ज्ञान की सत्ता, महत्ता और स्वायत्तता को नहीं मानता, ज्ञान की श्रेष्ठता, बुद्धिजीवी, लेखकों की स्वतंत्रचेता मेधा और सामाजिक - सांस्कृतिक भूमिका को सीधे खारिज करता है जबकि हिन्दूधर्म के सभी सम्प्रदायों में ज्ञान की सत्ता,महत्ता और स्वायत्तता को सम्मानित किया गया, लेखकों-बुद्धिजीवियों-दार्शनिकों आदि की स्वतंत्रता और स्वतंत्र अभिव्यक्ति को सम्मान दिया गया, कभी किसी पर हमले नहीं हुए, कभी किसी को दण्डित नहीं किया, कभी किसी की हत्या नहीं की गयी, जबकि देश में विभिन्न धर्मों के मानने वाले राजाओं का शासन रहा है।

हिंदूधर्म में अनेक मत-मतान्तर हैं जिनके अंदर मूल विचारों और मान्यताओं को लेकर गहरे मतभेद हैं, लेकिन कभी भी अन्य के विचारों के प्रति घृणा का प्रचार नहीं किया गया। बल्कि प्राचीन और मध्यकालीन भारत में उन विद्वानों को ज्यादा सम्मान का दर्जा मिला जो गैर-हिन्दूधर्म के मानने वाले थे, नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों में उन सभी विद्वानों को सम्मान मिला जिन्होंने बुनियादी तौर पर हिन्दूधर्म और उसके दार्शनिक नजरिए की मुखालफत की थी।
इसी तरह हिंदू समाज में संत समाज, अखाडों आदि की स्वतंत्र अ-राजनीतिक भूमिका थी लेकिन 1980 के बाद से लगातार संत समाज और अखाड़ों को राजनैतिक प्रेशर ग्रुप के तौर पर आरएसएस ने विकसित किया है, आजस्थिति यह है कि सारे देश में हजारों-लाखों साधुओं को राजनीतिक प्रेशर ग्रुप के तौर पर वे इस्तेमाल कर रहे हैं, जितने परंपरागत संतों के मठ थे,मसलन्, कबीरपंथी-दादूपंथी आदि भक्ति सम्प्रदाय के संतों के मठों पर संघ का राजनीतिक कब्जा है, यहां तक कि आर्य समाज जैसे समाज-सुधार संगठन की अधिकांश शाखाओं पर संघ का कब्जा है, इसने एक नए किस्म के संगठित कट्टरपंथी धर्म की फिजा बनायी है, इसके अलावा पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, केरल,तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश आदि में नव्य-संत समाज पैदा हुआ है, इसमें कुछ जाति विशेष को केन्द्र में रखकर संत काम कर रहे हैं। इस सबसे कुल मिलाकर संत समाज और समाज सुधार संगठनों के लिबरल रूझानों को नष्ट करके उनको आरएसएस के राजनीतिक लक्ष्यों के साथ अप्रत्यक्ष तौर पर जोड़ दिया है। यह नए किस्म का धार्मिक कट्टरपंथी राजनीतिक फिनोमिना है। इसने केजुअल नजरिए से नहीं देखना चाहिए। इससे यह भी पता चलता है कि संत समाज का राजनीतिकरण हुआ है, इसने आम आदमी के साथ धर्मनिरपेक्ष संवाद और धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को जटिल और पेचीदा बना दिया है। इस समूची प्रक्रिया में धर्म और उसके मत-मतान्तर कहीं बहुत दूर पीछे छूट गए हैं। संत जब राजनैतिक प्रेशर ग्रुप के तौर पर काम करने लगें तो यह सीधे धर्म और राजनीति का घालमेल है, साम्प्रदायिकता है। अफसोस की बात है कि संतों के राजनीति में इसतरह खुलकर भाग लेने के खिलाफ कभी कोई प्रचार अभियान नहीं चलाया गया। हमने कभी सोचा ही नहीं कि धर्म और राजनीति के इस तरह के घालमेल से राजनीतिक तौर पर धार्मिक फंडामेंटलिज्म भी पैदा हो सकता है, विभिन्न किस्म के धर्मनिरपेक्ष संगठनों, व्यक्तियों और बुद्धिजीवियों, यहां तक कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता पर भी आघात पहुँच सकता है।

