Tuesday 3 November 2020

विश्व राजनीति और नयी विश्व व्यवस्था

अमेरिकी जॉर्नल  "Foreign Policy"  में वरिष्ठ पत्रकार माइकल हर्श की एक आर्टिकल में  इन वाक्यों से शुरआत है कि  इतिहास में जितने भी निरंकुश शासक हुए हैं, अपने अंत का  शिल्प उन्होंने ख़ुद रचा। आज ट्रंप, पुतिन, अर्दोगान, मोदी, जायर बोल्सोनारो या जिनपिंग अगर सत्ता को निरंकुशता की ओर धकेलते हैं तो कल वे अपनी पतनगाथा भी स्वयं तैयार करते मिलेंगे। 
यह चिंता तब पैदा लेती है जब ये शासक वर्ग अपनी सत्ता के लोकतांत्रिकरण से बचते तथा  जनता में अपनी तात्कालिक लोकप्रियता को साधन बनाकर अपनी सत्ता को  स्थायी अथवा शाश्वत बनाने के स्वप्न को साकार करने में अहर्निश जुटे दिखते हैं। जनता के बीच लोकप्रिय बनने के लिए ये शासक जिन अस्त्रों का इस्तेमाल करते हैं वे वही चिरपरिचित अस्त्र हैं जिन्हें अतीत में फ़ासीवादी, सैन्यवादी शासक मुसोलिनी और हिटलर समेत  20वीं सदी के अन्य सर्वाधिकारवादी सत्ताधीशों स्पेन के फ़्रैंको, पोर्तूगाल के सालाज़ार, तुर्की, पाकिस्तान, लीबिया,चिली, अल्जीरिया, इंडोनेशिया, बर्मा, ज़ायरे इत्यादि मुल्क़ों के सैनिक तानाशाहों ने किया था। 

लोकतांत्रिक देशों में अधिकारवादी सत्ता की स्थापना का उपक्रम उन्हीं आर्थिक संकटों से पैदा राजनीतिक संकटों का परिणाम है जिसने 1930-31 के महामंदी को फ़ासीवादी सत्ता की पृष्ठभूमि बनाया था। शीतयुद्धोत्तर काल में जब समाजवादी विश्व का ध्वंस हुआ तो पूंजीवाद को खुला खेलने की छूट मिल गयी। बाधारहित शोषण से विश्व पूंजीवाद ने जो आक्रमकता दिखाई वह आमजनता या राष्ट्रों की समस्याओं के समाधान के बज़ाय उसको और अधिकगहरे आर्थिक संकट में ढकेलते चला गया।  इस गहरे संकट से उबरने के जितने प्रयास हुए या हो रहे हैं जनता पर मुसीबतों के उतने पहाड़ टूटते चले जा रहे हैं। अमेरिका से लेकर भारत तक  अर्थव्यवस्था तथा रोजगार की दशा में रिकार्ड गिरावट के जारी दौर के आँकड़ों से यह स्वयं सिद्ध है।

ज्यों ज्यों यह संकट बढ़ता जा रहा है, त्यों त्यों वर्ग संघर्ष की आसन्न आशंकाएं भी बढ़ती जा रही है । वर्ग संघर्ष की बढ़ती इन आशंकाओं से तथा क्रोनी कैपिटलाइजेशन के तहत इज़ारेदार कारपोरेट हाउस द्वारा ग़ैर इज़ारेदार घरानों के द्वारा पूंजी बटोरने और अत्यधिक मुनाफे की अंधी होड़ के चलते पूंजीपति वर्ग में भी अंतर्विरोध अपरिहार्य रूप से गहराता चला जा रहा है। 

ऐसी अवस्था में सत्ता पर उठनेवाली आँच की संभावना की भी अनदेखी अधिक देर तक नहीं की जा सकती है जो इन शासकों के अहंकारोन्माद से सीधे टकराव का रूप ग्रहण करता है। कोरोना संकट ने और आग में घी का काम कर दिया। भारतीय प्रधानमंत्री की इस घोषणा को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है जब वह कहते हैं कोरोना की आपदा को अवसर में बदलना हम जानते हैं। 

