Friday 6 November 2020

काम करा कर किसी मिस्त्री का पैसा दबा लेना, यह कौन सी पत्रकारिता है मित्रों ? / विजय शंकर सिंह

अर्नब गोस्वामी धारा 306 आइपीसी, ( आत्महत्या के लिए उकसाने ) के एक मामले में जेल में हैं। इस मुकदमे के बारे में कहा जा रहा है कि उद्धव ठाकरे और पुलिस कमिश्नर मुम्बई ने अर्नब की पत्रकारिता के दौरान उठाये गए कुछ सवालों को निजी तौर पर ले लिया है। यह बात अगर सच भी हो तो, क्या अर्नब गोस्वामी ने उद्धव ठाकरे और परमवीर सिंह पुलिस कमिश्नर के बारे में निजी तौर पर टिप्पणियां नहीं की हैं ? अगर यह काऱण हो तो भी अन्वय नाइक के बकाया बिलों के भुगतान की बात की जानी चाहिये। यहीं यह सवाल भी उठता है की, क्या अर्नब की ही तरह कोई अन्य न्यूज चैनल का एंकर, इतनी ही बदतमीजी, गुंडई और अभिनय के साथ, यह कहता कि," कहाँ हो मोदी, कहाँ हो शाह, सामने क्यों नहीं आते। हिम्मत है तो सामने आओ .." आदि आदि, तो क्या अर्नब के खिलाफ अब तक मुकदमा दर्ज नहीं हो जाता ? यक़ीन मानिये, मुकदमा तो दर्ज हो ही जाता, आयकर और ईडी के लोग अब तक धमक पड़ते। 

अर्नब के पत्रकारिता का यह बदतमीजी भरा  ललकार भाव, पत्रकारिता की स्वतंत्रता नही, बल्कि उद्दंड और सस्ती दादागिरी टाइप  पत्रकारिता का प्रदर्शन है। ऐसी शब्दावली पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर अधीनस्थ न्यायालयों ने भी आपत्ति जताई है। सीजेआई जस्टिस बोबडे ने जो कहा है उसे पढिये। सीजेआई जस्टिस बोबडे ने वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे को जो अर्नब गोस्वामी की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में खड़े थे से कहा,
"आप रिपोर्टिंग के साथ थोड़े पुराने जमाने के हो सकते हैं। सच कहूं तो मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। यह हमारे सार्वजनिक प्रवचन का स्तर नहीं रहा है।"
सुप्रीम कोर्ट, महाराष्ट्र राज्य द्वारा बॉम्बे उच्च न्यायालय के 30 जून के आदेश के खिलाफ रिपब्लिक टीवी के मुख्य संपादक, अर्नब गोस्वामी के खिलाफ जांच के लिए दायर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

वैसे अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी उद्धव ठाकरे या संजय राउत को ललकारने के आरोप में नहीं एक आत्महत्या के मामले में उकसाने के आरोप पर की गयी है। काम करा कर किसी मिस्त्री का पैसा दबा लेना, यह कौन सी पत्रकारिता है मित्रों ? पुलिस द्वारा की गयी गिरफ्तारी अगर विधिनुकूल नहीं है तो इस गिरफ्तारी को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। एक बात यह साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि, आप कितने भी ऊपर हों, कानून आप के ऊपर है। 

यह मीडिया की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर राज्य का अतिक्रमण है या पुलिस द्वारा किसी आपराधिक मुकदमे में तफतीश के दौरान की जाने वाली एक सामान्य प्रक्रिया, इस पर बहस चलती रहनी चाहिए। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया या पत्रकारों के संगठनो को अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाये रखने का पूरा अधिकार है और यह उनका दायित्व भी है। इन संगठनों को चाहिए कि केवल खबर छापने पर कितने पत्रकार सरकारों द्वारा प्रताड़ित किये गए है, इस का आंकड़ा भी जारी करे। आज अर्नब की गिरफ्तारी की वे भी निंदा कर रहे हैं जिनकी सरकार ने खबर छापने पर छोटे छोटे पत्रकारों को उत्पीड़ित किया है और उन्हें मुकदमे दर्ज कर जेल भेजा है। 

