Friday 20 November 2020

शब्दवेध (19) मामला गड़बड़ है

तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की कोई कड़ी  ऐसी नहीं है जो एक दूसरे से जुड़ती हो। अपनी जरूरत के कारण जिन लोगोे के द्वारा इन कड़ियों को गढ़ा गया वे यह जानते हुए भी कि ये एक दूसरे से जुड़ नहीं पा रही हैं,  इन्हें पास पास सटा कर इस तरह रखा गया कि इनसे एक श्रृंखला का भ्रम पैदा हो सके ।
  
उदाहरण के लिए विलियम जॉन्स को पता था संस्कृत का पूर्वरूप भारत के बाहर कहीं भी नहीं मिलता। इसके बाद भी  जबरदस्त के ठेंगे की तरह  यह विचार भारतीय संस्कृतविदों पर  प्रलोभन,  प्रशस्ति,  और सत्ता के प्रयोग के बल पर लादने में समर्थ रहे  कि न केवल संस्कृत, बल्कि संस्कृत बोलने वाले ब्राह्मण भी, भारत में अपनी भाषा लिए बाहर से आए हैं। इसके साथ ही वह यह विश्वास भी दिला सके कि  सबसे प्राचीन  और सभी दृष्टियों से  लातिन और ग्रीक से श्रेष्ठ सिद्ध होते हुए भी, संस्कृत  उनकी जननी नहीं है। 

अपने अंतिम प्रस्ताव में वह गलत नहीं थे,  व्यंग्य यह कि सही भी नहीं थे।  जिस संस्कृत से वह परिचित थे, वह पाणिनीय व्याकरण द्वारा अनुशासित  और जानबूझकर दुरूह बनाई गई भाषा थी,  जिसे  दुरूह  बनाया ही गया  इस इरादे से था कि सामान्य जन इसे बोलना तो दूर,  समझने मे भी  कठिनाई अनुभव करें।  इसका साहित्य 500 ईसा  पूर्व  से पहले का नहीं  हो सकता था।  यह सचमुच केवल ब्राह्मणों के भीतर बीच प्रचलित भाषा थी। इसका प्रसार  हुआ ही नहीं था।  जिस काल मे मूल भाषा का पूरे भारोपीय क्षेत्र में प्रसार हुआ था वह इससे 2000 साल या इससे भी पहले था और  वह इसका पूर्वरूप और कई  दृष्टियों से  इससे भिन्न भाषा थी।  

अपनी खोज में  वह जिस मूल भाषा को  इन सभी भाषाओं की जननी सिद्ध करना चाहते थे  उसे तलाशते हुए नोआ  की संतानों तक पहुंच गए  और अंत में घोषित कर दिया वह भाषा तो मिली नहीं।  किसी  मान्यता कि इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है।  परंतु वह बड़ी  विडंबना भी  इस रूप में घटित हुई  लगभग 200 साल तक लोग उस बेतुकी मान्यता को इतिहास का सच मानकर इतिहास कि आप्तता को उसकी कसौटी पर कसते रहे। इसे  मान्य बनाने के लिए   तुलनात्मक भाषा विज्ञान के सिद्धांत बनाए जाते रहे. ध्वनि-नियम तैयार किए जाते रहे, कल्पित भाषा के शब्दों मूलों के कोश तैयार किए जाते रहे।, मूल देश कौन सा था इस पर अटकलें लगाते हुए ठिकाने बदले जाते रहे, केवल  भारत को विचार की परिधि से बाहर रखा जाता रहा और भारतीय बोलियों का संस्कृत से क्या संबंध है इसे लेकर सुझाव बदले जाते रहे।

