Saturday 21 November 2020

शब्दवेध (20) - शीर्षासन से बचते हुए

सिर से अधिक काम लेने वाले समस्याओं को सिर के बल खड़ा करके अपने बुद्धिबल से चलाना चाहते हैं।  बुद्धि पर कम भरोसा करने वालों को उन्हें पाँव पर खड़ा करना होता है। 

कभी-कभी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि  इतने प्रकांड विद्वान जिनमें से कुछ इस बात को लेकर चिंतित भी थे कि ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषा विज्ञान गलत दिशा में जा रहा है,  प्रयत्न करके भी  उस मामूली बात को क्यों न सुधार पाए जिसके बाद सारी ऊहापोह स्वतः  समाप्त हो जाती।  

आरंभ में भाषा के विकास का जो  जीवविज्ञानी  समाधान निकालने का प्रयत्न किया गया था उसकी सीमाओं को लक्ष्य करके  क्षेत्रीय सिद्धांत और भाषाई भूगोल के माध्यम से भी इस गुत्थी को  सुलझाने का  विचार  कुछ लोगों के दिमाग में आया था। वास्तव में वे भाषा की उत्पत्ति को नहीं, भारोपीय के प्रसार की गति-विधि (डाइनैमिक्स को समझना चाहते थे। उसका कुछ प्रभाव  लगता है माधव देशपांडे पर भी हुआ है।  वह जिस  उम्मीद को लेकर इस अध्ययन से उत्साहित थे, वह उन्हीं के अनुसार निम्न प्रकार है:
Hypotheses on Indian vocabulary.
The following hypotheses govern the semantic clustering attempted in this lexicon.
I. It is possible to re-construct a proto-Indian idiom or lingua franca of circa the centuries traversed by the Sarasvati-Sindhu doab civilization (c. 2500 to 1700 B.C.).
I. India is a linguistic area nurtured in the cradle of the Sarasvati-Sindhu doab civilization.

नहीं। ये पूर्वानुमान भाषा की उत्पत्ति और विकास की दिशा को समझने में संपादक की असमर्थता को प्रकट करते हैं। लगता है उत्साह सामान्य बोध पर भारी पड़ा है।  इससे  जो इकहरापन  और  असंतुलन पैदा हुआ है,   वह किसी आलोचक के फूँक से भी  धराशायी  हो सकता है और इतने परिश्रम से जुटाई गई सामग्री  वह भूमिका भी प्रस्तुत करने में  विफल  रह  सकती है, जिसका अधिकार अन्यथा इसे था।  सचाई की तलाश को छोड़कर किसी  आशय से किया जाने वाला अनुसंधान,  चाहे वह कितना भी पवित्र हो, दृष्टि को वर्णांध बना देता है,  और  उपलब्ध आंकड़ों में चुनाव,  उनके वर्गीकरण और विश्लेषण सभी को प्रभावित करता है।  हर एक  खोज के पीछे एक दृष्टि और प्रेरणा होती है उसी से अनुसंधाता को  दिशा भी मिलती है  परंतु विवेचन के समय उसे  अपने को  निरपेक्ष  और निर्वैयक्तिक बनाना होता है। 

 जब हम किन्ही भाषाओं की उत्पत्ति की बात कर रहे हैं  तो यह काम शब्दावली से नहीं किया जा सकता,  धातु तक के सिरे से नहीं किया जा सकता, इसके लिए हमें उन शब्दों और धातुओं के  स्रोत तक पहुंचना होता है  जहां से  वह नाद पैदा होता है।  इसका ध्यान  न तो  बरो  और इमैनो  ने रखा, न ही उन  अध्येताओं ने -   ब्लॉख, सिल्वयाँ लेवी, प्रित्सलुस्की, बागची और चटर्जी ने  रखा  जिनके निबंध प्री-आर्यन एंड  प्री-ड्रैविडियन इन इंडिया- मैं संकलित है  और जो संस्कृत के   धातुपाठ  से प्रेरित  और बरो तथा  इमेनो के प्रेरक रहे हो सकते हैं, और  जो ही उनके कामों के  लद्धड़पन के कारण बने लगते हैं।  देशपांडे ने  उनकी सीमाओं से कुछ नहीं सीखा और  अनेक बातों में असावधानी बरती जिसकी उनके जैसे प्रबुद्ध विद्वान से अपेक्षा नहीं थी।  

वह यह कैसे मान सके कि प्रोटो इंडियन से भारत के सभी भाषा-परिवारों की आदि भाषाएँ और उनसे उनकी बोलियां निकली, जिनमें से  एक  की बोलियां पूरब में मेगानेशिया (Maganesia) -  जावा-सुमात्रा - तक  और  पश्चिमोत्तर में   उक्रेन और फिनलैंड तक फैल गई, दूसरी एलाम  (Mac Alpin, David W. 1974 Dravidian and Elamite: A Real Break-through ? JAOS,Vol. 93, No.3, 384-85 Elamite and Dravidian: Further Evidence of Relationship, Current Anthropology, Vol.16, No.1, 105-15) तक जा पहुँची।

 इसके बाद भी उनका कोश इस दृष्टि से बहुत उपयोगी है कि पहली बार इतनी विपुल शब्दावली (8000) भाषा-परिवारों की सीमा पार करके इतने प्राचीन चरण पर साझी संपदा के रूप में पेश की गई है। 

इस दल को इस सीधे सादे प्राकृतिक नियम का और विकासवादी संकेतों का ध्यान रखना  चाहिए था किआरंभिक आहारसंग्रही चरण पर बड़े जत्थों का एक साथ निर्वाह नहीं हो सकता था।  यदि भाषाओं में विविधता है तो वह  आरंभिक चरण से रहा होगा। जैसे  छोटे  समुदायों के परस्पर मिलने से विशाल  समाज की रचना होती है उसी तरह उन समुदायों की बोलियों के मिलने से बहुत बड़े संपर्क क्षेत्र में समझी और बोली जा सकने वाली उन्नत भाषाओं का  प्रसार, बोलियों के ऊपर होता है ।   इसकी भी एक लंबी सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया है  जिसका चरम बिंदु शहरीकरण है।   पारस्परिक  मिलन  और विलय बहुत पहले से होता रहा होता है।  भाषा  के विकास को सामाजिक-  आर्थिक विकास क्रम से अलग रखकर देखने वाले हमेशा गलती करेंगे और यही आज तक होने वाली गलतियों का प्रधान कारण है। 
  
इस दल से ठीक वही चूक हुई जो उनसे पहले त्रांबेत्ती से हुई थी। जो साझेदारी प्राकृतिक आपदा (हिमयुगीन) के कारण भारत में असंख्य जत्थों के संगम में लक्ष्य की जानी थी उसे उन्होंने भारत से बिखराव के रूप में देखा।  जो साझेदारी भारतीय बोलियों में कृषि के आरंभ से लेकर शहरीकरण तक के आर्थिक विकास के क्रम में पैदा हुई उसे इन्होंने उलट कर देखा और एक आद्य भारतीय भाषा से भारत की सभी भाषाओं  की उत्पत्ति दिखा दी। पूरी तस्वीर ही उल्टी पेश कर दी। 

हमारा अपना योगदान उल्टे को सीधा खड़ा करने का है। उल्टे सिरे से सहारा देने पर जो खड़ा दीखता था पर डाँवाडोल रहता था पर चल नहीं सकता था, सीधा खड़ा करने पर वही चलने ही नहीें दौडने भी लगता है और कहीं ठोकर नहीं खाता।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

No comments:

Post a Comment