अर्नब ने यह खबर चलाई थी कि मुंबई पुलिस कमिश्नर के खिलाफ मुम्बई पुलिस में असंतोष है। पुलिस बल में असंतोष पैदा करने के सम्बंध में 1922 में ही सरकार ने यह कानून बना दिया था कि जो कोई भी जानबूझकर पुलिस बल में असंतोष फैलाने की कोशिश करेगा वह दंडित किया जाएगा। यह कानून, The Police ( Incitement to disaffaction ) act 1922 कहलाता है। इस कानून में महाराष्ट्र सरकार ने 1983 में संशोधन कर इसे और प्रभावी बनाया है। दोषी पाए जाने पर तीन साल की अधिकतम और 6 माह के कारावास की न्यूनतम सज़ा तथा अर्थदंड का प्राविधान है। अर्नब पर धारा 3 पुलिस ( असंतोष को भड़काना ) अधिनियम 1922 ( महाराष्ट्र का संशोधन 1983 ) के अंतर्गत भी मुकदमा दर्ज है। अभी इस मुकदमे की तफ्तीश चल रही है। पुलिस या किसी भी सुरक्षा बल, सेना सहित सभी बलो में असंतोष को कोई भी सरकार बेहद गम्भीरता से लेती है क्योंकि इसके दूरगामी परिणाम होते हैं। 

अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर गृहमंत्री अमित शाह सहित कुछ और मंत्री तथा भाजपा के नेता अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त रहे हैं। अमित शाह का लम्बे समय बाद बोलना अच्छा लगा। वे स्वस्थ हैं यह जानकर और अच्छा लगा। सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावेडकर ने इस गिरफ्तारी को इमरजेंसी कहा है। अब यह नही पता कि राज्य सरकार को इमरजेंसी लगाने का अधिकार कब मिल गया। मैं गृहमंत्री अमित शाह से यह भी अनुरोध करूँगा कि वे देशभर की सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित राज्यों से यह सूचना मंगवाए कि उनके राज्यों में कितने पत्रकारो के खिलाफ राज्य सरकार ने मुकदमे दर्ज किए हैं और किन मामलो में  कितने पत्रकार जेलों में हैं। यह सूचना सार्वजनिक की जानी चाहिए। 

सीबीआई जज लोया की संदिग्ध मृत्यु की जांच न हो सके, इसके लिये महाराष्ट्र और केंद सरकार ने सारी ताक़त लगा ली तब उन्हें इमरजेंसी याद नहीं आयी, और आज जब अर्नब गोस्वामी एक आपराधिक मुकदमे गिरफ्तार किया गया है तो पूरी भारत सरकार खड़बड़ा गयी है। किसी भी व्यक्ति के खिलाफ अगर अभियोग है, अपराध का सन्देह है तो उसकी जांच होनी ही चाहिए। यही अमित शाह है, जिनको जज लोया की संदिग्ध मृत्यु के बाद जो जज पीठासीन हुए, ने बरी कर दिया और सीबीआई ने उक्त मुकदमे में हाईकोर्ट में अपील तक नहीं की, जो एक सामान्य न्यायिक प्रक्रिया है। 

भाजपा अर्नब गोस्वामी के साथ आज खुल कर आ गयी है। गृहमंत्री सहित कई मंत्री खुल कर अर्नब के पक्ष में बयान दे रहे है। अर्नब और भाजपा में जो वैचारिक एकता है, उसे देखते हुए भाजपा के इस रवैये पर किसी को आश्चर्य नही होना चाहिए। अर्नब की पत्रकारिता सरकार और सत्तारूढ़ दल की पक्षधर होती है। यह कोई आपत्तिजनक बात नही है। पक्ष चुनने का अधिकार अर्नब को भी उतना ही है जितना मुझे या किसी अन्य को। अर्नब ने उनके लिये इतनी चीख पुकार मचाई और एजेंडे तय किये हैं तो, उनका भी यह फ़र्ज़ बनता है कि वे अर्नब के पक्ष में खड़े हों। और वे खड़े हैं भी ।

लेकिन आश्चर्य यह है कि नैतिकता और चारित्रिक शुचिता को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखने वाले भाजपा के मित्र आखिर किस मजबूरी में, कठुआ रेप कांड से लेकर, शंभु रैगर, आसाराम, हाथरस गैंगरेप, बलिया के हालिया हत्याकांड सहित अन्य बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमे वे अभियुक्तों के साथ, पूरी गर्मजोशी से खुल कर उनके समर्थन में आ जाते हैं ? राष्ट्रवादी होने और हिंदुत्व की ध्वजा फहराने के लिये यह ज़रूरी तो नहीं कि जघन्य अपराधों के अभियुक्तों के साथ उनके समर्थन में बेशर्मी से एकजुटता दिखाई जाय ? आज अगर वे, पत्रकारिता की आड़ में, अन्वय नायक का  पैसा दबाने वाले अर्नब के पक्ष में खड़े हैं तो आश्चर्य किस बात का है ? यह उनका चाल, चरित्र और चेहरा है और यही पार्टी विद अ डिफरेंस का दर्शन ! 