विलियम जोंस के समय अपनी विकसित भाषा और संस्कृति लेकर आने वाले सज्जन निर्मम, असभ्य, युद्धोन्मादियों में बदले जाते रहे।  वे सभ्य से असभ्य और फिर सभ्य ( जरूरत पड़ने पर सभ्य असभ्य दोनों एक साथ) सिद्ध किए जाते रहे और इतिहास की इस बेमिसाल हुड़दंग के बीच वह निराधार अटकलबाजी इतनी अचल  बनी रही कि तिळक जैसा देशाभिमानी विद्वान तक इसके झाँसे में ही न आ गया, इस हुड़दंग में शामिल भी हो गया। 

गड़बड़ इतनी कि इसके समर्थन मे खड़े होने वाले  किन्हीं दो विद्वानों के विचार सभी बातों में एक जैसे नहीं मिलते, जिसे इबारत बदल कर कहें तो सभी मानते हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ है और इसी परिधि में कुछ दाएँ बाएँ हो कर सुधारने का प्रयत्न करते हुए वह एक नई गड़बड़ी पैदा करके हाथ खड़े कर देते रहे हैं। 

जहाँँ बुनियाद ही टेढ़ी हो वहाँ इमारत को खंभों और बल्लियो के जोर से सीधा नहीं किया जा कसता। टेढ़ी नींव के कोण पर उसकी गहराई में उतर कर भी बनावट की कमी को न तो समझ सकते हैं।

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मैक्स मूलर ने या सुझाव दिया था ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की जरूरी शर्त है कि वह आदि भाषा तक पहुँचे।  बायोग्राफी ऑफ वर्ड्स  में उन्होंने स्वयं भी इसका प्रयत्न किया और संभवतः असाध्य मानकर छोड़ दिया।   उसके बाद तीन साहसिक प्रयत्न किए गए और तीनों मोटे तौर पर एकमूलीयता (monogenesis) सिद्धांत के शिकार बन गए, जो ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के चिंतन में आरंभ से ही हावी रहा है।

हमारी दृष्टि में इनमें सबसे साहसिक और,  एकमूलीयता के  बाद भी  वास्तविकता के सबसे निकट अलफ्रेडो त्रांबेत्ती ( Alfredo Trombetti) का (L'unità d'origine del linguaggio, 1905) का यह मंतव्य था कि  विश्व की सभी भाषाएं भारत से निकली हैं। इसके समर्थन में उन्होंने भाषा के विविध तत्वों  की तुलना करते हुए यह दिखाया था की भाषा परिवार की सीमा को लाँघते हुए संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि सभी मामलों में मिलते जुलते शब्द दूसरी भाषाओं में पाए जाते हैं और इनका केंद्र भारत है।   यह मान्यता  आधी सच और आधी गलत है।  सचाई के सबसे निकट क्यों है इसे अलग से बताने की जरूरत नहीं।  हम  विगत  हिम युग में भारत को सबसे सुरक्षित  शरण स्थल पाकर  यहां लंबे समय तक आपस में टकराते हुए बसने वाले असंख्य  समुदायों की बात हम कर चुके हैं।

दूसरी मान्यता जो लगभग ठीक उसी आसपास आई थी  उसे होल्गर पीटरसन (Holger Pedersen) ने तुर्की भाषा पर विचार करते हुए अपने एक लेख में  प्रस्तुत की थी  जिसके सार को  उनके ही शब्दों में रखे तो  वह निम्न होगा:
Very many language stocks in Asia are without doubt related to the Indo-Germanic one; this is perhaps valid for all those languages which have been characterized as Ural–Altaic. I would like to unite all the language stocks related to Indo-Germanic under the name "Nostratic languages." The Nostratic languages occupy not only a very large area in Europe and Asia but also extend to within Africa; for the Semitic-Hamitic languages are in my view without doubt Nostratic. 

