Monday 19 August 2019

कानून - आस्था और विश्वास के बीच अदालत में राम / विजय शंकर सिंह / विजय शंकर सिंह

5 अगस्त 2019 से सुप्रीम कोर्ट, अयोध्या स्थित राममंदिर विवादित भूमि मामले की नियमित सुनवायी कर रहा है। यह सुनवायी इस मामले में अदालत द्वारा मध्यस्थता का अवसर दिये जाने और उसका कोई नतीजा न निकलने के बाद,  दिन प्रतिदिन के हिसाब से रोज़ हो रही है। अब तक कुल आठ दिवसों की सुनवायी हो चुकी है। अखबारों के विधि संवाददाता इस कार्यवाही को छाप भी रहे हैं और सोशल मीडिया में भी इस मुकदमे को लेकर उत्कंठा बनी हुयी  है। वैसे तो लोग इस विवाद को 1528 ई से शुरू हुआ बताते हैं, पर वर्तमान मुक़दमेबाज़ी का इतिहास 1949 में एक वीरान पड़ी हुयी इमारत में राम के बालरूप की एक छोटी सी प्रतिमा रख देने के बाद शुरू हुआ है। इस घटना को निर्मोही अखाड़ा और अन्य हिंदू पक्ष राम का प्राकट्य बताते हैं। वे एक मुस्लिम हवलदार का बयान भी इस सम्बंध में प्रस्तुत करते हैं। पर सच क्या है यह तो राम ही जाने। राम भी कम लीला थोड़े ही करते हैं ! सिटी मजिस्ट्रेट फैज़ाबाद की अदालत से शुरू हुआ यह मुक़दमा, 2010 में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच से निर्णीत हुआ तब उस मुक़दमे की अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट में यह मामला पहुचा। अब जाकर 5 अगस्त से इस मुकदमे की सुनवाई दिन प्रतिदिन हो रही है, और उम्मीद है कि इस साल के अंत तक इस मुकदमे का फैसला आ जायेगा।

अभी सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमे के संबंध में केवल प्रारंभिक सुनवायी शुरू हुयी है। पर कुछ रोचक बातें भी इन आठ दिनों में हुयी है। इस मुकदमे में तीन पक्षकार हैं जिनके बीच हाईकोर्ट ने ज़मीन के तीन टुकड़े करके उनका स्वामित्व अलग अलग तीन पक्षों का माना है। जिसमें, एक सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड है, ,दूसरा पक्ष निर्मोही अखाड़ा है, और तीसरा पक्ष रामलला बिराजमान का है। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा तो पुराने प्रतिद्वंद्वी हैं और लंबे समय से अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं, पर रामलला बिराजमान बाद में विश्व हिंदू परिषद के नेता, जस्टिस लोढ़ा द्वारा अलग से एक पक्ष के रूप में अदालत में आये हैं। तीनो को एक एक तिहाई उक्त विवादित भूमि का अंश मिला है। रामलला और निर्मोही अखाड़ा को मिली दोनो की एक तिहाई भूमि को अगर आपस मे जोड़ कर मिला दें तो भी यह भाग विवादित भूमि का दो तिहाई ही होता है क्योंकि एक तिहाई भूखंड तो सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को भी मिला है। अब सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड उस भूखंड का क्या उपयोग करता है, मस्ज़िद बनाता है या उसे यूँही छोड़ देता है या यह भूमि भी वह मंदिर बनाने के लिये सदाशयता से निर्मोही अखाड़ा को दे देता है, यह सब अभी कयास की बातें हैं और यह परिस्थिति हाईकोर्ट के फैसले के बाद की थी। अब तो तीनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट में हैं और क्या होता है, यह बात अब अदालत के ऊपर है।

ऐसा नहीं है कि एक देवमूर्ति पहली बार किसी मुक़दमे में पक्षकार बनायी गयी हो। इसके उदाहरण पहले भी उपलब्ध हैं। यह बात तब उठी जब अदालत ने यह कहा कि क्या जीसस या मुहम्मद के बारे में भी कभी अदालत में उन्हें पक्षकार बनाकर बहस हुयी है ? मैंने इस विषय पर ढूंढा और मुझे कोई ऐसा सन्दर्भ नहीं मिला जिससे यह पता चलता हो कि जीसस या मुहम्मद को किसी मुक़दमे में पक्षकार बनाया गया हो। पर हिंदू धर्म मे देवता या विग्रह या मूर्ति की अलग अवधारणा है और वह अवधारणा जीसस और मुहम्मद से अलग है। न्यायशास्त्र के विद्वान जॉन विलियम सलमोंड का कहना है कि किसी भी न्यायिक व्यक्तित्व का अदालत में एक पक्ष के रूप में खड़े होना अन्यायिक नहीं है, अगर वह किसी न किसी सम्पत्ति का मालिक है तो। अदालत में वह सम्पत्ति का मालिक या उस संपत्ति को पाने वाला पक्षकार के रूप में न्यायिक तोष पाने के लिये खड़ा होता है।