हाल ही में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने विभिन्न संत संगठनों और अखाडों को राज्य सरकार की ओर से 760 करोड़ रूपये की आर्थिक सहायता राशि दी है।संभवतः इतनी बड़ी सारी विगत 70 सालों में भी किसी सरकार ने नहीं दी थी। आश्चर्य की बात है इस तरह की घोषणाओं का राजनीतिक दलों की ओर से कोई प्रतिवाद नजर नहीं आता। इसके अलावा विभिन्न स्रोतों से भी इन संत संगठनों और अखाड़ों को मदद मिलती रहती है। अफसोस की बात है कि इन अखाड़ों और संतों की कोई सामाजिक भूमिका नहीं है। वे परंपरागत कामों के अलावा राममंदिर निर्माण आंदोलन और इसी तरह के दूसरे साम्प्रदायिक या अंधविश्वासों के सवालों पर सक्रिय होते हैं। यह नए किस्म का फिनोमिना है इसका परंपरागत संतई और अखाड़ा संस्कृति से कोई संबंध नहीं है।

मोहन भागवत ने अपने एक भाषण में हिन्दूधर्म की बहुलता का जिक्र किया और इस बात पर जोर दिया कि हिन्दूधर्म में जो बहुलता है वैसी ही बहुलता आरएसएस में भी है। जबकि सच्चाई यह है हिन्दूधर्म में व्याप्त बहुलता का संघी नजरिए से तीन-तेरह का रिश्ता है। आरएसएस हिन्दुत्व के नाम पर इकसार विचारों पर जोर देता है, हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना पर जोर देता है जबकि हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय और दार्शनिकों की परिकल्पना में राष्ट्र या देश शामिल ही नहीं है, वे धर्म को देश, भाषा और जाति की सीमाओं में बांधकर नहीं देखते।धर्म अनंत है, वह देश और प्रांत की सीमाओं से बंधा नहीं है। उसमें गहरे वैचारिक अंतर्विरोध हैं, वैचारिक संघर्ष और वाद-विवाद हुए हैं। लेकिन इन सबकी धुरी है संवाद, सहिष्णुता और अहिंसा। वे मतभिन्नता पर जोर देते हैं, लेकिन इसके लिए जबरिया मतैक्य स्थापित करने की कोशिश नहीं करते, एक-दूसरे के खिलाफ घृणा का प्रचार नहीं करते। मसलन्, बौद्ध, जैन, ईसाईयत, इस्लाम आदि के बारे में कभी घृणा का प्रचार नहीं किया गया, किसी समुदाय विशेष के बारे में घृणा का प्रचार नहीं किया गया। यह सच है भारत में वर्णाश्रम व्यवस्था है, जातिप्रथा है, इसके प्रति अधिकांश हिन्दूधर्मों का रवैय्या कठोर नहीं रहा है। जाति के बंधनों को मानते हुए भी अनेक समूहों, मसलन् नाथों, सिद्धों, बौद्धों आदि ने जातिप्रथा पर करारे प्रहार किए, समाज को जातिबंधनों से मुक्त करने के प्रयास किए और उन प्रयासों को सहिष्णुभाव से समाज के एक वर्ग ने स्वीकार भी किया जिसके गर्भ से मिश्रित जातियों का जन्म हुआ,इसने समाज के बंधनों और रूढ़ियों को ढीला बनाने में मदद की, ये सभी धर्म को इकसार बनाने की प्रवृत्ति के खिलाफ हैं।

बहुलता का अर्थ है सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विचारों और सामाजिक समूहों की मतभिन्नता साथ उपासना पद्धति के रूपों में मतभिन्नता। इसने बहुलतावाद का जो रसायन बनाया उसे आरएसएस मानने को तैयार नहीं है, आरएसएस की खूबी है कि वह लगातार विभिन्न मत-मतान्तरों और उनके सम्प्रदाय के संतों को साथ लाकर हिन्दुत्व के लक्ष्य के साथ एकीकृत करने की कोशिश कर रहा है, इसक्रम में वे सबसे पहले उन क्षेत्रों में प्रवेश करते हैं जहां पर उनके मतभेद नहीं हैं, बाद में वे सांगठऩिक - राजनीतिक तौर पर कब्जा जमाते हैं।