इस दिशा में चाहे अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप हो, रूस के राष्ट्रपति पुतिन, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, तुर्की के प्रधानमंत्री रासिप तैयब अर्दोगान, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या लातिनी अमेरिकी देश ब्राज़िल के तानाशाही निज़ाम के नेता राष्ट्रपति बाल्सनारो सभी कोरस में गान कर रहे मिलते हैं। आक्रामक विदेश नीति, आक्रामक राष्ट्रवाद, आक्रामक केंद्रीयकृत सत्तावाद, और बहुलतावाद के स्थापित मूल्य की ज़गह आक्रामक धर्मोन्मादी बहुसंख्यावाद इन शासकों की नीतियों की कमोबेश पहचान बन चुकी है। 

प्रधानमंत्री मोदी के "नमस्ते मित्र"  और "हाउ दी मोदी" के नायक सबसे शक्तिशाली पार्टनर ट्रंप की विदेशनीति के लक्ष्य को आँकिए। विश्ववर्चस्वतावाद के ज़रिए अपने देश की जनता की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को तुष्ट करना उनका परम उद्देश्य है जहाँ इनके दो प्रतिस्पर्धी पुतिन और शी जिनपिंग इन्हें चुनौती देकर अपनी अपनी जनता की राष्ट्रीय मानसिकता को शांत कर अपनी सत्ता के लिए लोकप्रिय समर्थन जुटाते हैं। 

मोदी जी का  इस्लामिक चेहरा अर्दोगान को कह सकते हैं। जैसे मोदी जी और उनकी पार्टी ने शर्की वास्तुकला का अद्भुत नमूना ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को मिसमार कर यहाँ राममंदिर की तामीर कर रहे हैं उसी तरह तुर्की के यूरोपीय शहर इस्तांबुल में जो पहले बिजेंताइन ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियन साम्राज्य जिसे पूर्वी रोमन साम्राज्य भी कहते हैं की राजधानी कुस्तुंतुनिया कहलाता था, 6ठी शताब्दी के अया सोफिया के गिरिजाघर को, जो म्यूजियम का रूप ले चुका था पुनः मस्ज़िद में तब्दील कर  दिया है। अर्दोआ़न सिर्फ़ इतना ही कर अपनी जनता से वाहवाही लूट कर काम समाप्त नहीं समझते हैं बल्कि लीबीया से लेकर, ग्रीस, उत्तर पश्चिम भूमध्यसागरीय तट से दक्षिण पूरब भूमध्यसागर के तेलभंडार तक तथा सीरिया, इराक़ी कुर्दिस्तान और ईरान तक अपनी धौंस अजमाकर तुर्क जनता को राष्ट्रोन्माद-धर्मोन्माद के नशे में डूबे देना चाहते हैं ताकि पूंजीवादी संकट से उपजी परेशानियां उन्हें दिखाई न दे। ज्ञातव्य है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तुर्की की अर्थव्यवस्था 5% की जीडीपी के रेकॉर्ड निचले स्तर के साथसबसे घोर संकट मे है जहाँ बेरोजगारी की दर 17% पर पहुँची हुई है। स्वभाविक है इस वास्तविक मुद्दे से जो असंतोष ही नहीं विप्लव के लिए काफ़ी है ध्यान बंटाने के लिए धार्मिक उन्माद और राष्ट्रोन्माद से बेहतर आसान उपाय क्या होगा! 

 रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भी चेचन्या, जॉर्जिया,क्रीमिया, उक्रेना, सीरिया आदि में अपने कारनामे से अपनी जनता की भावना को गुदगुदाकर अपनी सत्ता के चिरस्थायित्व के लिए  स्वीकृति ले ली है । इतिहास गवाह है कि पहले भी जिन जिन ने इस प्रकार स्वीकृति ली वे आजीवन सत्ता पर क़ायम नहीं रह पाये । इंडोनेशिया के सुकार्णो भी इसी श्रेणी में थे। पहले ही सत्ता से गिरा दिये गए। पुतिन ने इसके लिए संवैधानिक संस्थानों के साथ वही व्यवहार मचा रखा है जो व्यवहार उनके समकक्ष भारत, तुर्की, ब्राजील, अमेरिका तथा चीन में करते हुए मिलते हैं। 