भाजपा अगर अर्नब के पक्ष में लामबंद है तो यह राह चुनने का उसका अपना निर्णय है, इस पर मुझे कोई टिप्पणी नहीं करनी है। लेकिन इस सारे शोर शराबे में वह असल मुद्दा गुम है जो अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का मूल काऱण है। यह मुद्दा है, अन्वय नायक जो एक इंटीरियर डिजाइनर थे, को उनके बकाया पैसे मिले या नही। अन्वय नाइक ने अर्नब के स्टूडियो की इंटिरियर डिजाइनिंग की थी और उनका अच्छा खासा पैसा बकाया था और अब भी है। अगर अर्नब ने सभी बकाया पैसे का भुगतान उक्त अर्चिटेक्ट को कर दिया है और इसके सुबूत अर्नब के पास हैं, तब तो सुसाइड नोट पर सन्देह उपजता है और अर्नब के गिरफ्तारी की कोई ज़रूरत फिलहाल नहीं थी। लेकिन अभी पूरा पैसा अर्नब ने नहीं दिया है तब, सुसाइड नोट का महत्व बढ़ जाता है और आत्महत्या का मोटिव स्पष्ट हो जाता है। 

अब यह सवाल उठता है कि, पैसा दिलाने का अधिकार पुलिस को कानून की किस धारा में है ? इसका उत्तर है पुलिस के पास क़ानूनन ऐसी शक्तियां बहुत ही कम हैं कि वह किसी का डूबा हुआ पैसा वसूल या निकलवा सके । लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि अक्सर थानों में ऐसी शिकायतें आती रहती हैं कि किसी ने काम करा कर पैसा दबा लिया या किसी ने काम करा कर एक ढेला भी नही दिया। आज जब मैं सेवानिवृत्त हो चुका हूं, तब भी अक्सर जान पहचान वालो के इस आशय के फोन आते हैं और इसकी सिफारिश में यह जानते हुए भी कि, पुलिस के पास विकल्प बहुत ही कम है, मैं अक्सर थानों में फोन कर देता हूँ। कभी किसी के डूबे धन का कुछ अंश मिल जाता है तो कभी पूरा धन ही डूब जाता है। 

पैसे दबा लेने और ले कर मुकर जाने की शिकायते सिविल प्रकृति की मानी जाती हैं और यह दो व्यक्तियों के बीच की आपसी समझ या कॉन्ट्रैक्ट या लेनदारी देनदारी मानी जाती है, जिंसमे हस्तक्षेप करने की पुलिस के पास कोई वैधानिक शक्ति नही होती है, इसलिए पुलिस ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करने से बचती है। पर जब कहीं से सिफारिश आती है या दबाव पड़ता है तो दोनो पक्षो को बुला कर उन्हें समझा बुझा या हड़का कर मामले को सुलझाने की कोशिश की जाती है। कभी कभी मामले सुलझ जाते हैं तो कभी कभी मामले बिना तय हुए ही रह जाते हैं। कानून में धारा 406 आइपीसी, अमानत में खयानत का एक प्राविधान ज़रूर है, पर वह बेहद कमजोर है। अतः इस मामले में समझौता कराने की सारी प्रक्रिया कानूनन कम, बल्कि व्यवहारतः ही हल की जाती है। 

अब इस मामले में, पत्रकारिता के तमाम नैतिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बहस तो हो रही है पर इस पर कोई बात नहीं कर रहा है कि अन्वय नाइक के बिल का भुगतान हुआ था या नहीं ? आत्महत्या का मोटिव ही यह है कि अन्वय नाइक को तमाम तकादे के बाद भी पैसा नहीं मिला, और जिसकी इतनी बड़ी रकम डूब रही होगी वह या तो रक़म हड़पने वाले की जान ले लेगा या अपनी जान दे देगा। यहां उसने अपनी जान दे दी और जो सुसाइड नोट उसने छोड़ा, उसमे अर्नब पर देनदारी की बात लिखी है। अब यह अर्नब के ऊपर है कि वह यह साबित करें कि उनपर देनदारी का इल्जाम गलत है और वे उक्त आर्किटेक्ट का पूरा भुगतान कर चुके हैं। 