आरएसएस के तहत काम करने वाले सैंकड़ों संगठन हैं, मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि तकरीबन 700 से ज्यादा संगठनों का संघ संचालन करता है। इनमें प्रत्येक संगठन की कहने को अपनी स्वतंत्र संरचना है, गतिविधियां हैं लेकिन सबके अंदर साझा तत्व है ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदूराष्ट्र’। उसके प्रत्येक संगठन में सतह पर अलग-अलग किस्म के कार्यक्रम और लक्ष्य नजर आएंगे लेकिन सभी एक ही दिशा में सक्रिय हैं वह है हिदुत्व की दिशा। हिंदुत्व ही उनकी बुनियाद है जहां से वे अपनी पहचान बनाते हैं, ऊर्जा ग्रहण करते हैं।

आरएसएस के लिए कोई समूह, वर्ग, समुदाय आदि के विषय अछूत नहीं है। वह हरेक वर्ग, विषय, समूह आदि के आंदोलन-कार्यक्रम में शामिल होने को तैयार रहता है, आरएसएस की रणनीतिक सैद्धांतिक समझ है, हरेक काम सामाजिक है, जो सामाजिक है वह राजनीतिक है। इसके आधार वे सामाजिक कामों को राजनीतिक जनाधार में रुपान्तरित करते हैं। छोटी-छोटी सामाजिक गतिविधियों को राजनीति में रुपान्तरित करते हैं। इस रणनीति का अप्रत्यक्ष ढ़ंग से सामाजिक चेतना पर गहरा असर होता है। उनके काम करने की इस शैली से हर स्तर पर लोग प्रभावित होते हैं। इससे वर्गीय संरचनाएं और वर्ग संगठन भी प्रभावित होते हैं, उनकी काम करने की यह शैली ही जो वर्ग, जाति,धर्म और लिंग की स्वायत्त सत्ता को भीड़ में रुपान्तरित कर देती है।

आरएसएस के तहत काम करने वाले सैंकड़ों संगठन हैं, मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि तकरीबन 700 से ज्यादा संगठनों का संघ संचालन करता है। इनमें प्रत्येक संगठन की कहने को अपनी स्वतंत्र संरचना है, गतिविधियां हैं लेकिन सबके अंदर साझा तत्व है ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदूराष्ट्र’। सामाजिक स्तर पर भीड़, भिन्न स्पेस और भिन्न गति से सक्रिय होती है। उसमें अपने वर्ग, धर्म, जाति, लिंग आदि से पलायन की भावना होती है। मसलन् भीड़ के हरेक पहलू पर सवाल खड़े कर सकते हैं। भीड़ हमेशा पहले वाले सामाजिक क्षेत्र का अतिक्रमण कर जाती है। मसलन्, जातिविशेष या धर्मविशेष या लिंग विशेष के लोग जब भीड़ का हिस्सा बनते हैं तो पुराने क्षेत्र और आधार को छोड़ देते हैं। नए क्षेत्र के लिए वे अपनी मांगों और हकों तक को छोड़ देते हैं।मसलन्, गुजरात में 2002 के दंगों में औरतों ने हिस्सा लिया तो वे भूल ही गयीं कि दंगों में बड़े पैमाने पर औरतें शिकार हो रही हैं, उनको दंगों में शामिल नहीं होना चाहिए। वे यह भूल ही गयीं कि हिंदुत्व के नारे के तहत औरतों के नागरिक अधिकार स्वतः खत्म हो जाते हैं, या फिर जब औरतें किसी बलात्कारी बाबा की हिमायत करती हैं तो अपने स्वत्व रक्षा के अधिकारों से वंचित हो जाती हैं। यानी एक औरत का हिंदुत्वमय होने का अर्थ है कि वह अपने आधुनिक स्त्री के स्पेस को छोड़ रही है और भीड़ में शामिल हो रही है।

