Thursday 29 August 2019

टॉलस्टॉय के उपन्यास, युद्ध और शांति के संदर्भ में, पढ़ने लिखने का अधिकार / विजय शंकर सिंह

टॉलस्टॉय द्वारा लिखा उपन्यास, युद्ध और शांति  एक कालजयी उपन्यास है। क्लासिक कहा जाता है इसे। लगता है, रूस के जारशाही के दौरान नेपोलियन के रूसी आक्रमण की पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस महान उपन्यास का अब रखना जुर्म हो गया है। भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने असली मुल्ज़िम को छोड़ कुछ बुद्धिजीवी लोगों को नक्सल कर कर पकड़ा है और उन पर मुक़दमा चल रहा है। उसी में एक व्यक्ति हैं वर्नन गोंजावेल्स। उनके पास कुछ पुस्तकें मिली हैं जिनमे लियो टॉलस्टॉय की लिखी पुस्तक वॉर एंड पीस और द मार्क्सिस्ट आर्काइव्स है। विद्वान जज, ( इन्हें विद्वान कहना एक कोर्टरूम औपचारिकता है ) ने कहा कि यह किताब तो युद्ध की बात करती है और यह दूसरे देशों के युद्ध के बारे में है यह क्यो आप ने अपने पुस्तकालय में रखा है ? अब गोंजावेल्स क्या जवाब देते, या क्या जवाब दिया यह पता नहीं।

गोंजावेल्स को पुणे पुलिस द्वारा अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था। इसी अपराध की विवेचना के दौरान उनके घर, कार्यालय और अन्य ठिकानों पर छापा और तलाशी ली गयी। पुलिस का कहना है कि 31 दिसंबर 2017 को इन्होंने हिंसा भड़काने वाले भाषण दिये और लोगों को उत्तेजित किया। उनके इस भाषण से, भीमा कोरेगांव में हिंसक घटना भड़की जिससे एक व्यक्ति की मृत्यु हुयी और कई घायल हुए। यह घटना भीमा कोरेगांव के युद्ध के 200 वी जयंती पर मनाए जा रहे समारोह के दौरान घटी थी। 200 साल पहले हुये अंग्रेजों और मराठों के युद्ध मे दलित महार समाज ने मराठों के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ दिया था, जिसमे अंग्रेज विजयी हुए थे। इस युद्ध को महार समाज अपने गौरव से जोड़ कर देखता है।

युद्ध और शांति उपन्यास हममें से बहुतों ने पढ़ा होगा। टॉलस्टॉय एक उपन्यासकार ही नहीं थे, बल्कि वे दार्शनिक दृष्टि सम्पन्न लेखक थे। उन्होंने यही एक उपन्यास नहीं, बल्कि अन्ना कैरेनिना, रिजरेक्शन, अपनी आत्मकथा पर आधारित उपन्यास, और विपुल लेख तथा कहानियां लिखी हैं। दुनिया की शायद ही कोई भाषा ऐसी हो जिसमें उनके उपन्यास और कहानियो का अनुवाद न हुआ हो। दुनियाभर के विचारकों पर उनका प्रभाव पड़ा है। यही नहीं दुनियाभर का बौद्ध साहित्य, भारत से ही जगह जगह गया है।

यह सवाल एक मौलिक प्रश्न उठाता है कि हम क्या पढें, यह भी अब राज्य तय करेगा ? यह सवाल न केवल संविधान की भावना के विरुद्ध है बल्कि यह एक प्रकार का पढ़ने लिखने की आज़ादी पर राज्य का अतिक्रमण है। यह भी कहा जा सकता है कि इस सवाल को गंभीरता से लेने की ज़रूरत नही है यह एक सामान्य कोर्ट रूम की पूछताछ है। पर यह पूछताछ अदालत में हुयी है और पूछने वाला पीठासीन अधिकारी, संविधान के प्रविधान ने परिचित ही नहीं बल्कि उसके विद्यार्थी रहे हैं। भीमा कोरेगांव के मामले में जिन्हें अर्बन नक्सल कहा जा रहा है, उन्हें अर्बन नक्सल साबित करने के लिये पुलिस और अभियोजन ने इन किताबो के रखने और पढ़ने को इस अपराध के सुबूत के रूप में अदालत में पेश किया है।