एक हिंदू विग्रह के न्यायिक पक्षकार बनने के पीछे कानून के विद्वान गणपति अय्यर अलग तर्क देते हैं। वे हिंदू और इस्लाम धर्म
मे व्याप्त अंतर को भी स्पष्ट करते हैं। उनके अनुसार,
“ हिंदू विग्रह में निवास करने वाला देवता सभी व्यावहारिक दृष्टिकोण से एक जीवंत व्यक्ति है। वह विग्रह न केवल संपत्ति अपने पास अपने नाम रख सकता है बल्कि वह उस संपत्ति को बेच और खरीद भी सकता है जैसा कोई मनुष्य कर सकता है। "
इसी को दृष्टिगत रखते हुये अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने रामलला बिराजमान को विवादित और ध्वस्त किये गए भवन के केंद्रीय गुम्बद के नीचे जहां रामलला की पूजा होती थी, की भूमि उन्हें दी है। इस प्रकार हाईकोर्ट ने उनके न्यायिक अस्तित्व को मान लिया है।

अब कुछ मुकदमों का उल्लेख पढिये जिसमे अदालत ने इस विवाद को सुलझा दिया है कि कोई हिंदू विग्रह अदालत में पक्षकार बनाया जा सकता है या नहीं। 1922 ई में विद्यावारिधि तीर्थ स्वामींगल बनाम बालुस्वामी अय्यर का मुकदमा बहुत चर्चित हुआ था। इस मुकदमे में यही केंद्रीय प्रश्न उभर कर सामने आया था कि क्या हिंदू विग्रह या देव ( अंग्रेजी में इसे डेइटी शब्द प्रयुक्त किया गया है  ) की न्यायिक हैसियत है या नहीं ? इसके अतिरिक्त शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी अमृतसर बनाम घनश्याम दास का भी एक मुक़दमा 2000 ई में इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में चल चुका है। ऊपरोक्त मुक़दमों में भी अदालत ने यही सिद्धांत रखा कि हिंदू देव विग्रह अगर उनके नाम पर कोई संपत्ति है या उसकी खरीद फरोख्त, अधिग्रहण, दान आदि कि संपत्ति से जुड़ीं कार्यवाहियां होती हैं तो उक्त देव विग्रह को एक न्यायिक हैसियत उसी तरह से प्राप्त है जैसे किसी भी नागरिक को प्राप्त है। विधि विशेषज्ञों का कहना है कि अगर इन देव विग्रहों को अगर न्यायिक हैसियत का स्वरूप नहीं दिया जाएगा तो आगे चलकर उनसे जुड़ी संपत्तियों के संरक्षण, संवर्धन और कराधान संबंधी अन्य जटिलताएं उत्पन्न हो जाएंगी जिससे और नयी समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं, जिसका कानूनी निराकरण आसानी से संभव नहीं हो सकेगा।

इस प्रकार विभिन्न मुक़दमों में दिए गए फैसलों और रूलिंग से यह स्पष्ट है कि, एक देव विग्रह को पूरी तरह से कानूनी स्वरूप और हैसियत प्राप्त है और उन्हें अदालतों में एक पक्षकार बनाया जा सकता है। हिंदू धर्मशास्त्रों में भी देव विग्रहं का एक महत्वपूर्ण स्थान है। विग्रह की शास्त्रीय कर्मकांड के अनुसार प्राण प्रतिष्ठा की जाती है और मंगला आरती से लेकर भोग तथा शयन आरती आदिं की व्यवस्था वैसे ही की जाती है जैसे एक जीवित व्यक्ति की दिनचर्या होती है।