इसी तरह जब आरएसएस ‘हिंदूराष्ट्र’ के नारे के इर्दगिर्द पूर्व सैनिकों को गोलबंद करता है और सैनिकों को आक्रामक राष्ट्रवादी प्रचार अभियान के जरिए संबोधित करता है और ‘पूर्व सैनिक’ को उसकी जगह से निकालकर ‘भीड़’ का हिस्सा बनाता है। युवाओं को जब आरक्षण विरोध के बहाने आरएसएस गोलबंद करता है तो युवाओं को उसके स्वायत्त स्पेस और हकों से वंचित करता है।युवा को ‘भीड़’ में तब्दील करता है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जब ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के तहत छात्रों को गोलबंद करता है तो छात्र की स्वायत्त पहचान को रुपान्तरित करके उसे ‘भीड़’ का अंग बनाता है।

असल में ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदूराष्ट्र’ तो ‘भीड़’ का ही रुप हैं। ज्योंही कोई वर्ग, समुदाय, समूह, लिंग, जाति आदि को ‘हिन्दुत्व’ और ‘हिन्दूराष्ट्र’ के जरिए सम्बोधित करते हैं तो उन्हें भीड़ में रूपान्तरित कर देते हैं। यही बुनियादी वजह है कि भीड़ के हमले इनदिनों तेजी से बढ़े हैं। आज भीड़ कॉमर्शियल खेल का ही हिस्सा मात्र नहीं है, बल्कि राजनीतिक खेल का भी अंग बन गयी है। आरएसएस के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण इनदिनों जनता के विभिन्न सामाजिक समूह अपने दायरों का अतिक्रमण करके हिंदुत्ववादी भीड़ का अंग बन रहे हैं। ये वे लोग हैं जो हर चीज हिंदुत्व की नजर से देखते हैं। पहले भीड़ नायक का अंग थी, लेकिन हिंदुत्व की भीड़ नायक के साथ नायकहीन समाज के शोषण का अंग है।

आज लेखकों साहित्यकारों इतिहासकारों की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे हिंदुत्व के रूपांतरित क्षेत्र और एक-दूसरे पर आरूढ़ क्षेत्र को नए सिरे से व्याख्यायित करें। मसलन्, हम यह देखें कि आरएसएस कैसे अंधभाषायी अस्मिता, अंधराष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता, मुसलिम विरोध आदि के जरिए जनता को गोलबंद करते हुए कैसे उनको भीड़ में रूपान्तरित कर रहा है। असल चीज है ‘भीड़’ और ‘रूपान्तरण’ की प्रक्रिया। कोई समूह, समुदाय या लिंग कब, किस तरह अपने स्वत्व को त्यागकर ‘भीड़’ का अंग बन रहा है, किन कारणों से बन रहा है, इन सब पर गौर करने की जरुरत है। इस क्रम में उस वर्ग और जाति का लघु इतिहास कैसे बदला जा रहा है उसे हिंदुत्व के महा-इतिहास में कैसे रुपान्तरित किया जा रहा है, यह भी देखें। हम हमेशा आरएसएस के उठाए लघु-इतिहास के आख्यानों में उलझे रहते हैं, जबकि हमें लघु–इतिहास और महा-इतिहास के बीच की अंतर्कियाओं और रूपान्तरण की प्रक्रिया पर गौर करना चाहिए। इस क्रम में हमें ‘भीड़’ और ‘फ्लो’ इन दोनों की अंतर्क्रियाओं को ध्यान में रखना चाहिए। साथ ही सोचें कि ये दोनों चीजें किस तरह अन्य वर्गों के संगठनों और विचारों को अपदस्थ करती हैं, स्थान बदलती हैं, क्षेत्र बदलती हैं, समाहार करती हैं, हजम करती हैं। किस तरह के संहिताशास्त्र को निर्मित करती हैं और किस मात्रा में करती हैं। उल्लेखनीय है उनके ऐसा करने से अन्य सिस्टम अपना काम करना स्थगित नहीं करते।

‘भीड़’ और ‘वर्ग’ के संगठन एक ही गति और फ्लो के साथ काम नहीं करते, उनमें बड़ा अंतर होता है। इन सबके विपरीत धर्म अपने भक्तों को भक्त ही रहने देता है, वे अपनी स्वायत्तता बनाए रखते हैं। इस अर्थ में धार्मिक प्राणी या धार्मिक जनता ‘भीड़’ से भिन्न है।

( जगदीश्वर चतुर्वेदी )
( ऑब्जर्बर रिसर्च फाउण्डेशन के वेबसाइट पर प्रकाशित )

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