गोंजावेल्स को पुणे पुलिस द्वारा अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था। इसी अपराध की विवेचना के दौरान उनके घर, कार्यालय और अन्य ठिकानों पर छापा और तलाशी ली गयी। पुलिस का कहना है कि 31 दिसंबर 2017 को इन्होंने हिंसा भड़काने वाले भाषण दिये और लोगों को उत्तेजित किया। उनके इस भाषण से, भीमा कोरेगांव में हिंसक घटना भड़की जिससे एक व्यक्ति की मृत्यु हुयी और कई घायल हुए। यह घटना भीमा कोरेगांव के युद्ध के 200 वी जयंती पर मनाए जा रहे समारोह के दौरान घटी थी। 200 साल पहले हुये अंग्रेजों और मराठों के युद्ध मे दलित महार समाज ने मराठों के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ दिया था, जिसमे अंग्रेज विजयी हुए थे। इस युद्ध को महार समाज अपने गौरव से जोड़ कर देखता है।

आज भी मेरी अलमारी में वे सारी पुस्तकें पड़ी हैं जो जज साहब के इस सवाल के आलोक में आपत्तिजनक घोषित की जा सकती हैं। मार्क्स, लेनिन, माओ की जीवनी, गोर्की, चेखब, टॉलस्टॉय, काफ्का, लू सुन, आइंस्टीन, आदि की पुस्तकें हैं। अधिकांश पढ़ी हुयी हैं, और कुछ अभी वैसे ही बिना पढ़ी हुयी हैं। लिखना पढ़ना भी खान पान की तरह होता है। जो जिसे रुचता और पचता है वही पढ़ना चाहता है। हम सब जिस पीढ़ी के हैं अपने विद्यार्थी जीवन मे अक्सर कोर्स के बाहर की चीजें अधिक पढा करते थे। तब अंक प्राप्त करने का इतना दबाव हम पर न तो घर परिवार का था न ही स्कूल कॉलेज का। हमारे शिक्षक बाहरी पुस्तकों को पढ़ने पर नाराज़ नहीं होते थे।यह मैं अपनी ही बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि मेरी आयुसीमा के सभी की यह एक समान आदत थी। पढ़ना लिखना बहस करना एक आम बात थी।

मैंने इस लेख में विदेशी लेखकों का ही उल्लेख किया है, इससे यह आशय न निकाला जाय कि भारतीय लेखक या वांग्मय पश्विम की तुलना में हेय है या कमतर है। चूंकि, संदर्भ, एक विदेशी उपन्यास, युद्ध और शांति का है तो, उनका उल्लेख अधिक है। मैं 1835 ई में कहे गए लॉर्ड मैकाले की इस बात से सहमत नहीं हूं कि पश्चिम के लेखन और साहित्य की तुलना में भारतीय वांग्मय, एक आलमारी में समा सकता है। जब मैं भारतीय साहित्य की बात करता हूँ तो उसमें केवल वैदिक साहित्य ही नहीं आता बल्कि जैन, बौध्द, और सभी साहित्य आते हैं। हमारे यहां यह सभी साहित्य कहे जाते हैं इन्हें धर्मग्रंथ का मुलम्मा बाद में चढ़ाया गया है।