चीन के वही राष्ट्रपति शी जिनपिंग हैं ट्रंप के बाद अगर किन्हीं का सर्वाधिक स्वागत  मोदी जी ने किया तो वही हैं। और डेढ़ दर्जन की मुलाक़ात के बाद भी शी जिनपिंग ने अपने राष्ट्रीय एजेण्डे से मोदी जी के स्वागत का अप्रत्याशित उत्तर दिया क्योंकि उन्हें भी इन्हीं की तरह अपने मुल्क को चीनी राष्ट्रीयतावाद की नयी पहचान देनी थी जिसे वह  अन्य बातों के साथ अपने चिरपरिचित अंदाज़ में देश के सीमाविस्तार द्वारा देना चाह रहे हैं। दक्षिणी चीन सागर से लेकर काराकोरम तक चीन के सदर शी जिनपिंग इसके लिए सक्रिय हैं। इतना ही नहीं, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव- BRI  जो  सिल्क रूट का नया अवतार है, के ज़रिए अपने विश्व व्यापार को निरापद ऊँचाई तक ले जाने की तैयारी में जिस तरह अहर्निश जुटे देखे जाते हैं वह ब्रिटिश साम्राज्य की माल्टा से लेकर मलक्का तक की निरापद समुद्री मार्ग और उसके बंदरगाहों और मुहानों , मसलन, सुदूर पश्चिम में जिब्राल्टर से प्रारंभ होकर साइप्रस, स्वेज, बाबलमंदव, अदन, कराँची, बंबई, कोच्चि, कोलंबो, कोलकता होते हुए सूदूर पूरब में, रंगून और सिंगापुर पर उसके एकाधिकार नियंत्रण की याद दिलाता है। क्या इतना काफ़ी नहीं चीन की जनता के लिए जो चालीस साल के सबसे आसन्न आर्थिक मंदी की मार को सहन कर ले, कोरोना की त्रासदी भुला दे और राष्ट्रपति शी जीन पिंग को अपनी ही राजनीतिक परंपराओं को धता बताकर दस बरस के बजाय आजीवन राष्ट्रपति चुनले? अगर और चाहिए तो हाँगकाँग और लद्दाख लाकर दे देंगे? 

वही अंदाज़ हमारे प्रधानमंत्री जी का भी है। जनता की भावनाओं और स्वप्नों से खेलो जैसे ट्रंप खेलता हैहै-- कालों , अफ़रीकियों, हस्पानियों, हिंदुस्तानी उपमहाद्वीप के लोगों के साथ तिरस्कार भाव को व्यक्त कर  वैसे यहाँ अक़्क़लियतों , सेकुलरों, विवेकवादियों, प्रतिरोधी स्वरों और दलितों के साथ घृणा को उभरने देकर, देशद्रोही का तमगा लगाकर जैसे ट्रंप केंद्रीय संवैधानिक संस्थाओं और न्यायपालिका, व्यवस्थापिका के सदनों, तथा ख़ुद कार्यपालिका की संस्थाओं की लगातार अवहेलना कर या भयभीत करके उनको स्वायत्त स्थिति से  अपने अधीनस्थ स्थिति में लाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनी सत्ता की निरंकुशता की राह में "चेक एंड बैलेंस" या "शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत"  क रोड़ा बनने नहीं देना चाहते, वैसे ही मोदी जी भी अपने विश्वमंच के सबसे चहेते चितेरे आदर्श उसी ट्रंप के ही नक्शेकदम पर चलते हुए विभिन्न युक्तियों, उपायों और तरीक़ों के द्वारा सत्तर साल की लोकतांत्रिक परंपराओं को तिरोहित करने में अपनी सत्ता के अहंकारोन्माद  की चिरशाश्वतता एवं एकाधिकार के लिए कोई हिचक नहीं दिखा रहे होते हैं। बहुलतावाद उनकी ज़ुबान पर ट्रंप, अर्दोगान और बोल्सनारो की तरह  होता है लेकिन व्यवहार में व सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद मिलेगा इनके दूसरे परम मित्र बेन्जामिन नेतन्याहू की तरह। 

विदेश नीति की आक्रमकता ऐसी कि पूरी दुनिया को कई क़ी बार लांघने का रेकॉर्ड इनके नाम हो चुका है।  फिर भी, पड़ोसी राष्ट्रों के साथ इनके ताल्लुकात में जो खटास देखने को मिल रहा है और जिस पैमाने व उम्मीदों के जोशोखरोश से इन यात्राओं का यशोगान होता रहा, उपलब्धि के रूप में वह कोई उल्लेखनीय शक्ल के रूप में सामने नहीं आ पा रहा है वह इनके यशोगान पर अक्सर सवाल खड़ा करता रहता है। लेकिन तब भी जनता उन्माद में है । हमारे प्रधानमंत्री ने एलिज़ाबेथ से लेकर ह्वाइट हाउस तक भारत की प्रतिष्ठा को चार चाँद लगा दिया। 