विग्रह के बारे में अदालतों का रुख स्पष्ट है कि वे उस निर्जीव मूर्ति या विग्रह को न्यायिक हस्ती नहीं मानते हैं, बल्कि उस विग्रह के प्रति जो जीवंत दृष्टिकोण जो उसके अनुयायियों द्वारा देखा जाता है को न्यायिक हस्ती मानते हैं । किसी देव विग्रह को जीवंत व्यक्ति के रुप मे अदालत द्वारा व्याख्यायित करके देखने का कारण है उस मंदिर या देवस्थान से जुड़ी सम्पत्तियों के सम्बंध में उठ रहे या उठे हुये कानूनी दावों को सुलझाना। हिंदू विधिशास्त्र  भी रोमन लॉ की तरह, अदृश्य को एक अस्तित्व की तरह मानता है। जैसे एक कॉर्पोरेशन या कम्पनी का अदालत के समक्ष अदृश्य होते हुये भी एक अस्तित्व है वैसे ही देव विग्रह को भी कानून की नज़र में वही स्थान प्राप्त है। कानून सभी देव विग्रह को अवयस्क मानता है । यह अवयस्कता या नाबालिगपना सतत रहता है। जैसे किसी नाबालिग की तरफ से अदालत में उसके संरक्षक द्वारा कोई वाद दायर किया जा सकता है, वैसे ही किसी भी देव विग्रह की तरफ से ऐसा वाद दायर किया जा सकता है। अवयस्कता की अवधारणा संभवतः इसलिए है कि अदालत किसी नाबालिग का मुक़दमा उसके संरक्षक के ही माध्यम से सुनती है, इसी प्रकार विग्रह खुद अपना पक्ष नहीं रख सकता तो उसकी तरफ से यह दायित्व उसके ट्रस्टी, पुजारी, महंत या एडवोकेट का होता है। अयोध्या प्रकरण में भी रामलला विराजमान की तरफ से पूर्व जस्टिस लोढ़ा ने यह बाद दायर कर रखा है। वे रामलला की तरफ से पक्षकार हैं।

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ एडवोकेट हर्षवीर प्रताप शर्मा ने इस संबंध में लिखे गए एक लेख में कहा है कि
“ भारतीय न्याय व्यवस्था में, कोई भी देव विग्रह अपने न्यासी या अपने स्थान के प्रभारी के माध्यम से किसी भी अदालत में अपना पक्ष दायर कर सकता है। "
सिविल प्रोसीजर कोड ऑर्डर 32 के अनुसार, एक देव विग्रह एक सतत अवयस्क है।

अक्सर एक सवाल उठता है कि क्या मंदिर के मुख्य देव विग्रह को सामान्य वादकारी की तरह ही वह सभी न्यायिक अधिकार और शक्तियां प्राप्त है, या नहीं। इस विंदु पर सभी विधि विशेषज्ञों की एक ही राय है कि हिंदू देव विग्रह को न्यायिक हैसियत प्राप्त है। 1983 में जब वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर में चोरी की घटना हो गयी थी तो सरकार ने इस मंदिर का अधिग्रहण कर लिया। तब उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बनाये गए श्री काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट 1983 के खिलाफ इस मंदिर के पूर्व महंत ने अदालत की शरण ली। सरकार का यह तर्क था कि मंदिर ट्रस्ट बनने से मंदिर के प्रबंधन और सुरक्षा में सुधार होगा। और यह कालांतर में हुआ भी। तब बाबा विश्वनाथ भी एक पक्षकार बनाये गए थे और सुप्रीम कोर्ट ने उनके न्यायिक अधिकार को मान्यता दी थी। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के अतिरिक्त कई राज्यों की हाईकोर्ट ने भी यह माना है कि देव विग्रह की एक न्यायिक हैसियत है और वह सतत अवयस्क है।

ऐसा ही एक मुक़दमा 1925 का कलकत्ता से सम्बंधित है। प्रमथनाथ मल्लिक बनाम प्रद्युम्न कुमार मल्लिक के एक मुक़दमे जो एक काली मंदिर से संबंधित था में, अदालत ने यह दृष्टिकोण दिया,
“ अदालत में सुनवायी के दौरान एक विंदु यह भी उठा है कि देव विग्रह की कानूनी हैसियत क्या है। लंबे समय से चली आ रही मूर्तिपूजा की सनातन परंपरा के अनुसार, एक विग्रह जीवंत व्यक्ति की तरह है और इसे वे सभी न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं जो किसी भी नागरिक को प्राप्त हैं। "
विधिशास्त्र में कॉरपोरेट व्यक्तित्व की भी एक अवधारणा है। यह अवधारणा इंग्लैंड के इस प्रसिद्ध कथन पर आधारित है कि, राजा मर गया, और राजा चिरंजीवी हों। राजा एक व्यक्ति के रूप में भले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाय, पर राजा का पद या राजा की संस्था या राजा का ताज या राज सिंहासन जो राजा का प्रतीक है वह राज्य के बने रहने तक शेष रहेगा। कॉरपोरेट व्यक्तित्व के पीछे भी यही अवधारणा है। उसके निदेशक, आदि आते जाते रहेंगे पर एक न्यायिक हैसियत के रूप में वह कॉरपोरेट अदालत में पक्षकार बन सकता है और बनता भी है।