दुनियाभर का लेखन एक दूसरे देश के लेखन को प्रभावित करता है। साहित्य कला और बौद्धिक व्यापार को कभी कभी किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है। वह नदी, सागर पर्वत आदि की भौगोलिक सीमा से अलग एक प्रवित्ति है। टॉलस्टॉय ने गांधी को प्रभावित किया तो नरसी मेहता के वैष्णव जन के बिना गांधी की कोई संध्या नहीं बीतती थी। गोर्की ने प्रेमचंद को प्रभावित किया तो टैगोर की गीतांजलि से यीट्स इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद ही कर दिया जिसपर टैगोर को नोबल पुरस्कार मिला। ज्यां पॉल सात्र और सिमोन द बेउआ ने आधुनिक सोच की धारा ही बदल दी। पूरी दुनिया मे इन युगल की सोच का असर पड़ा। साहित्य परिमार्जित करता है न कि किसी अंधे खोह में ठेल देता है।

पर आज युद्ध और शांति पर यह सवाल उठा है। मार्क्सवादी साहित्य पर उठा है। कल यही सवाल भगत सिंह पर उठेगा। सुभाष पर उठेगा। गांधी पर तो वे उठा ही रहे हैं। नेहरू तो कठघरे में रोज ही दिखते हैं। टैगोर की कहानियों और उपन्यास से उर्दू शब्द निकालते की वकालत संघ के प्रिय इतिहासकार दीनानाथ बत्रा कर ही चुके हैं। दक्षिणपंथ को अपना बौद्धिक दारिद्र्य का ज्ञान है। वह जब उन तर्को का जवाब नहीं दे पाता तो तर्क के अधिकार को ही बाधित करना चाहता है। और यही हो रहा है।

मैं यह बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि आप सब इस उपन्यास को ज़रूर पढिये। बस मैं यह कह रहा हूँ कि जो मन हो, रुचि हो, समझ हो, बुद्धि हो, विवेक हो वह पढें। बच्चों को ज़रूर पढ़ने की आदत डालने के लिये प्रेरित करें। यह उन्हें समाज मे एक हीनभावना से दूर रखेगा। उन्हें प्रबुद्ध बनाएगा। नेट और मोबाइल ने पढ़ने की आदत कम नहीं की है बल्कि इसने स्वरूचि अध्ययन के लिये एक असीम संभावना भी उपलब्ध कराया है। अब यह हम पर है कि हम स्तरीय साहित्य पढ़ते हैं या व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी का ज्ञान।

सदन में अगर आप पोर्न देखेंगे तो उपमुख्यमंत्री बनेंगे पर टॉलस्टॉय, गोर्की, मार्क्स, लेनिन, माओ पढ़ेंगे तो अर्बन नक्सल कह कर जेल भेज दिये जायेंगे और अदालत में इस सवाल का सामना करेंगे कि आप ने इन किताबों को रखा क्यों है ? अभी तो इन्हीं पर प्रतिबंध है। धीरे धीरे यह अंधेरा और बढ़ेगा, छायेगा चारों तरफ। फिर इसकी जद में गांधी आएंगे, नेहरू तो आ ही चुके हैं, प्रेमचंद को पहले अपने गिरोह में खींचने की कोशिश की जाएगी, फिर जब वे गले मे फंस जाएंगे तो उन्हें भी वर्जित घोषित किया जाएगा।

धीरे धीरे जो शेष बचेगा, वह होगा, केवल पाखंड पूर्ण धूर्तता से भरा पड़ा श्रेष्ठतावाद की पिनक में डूबा, पौरोहित्यवाद। सन्देश स्पष्ट है। आप के विचारों की धार को देशद्रोही कह कर के कुंठित किया जाएगा। आप को इन भावनाओ में बहकाया और घेरा जाएगा। पर यह सब बुद्ध के मार की तरह से हैं। अंततः मार मरता ही है, क्योंकि वह जड़ बनाता है। जड़ता ख़ुद ही मृत्यु है। स्थिरचेता हो इस पाखंड भरे कंटक  वल्लरी से बाहर आईए। 

तमसो मा ज्योतिगमय !!


© विजय शंकर सिंह

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