प्रोटो नोस्त्रातिक (Proto-Nostratic) ‘हमारी आद्य भाषा’ के विषय में उनका ख्याल था कि यह (15,000 -12,000 BCE) में विगत हिमयुग के अंतिम काल में बोली जाती थी।   पीडरसन ने अपनी मान्यता का विधिवत प्रतिपादन नहीं किया इसलिए यह सिद्धांत भी चर्चा में तब आया जब रूसी विद्वान इल्यिच स्वित्यच ( Illich-Svitych) और दोग्लोपोल्स्की (Dolgopolsky) ने 1960 के दशक में इसका विस्तार से प्रतिपादन किया।
 
इसके विषय में अधिक विस्तार में जाने की जरूरत इसलिए नहीं है,  कि इसे   भाषाविज्ञानियों   के बीच  स्वीकार्यता नहीं  प्राप्त हो सकी।

तीसरा साहसिक प्रयत्न  इमेनो ने  इंडिया ऐज ए लिंग्विस्टिक एरिया(1956) में किया था  जिसमें  उन्होंने यह तो स्वीकार किया था कि भारतीय भाषाओं के  पारिवारिक विभाजन का  तिरस्कार करते हुए  अनेक प्रयोग,  जिनके कुछ केंद्र हैं, पूरे भारतीय  भूभाग में  फैल जाते हैं  और भारतीय,  आज के शब्दों में कहें तो,  दक्षिणी एशियाई भौगोलिक सीमाओं को पार नहीं कर पाते। इमेनो इससे अधिक का साहस नहीं कर सकते थे, क्योंकि वह आर्यों की  जाति और भारत पर उसके आक्रमण के, या किसी न किसी रूप में भारत में प्रवेश के,  दुराग्रह से बाहर नहीं आ सके थे।  बरो के साथ  द्रविडियन एटीमोलॉजिकल डिक्शनरी के संकलन और संपादन के क्रम में फिर वही समस्या पेश आई और इसका एक काम चलाऊ हल निकाल कर  संतोष कर लिया।

जहां पहुंचकर  इमेनो रुक जाते हैं,   उससे  आगे बढ़ने का  प्रयास  माधव देशपांडे ने इंडियन लेक्सिकन के माध्यम से करने का प्रयास किया है जिसकी  प्रस्तावना  Discovering the language of India circa 3000 B.C. की कुछ पंक्तियां  यथातथ्य  देना  सही होगा:
This is a comparative study of lexemes of all the languages of India (which may also be referred to, in a geographical/historical phrase, as the Indian linguistic area). 

This lexicon seeks to establish a semantic concordance, across the languages or numraire facile of the Indian linguistic area: from Brahui to Santali to Bengali, from Kashmiri to Mundarica to Sinhalese, from Marathi to Hindi to Nepali, from Sindhi or Punjabi or Urdu to Tamil. A semantic structure binds the languages of India, which may have diverged morphologically or phonologically as evidenced in the oral tradition of Vedic texts, or epigraphy, literary works or lexicons of the historical periods. This lexicon, therefore, goes beyond, the commonly held belief of an Indo-European language and is anchored on proto-Indian sememes.

The work covers over 8,000 semantic clusters which span and bind the Indian languages. The basic finding is that thousands of terms of the Vedas, the Munda languages (e.g., Santali, Mundarica, Sora), the so-called Dravidian languages and the so-called Indo-Aryan languages have common roots. This belies the received wisdom of cleavage between, for example, the Dravidian or Munda and the Aryan languages.

यहां तक लेखक के विचार से हमारी  कुछ दूर तक सहमति है,   परंतु जब  एक आद्यभाषा से भारत की सभी भाषाओं की उत्पत्ति   का प्रस्ताव रखते हैं तो  एकमूलीयता  की उसी व्याधि के शिकार हो जाते हैं जिसके शिकार भाषापरिवार की अवधारणा  से ग्रस्त एक  आद्यभाषा से बहुत सी भाषाओं की उत्पत्ति की कल्पना करने वाले रहे हैं।   इसके बाद भी यह अध्ययन उस संपर्क भाषा को समझने में हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होता है जिसका प्रयोग   वैदिक काल का  औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियों में लगा हुआ वर्ग करता था।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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