अब यह कहा जा रहा है कि 2018 में पुलिस ने इस केस में फाइनल रिपोर्ट लगा दी थी। हो सकता है तब सुबूत न मिले हों या सुबूतों को ढूंढा ही नहीं गया हो, या सुबूतों की अनदेखी कर दी गयी हो, या हर हालत में अर्नब गोस्वामी के पक्ष में ही इस मुकदमे को खत्म करने का कोई दबाव रहा हो। महत्वपूर्ण लोगो से जुडे मामलो मे, समय, परिस्थितियों और उनके संपर्को के अनुसार, मामले को निपटाने का दबाव पुलिस पर पड़ता रहता है और यह असामान्य भी नही है। 

अर्नब एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं ही, इसमे तो कोई सन्देह नही है। आज उनकी गिरफ्तारी को लेकर गृहमंत्री से लेकर अन्य मंत्रियों सहित तमाम भाजपा के नेता लामबंद हो गए हैं, तो क्या कल जब  महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार थी तो, सरकार का दबाव, पुलिस पर, अर्नब के पक्ष में, मुकदमा निपटाने और फाइनल रिपोर्ट लगाने के लिये नहीं पड़ा होगा ? जो देवेंद्र फडणवीस आज अर्नब के पक्ष में खड़े हैं, धड़ाधड़ ट्वीट कर रहे हैं, क्या  जब वे मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने इस मामले में रुचि नहीं ली होगी ? इसे समझना कोई रॉकेट विज्ञान नही है। 

अब यह सवाल उठ रहा है कि फाइनल रिपोर्ट की स्वीकृति के बाद सीआइडी को दुबारा तफतीश करने का अधिकार नही है। इस पर अर्नब के वकील का कहना है कि अनुमति नही ली गयी जब कि सरकारी वकील का कहना है कि सारी कार्यवाही विधिनुकूल की गयी है। यह मुकदमा हाईकोर्ट में गया है, जिसकी सुनवायी कल दोपहर के बाद होगी। क्या होता है यह तो कल ही बताया जा सकेगा। लेकिन एक बात मैं महसूस कर रहा हूँ अन्वय नाइक जिनकी एक बडी रक़म फंसी है और जो उनकी मृत्यु का कारण बनी, के हिसाब किताब को साफ करने की कोई बात नहीं हो रही है और बहस पत्रकारिता के मूल्यों पर हो रही है जिसके मापदंड सबके अलग अलग हैं। 

अन्वय नाइक के परिवार को उनका डूबा धन मिलना चाहिये। अर्नब गोस्वामी का यह मामला, न तो पत्रकारिता के मूल्यों से जुड़ा है और न ही अभिव्यक्ति की आज़ादी का है। यह मामला, काम कराकर, किसी का पैसा दबा लेने से जुड़ा है। यह दबंगई और अपनी हैसियत के दुरुपयोग का मामला है। जब आदमी सत्ता से जुड़ जाता है तो वह अक्सर बेअन्दाज़ भी हो जाता है, और यह बेअंदाज़ी, एक प्रकार की कमजरफियत भी होती है। हमने नौकरी में ऐसी बेअंदाज़ी और बेअंदाज़ी का नशा उतरते देखा भी है। अर्नब भी सत्ता के इसी हनक के शिकार थे। ऐसे बेअंदाज़ लोग, यह सोच भी नहीं पाते कि धरती घूमती रहती है और सूरज डूबता भी है। वे अपने और अपने सरपरस्तों के आभा मंडल में इतने इतराये रहते हैं कि उनकी आंखे चुंधिया सी जाती है और रोशनी के पार जो अंधकार है, उसे देख भी नहीं पाती हैं। 

जो लोग अर्नब के पक्ष में खड़े हैं, वे अर्नब गोस्वामी से कहें कि जो भी लेनदेन उनका अन्वय नाइक के परिवार से है उसे वे साफ करें। अगर अन्वय का सुसाइड नोट झूठ है तो इसे तो अब अर्नब को ही स्पष्ट करना होगा। अगर अर्नब यह कहते हैं कि उन्होंने बिल का भुगतान किया है तो उसके दस्तावेज तो उनके पास होंगे ही। टीवी पर बैठ कर कहां हो उद्धव, सामने आओ, दो दो हांथ करूँगा, कहाँ हो परमवीर। महाराष्ट्र पुलिस में लोग कमिश्नर से नाराज़ है, जैसे प्रलाप औऱ कुछ भले हो, पर यह पत्रकारिता तो कहीं से भी ही है। अभी तो पुलिस बल में जानबूझकर असंतोष की अफवाह फैलाने का एक मुकदमा और दर्ज है इन पर। वह इससे अधिक गम्भीर है। उस पर भी कार्यवाही होनी चाहिये। 

( विजय शंकर सिंह ) 


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