कानून में लीगल परसन का अर्थ ज्यूरिस्टिक परसन है। एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास कानूनी अधिकार और दायित्व होते हैं, जैसे कि कम्पनियां होती हैं जिनके पास संपत्तियां होती हैं और वे उस सम्पत्ति का प्रबंधन अपने अफसरों द्वारा करतीं हैं और अदालतों में अपने मुक़दमों में पक्षकार बनती हैं। ठीक यही स्थिति और विधिशास्त्रीय दर्शन हिंदू देव् विग्रह के संदर्भ में भी है।

अदालत ने जीसस और मुहम्मद की जो बात की है उसके बारे में यह उल्लेखनीय है कि ईसाई धर्म मे चर्च की संपत्ति के लिये उनके विभिन्न संगठन होते हैं। कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट मेथोडिस्ट आदि विभिन्न शाखाओं के अपने अपने प्रबंधन होते हैं। इस्लाम मे मूर्तिपूजा का कोई स्थान ही नहीं है। इस्लाम मे न तो अल्लाह की और न ही मुहम्मद की कोई तस्वीर बनायी जा सकती है और न ही कोई मूर्ति। मस्ज़िद भी इस्लाम मे एक इबादतगाह है जहां लोग एकत्र होकर नमाज़ पढ़ते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल ही अपने एक निर्णय में यह स्पष्ट कर दिया है कि मस्ज़िद इस्लाम का मूल अंग नहीं है। वहां मस्ज़िद और इबादतगाह की संपत्ति की जिम्मेदारी वक़्फ़ बोर्ड की है। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड उसी के आधार पर इस मुक़दमे में एक पक्षकार है।

इसके विपरीत, हिंदू एक बहुदेववादी धर्म है। अलग अलग देवता, अलग अलग पूजा पद्धति, अलग अलग कर्मकांड और अलग अलग क्षेत्रीय, सामाजिक, ऐतिहासिक परिवेश के कारण हर देव विग्रह अपनी अलग और विशिष्ट स्थिति रखता है। मंदिरों और मठों के नाम हज़ारों एकड़ की कृषि भूमि, तथा अन्य संपत्तियां हैं। जिनके बारे में कभी भी कोई न कोई कानूनी विवाद उठता रहता ही है। यह सारी संपत्तियां भले ही इसका सुख इनके ट्रस्टी और महंत उठाएं पर ये उस मंदिर या मठ के मुख्य देव विग्रह के ही नाम होती हैं। इसीलिए अदालत ने हिन्दू देव विग्रह या देवता को अदालती भाषा मे एक न्यायिक हस्ती स्वीकार किया है।

यह मुक़दमा अभी चल रहा है। अभी तीनों पक्षों को अपने अपने ज़मीन के बारे में दस्तावेज प्रस्तुत करने होंगे। हालांकि निर्मोही अखाड़े ने अपने दस्तावेजों के बारे में यह कह दिया है कि उनके अभिलेख किसी डकैती की घटना में लूट लिये गये। अभी राम के आराध्य भाव, देवत्व पर बहस चल रही है, हालांकि यह कोई कानूनी मुद्दा ही नहीं है। कानूनी मुद्दा है, वह ज़मीन के मालिकाना हक के संबंध में है जिसे सुप्रीम कोर्ट पहले ही स्पष्ट कर चुका है।

आज राम को इस विवादित स्थिति में पहुंचाने का दोष किसका है जब कि अदालत उनके वंशजो तक की कैफियत और प्रमाण मांगने लगी है ? राम को एक षड्यंत्र की तरह, सिर्फ अपनी सत्ता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा के लिये किसने इस्तेमाल किया है और अब भी कौन कर रहा है ? राम इस सनातन संस्कृति के ऐसे नायक हैं जिनके विरुद्ध किसी ने भी कभी कुछ नहीं कहा। मुस्लिम साहित्यकारों ने खुल कर उनकी प्रशंसा में गीत लिखें। किसी ने उन्हें इमाम ए हिंद कहा तो फादर कामिल बुल्के जैसे विदेशी ईसाई विद्वान ने रामकथा पर एक कालजयी शोध ही कर डाला।

अदालत तो अदालत होती है। वह कानूनी पहलू ही देखती है, आस्था, विश्वास और राजनीति आदि नहीं। राम के संदर्भ में अदालत में कोई मुक़दमा नहीं चल रहा है। आस्था औऱ विश्वास पर कोई मुक़दमा और सवाल हो ही नहीं सकता है। जिसे है तो हैं नहीं है तो नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में 2010 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की एक अपील की सुनवाई चल रही है, जो  2.77 एकड़  विवादित भूखंड के मालिकाना हक के बारे में है ।  राम 2.77 एकड़ के ही दायरे में ही नहीं सिमटे हैं, वह सर्वव्यापी हैं और असीम हैं।

© विजय शंकर सिंह

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