Thursday 26 November 2020

शब्दवेध (28) भाषा का विकास और परिवेश

पहले  यह निवेदन कर आए हैं भाषा के विकास में  जल की भूमिका सबसे प्रधान है।    यह  अधूरा कथन है।   पूरा सच यह है  कि   जल से  कम भूमिका  वायु की नहीं है।    यह प्राकृतिक परिवेश पर निर्भर करता है। जिन  भूभागों में  वर्षा नहीं होती  अथवा  नाम मात्र होती है  नैसर्गिक ध्वनियों का परिवेश  जल की विविध  क्रियाओं  से उत्पन्न नाद की भूमिका  नगण्य होगी, वहाँ तो वायु की  विविध गतियों से उत्पन्न ध्वनियों का  बाहुल्य होगा  और इसके विपरीत  जहां केवल हिमपात होगा वहां हिम  और वायु की विविध गतियों से गिरने या प्रवाहित होने से  उत्पन्न ध्वनियों की  भूमिका प्रधान होगी। 

इसलिए जब हम  जल को   वाणी की जन्मस्थली ( (मम योनिः अस्ति अन्तः समुद्रे) की बात करते हैं तो यह केवल उन्हीं बोलियों और भाषाओं पर लागू होता है जिनका उद्भव और विकास  आर्द्रता बहुल  भूभाग में हुआ है।

बोली के लिए प्रयोग में आने वाले  ऐसे शब्दों की कमी नहीं है जो  जल की क्रियाओं से उत्पन्न ध्वनि के अनुकरण पर निर्भर हैं।  बदबदाना,  बुदबुदाना,  भदभदाना उबलते हुए पानी, या तरल खाद्य के उबलने से अधिक स्पष्ट रूप में सुना जाता है, और अस्फुट ओष्ठ चालन से उत्पन्न ध्वनि से इसका काल्पनिक साम्य मान कर अस्पष्ट भाषण और फिर स्पष्ट कथन - वदति (1. बजता है, (>वाद्य यंत्र), 2. कहता है, (वाद, वादी, विवाद, संवाद), वंदति (गाते या बजाते हुए कीर्तिगान, स्तुति) , वदंत/ वदन्ती  > भदंत, भंते)। इसकी तुलना बंध> से करने पर हम पाते हैं कि पहली शृंखला इसकी तुलना मे कमजोर है और इसलिए त्याज्य हो सकती है, परन्तु भाषा में अनेक वार दो शब्दोंं के उच्चारण की समीपता के कारण अर्थ की छाया भी क्रियाशील होती है, इसका भी ध्यान रखना होगा । 

खौलना, क्षोभ, भो. खभिलाना - आकुल होकर शोक  निवेदन या एकान्त आत्मविलाप का पारस्परिक संबंध अधिक स्पष्ट है। परंतु ऐसे दुखी व्यक्ति के प्रति स्नेह प्रदर्शन के लिए छोहाइल (छोहाना) के पीछे शोभन+खभिलाना की साझी भूमिका हो सकती है। 

ओटो श्रेडर (Otto Schrader 1883, [Language comparison and ancient history. Linguistic-historical contributions to the investigation of Indo-European antiquity.] (1st ed. Jena: Costenoble), ने पहली बार उस परिवेश का निर्धारण करने से लिए विविध भारोपीय भाषाओं की सांस्कृतिक शब्दावली का संग्रह किया था और उसमें वह जिन निष्कर्षों पर पहुँचे थे उनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं :
● मूल निवास में साल के कुछ महीनों में बहुत अधिक बरसात होती थी;
साल के कुछ महीनों में प्रचंड गर्मी पड़ती थी;
● वे नौचालन से पूरी तरह परिचित थे;
● वे करघे से सूती (लिनन) और ऊनी वस्त्र बुनना जानते थे। 
● ऊनी वस्त्र करघे से नहीं गूँथ और कूट कर बनाते थे।
हम उनके द्वारा गिनाई गई दूसरी विशेषताओं को छोड़ सकते हैं परन्तु पूरे भारोपीय क्षेत्र में भारत को छोड़ कर दूसरा कोई भूभाग नहीं था जो इन अपेक्षाओं की पूर्ति कर सके।  इसके बाद भी उन्होंने संभावित क्षेत्र बाल्टिक प्रदेश को माना क्योंकि जर्मन विद्वान कितना भी बड़ा धुरन्धर हो वह जर्मन पूर्वाग्रहों से बाहर निकल ही नहीं सकता था।

हम यहाँ मूल-निवास की चर्चा नहीं कर रहे हैं।  उसका समाधान हो चुका है।  इसकी याद इस लिए आई कि प्राणघाती लू और तृषार्तता का भी हमारी शब्द रचना में प्रभावी भूमिका है, इसकी अनद्खी नहीं की जानी  चाहिए।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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