इसका निश्चय ही लाभ प्रधानमंत्री जी को  मिल रहा है इस विपरीत तथ्य के होते हुए कि देश की अर्थव्यवस्था आज़ादी के बाद सबसे निचले स्तर पर है और बेरोजगारी सबसे ऊँचे स्तर पर । कोरोना काल की आपदा में लगे अदूरदर्शिता पूर्ण लॉकडाउन में थाली पीटने और दीये जलानेवाले लाखों की संख्या में मज़दूरों की लंबी लंबी क़तारें शाहराहों पर उत्तर पश्चिम और दक्षिण से निकलकर पूरब की ओर रुख करते अभूतपूर्व प्राणांतक दृश्य देखे गए। बंटवारे के बाद पलायन की ऐसी नंगी डरावनी तस्वीरें आम जनता की  सत्तर साल के इतिहास में नहीं देखी गयीं। लेकिन इसके बावजूद विश्व के अपने अन्य दक्षिणपंथी समकक्षों की तरह आम जनता को वर्गसंघर्ष की राह पर आगे बढ़ने से रोकने की राह में इसलिए सफ़ल हैं कि इनके पास फ़ासिस्ट नीति के तमाम आज़माये हुए नुस्खे  अद्यतन अज़माने के लिए उपलब्ध हैं। नैतिक अनैतिक, वैधिक अवैधिक, जहाँ सच न चले वहाँ झूठ सही, सभी तरीक़े भी इनके पास मौज़ूद हैं। 

ब्राजील का यह संवेदनहीन राष्ट्रपति बाल्सनारो को प्रधानमंत्री मोदी ने जिस साल यह राष्ट्रपति चुना गया था, गणतंत्र दिवस के मुख्य परेड पर मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया था। वह अभी पूरे लैटिन अमेरिका में नया राष्ट्रोन्मादी तूफ़ान बरपा किये हुए है । अमेरिका के इशारे पर उसने अपने देश में और पूरे महाद्वीप में अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए तथा अपनी ही तरह की दूसरी सत्ताओं की सुरक्षा के लिए भी लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है । उसकी क्रूरता तब देखी गई जब राष्ट्रोन्माद के आवेग और अहंकारोन्माद में  उसने कोरोना को जनसंहार के लिए छा जाने दिया। आज जिसका परिणाम पूरा महाद्वीप, खासकर उसके अपने देश ब्राजील की जनता  भुगत रही है । ऐसे में वह पूरे लैटिन अमेरिका में अपनी धौंस को राष्ट्रोन्माद का साधन बनाकर आम जनता में अपनी मक़बूलियत को बढ़ाने में वह अपने दाएं बाजू के हममनसबों का ही हमराही बना  है। बोलीविया मे चुनी हुई लोकप्रिय सरकार का सत्ता पलट करवा कर ट्रंप से वाहवाही लूटी। वेनेजुएला में उसका खेल जारी है। देश के अंदर लोकतांत्रिक देशभक्त नेताओं पर दमन चलाकर वाशिंगटन को ख़ुशकर सोचता है कि टूटती बिखरती अर्थतंत्र को अमेरिका संभाल देगा और  उसकी अपनी सत्ता को बचाते रहेगा। 

ये सारे काम और अभियान निस्संदेह इन शासकों के लिए अपने प्रभाव में वृद्धि करने में तत्काल सहायक हो रहे हैं और चुनावी हार से भी उन्हें अभी बचा रहे हैं। लेकिन, "अंबुधि अंतस्थल बीच छिपी यह सुलग रही है कौन आग"  की तरह यह सवाल भी एक सच्चाई है जो सुषुप्त ज्वालामुखी बनकर अनेकों बार व इतिहास में विस्फोटक साबित हुई है और जिसने बड़े सै बड़े लोकप्रिय शासकों की प्रतिमाएँ ध्वस्त कर दी है।

लोकतंत्र की आंतरिक शक्ति से कोई भी शासन या शासक बड़ा नहीं हो पाया , उससे जीत नहीं पाया !

भगवान प्रसाद सिन्हा
( Bhagwan Prasad Sinha )

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