Saturday 17 August 2019

क्या हम मानसिक रोगियों से भरे देश मे बदल रहे हैं / विजय शंकर सिंह

विश्व स्वास्थ्य संघटन की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत मे मानसिक रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और उसे थमने की अभी कोई खबर भी नहीं है। यह भी एक विडंबना है कि मनोरोग या मानसिक स्वास्थ्य के बारे में हमारी उदासीनता बहुत अधिक है। ऐसे रोगी अक्सर या तो परिहास में मनोरंजन के साधन के रूप में लिये जाते हैं या, पागल कह के उन्हें तुच्छता का एहसास कराते हुए दरकिनार कर दिया जाता है। इस अध्ययन में भारत के बाद चीन और अमेरिका का स्थान है। यह अध्ययन अवसाद के सूचकांक के आकलन के लिये किया गया था। भारत मे सबसे अधिक चिंता, अवसाद, शिजोफ्रेनिया और बाइपोलर डिसऑर्डर के मामले सामने आए हैं।

मनोविज्ञान में हमारे लिए असामान्य और अनुचित व्यवहारों को मनोविकार कहा जाता है। ये धीरे-धीरे बढ़ते जाते हैं। मनोविकारों के बहुत से कारक हैं, जिनमें आनुवांशिकता, कमजोर व्यक्तित्व, सहनशीलता का अभाव, बाल्यावस्था के अनुभव, तनावपूर्ण परिस्थितियां और इनका सामना करने की असामर्थ्य सम्मिलित हैं। वे स्थितियां, जिन्हें हल कर पाना एवं उनका सामना करना किसी व्यक्ति को मुश्किल लगता है, उन्हें 'तनाव के कारक' कहते हैं। तनाव किसी व्यक्ति पर ऐसी आवश्यकताओं व मांगों को थोप देता है जिसे पूरा करना वह अति दूभर और मुश्किल समझता है। इन मांगों को पूरा करने में लगातार असफलता मिलने पर व्यक्ति में मानसिक तनाव पैदा हो जाता है।

आज के समय में तनाव लोगों के लिए बहुत ही सामान्य अनुभव बन चुका है, जो कि अधिसंख्य दैहिक और मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं द्वारा व्यक्त होता है। तनाव की पारंपरिक परिभाषा दैहिक प्रतिक्रिया पर केंद्रित है। मनोवैज्ञानिक हैंस शैले  ने 'तनाव' (स्ट्रेस) शब्द को खोजा और इसकी परिभाषा शरीर की किसी भी आवश्यकता के आधार पर अनिश्चित प्रतिक्रिया के रूप में की। हैंस शैले की पारिभाषा का आधार दैहिक है और यह हारमोन्स की क्रियाओं को अधिक महत्व देती है, जो ऐड्रिनल और अन्य ग्रन्थियों द्वारा स्रवित होते हैं। यह विषय बहुत लंबा है और मैं इसके बारे में बहुत नहीं जानता तो इसे लंबा लिखने के तनाव से बचने के लिये उचित है कि इसे यहीं छोड़ दिया जाय !

अब हम अध्ययन पर आते हैं। इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि कम से कम 6.5 % देश की आबादी, मानसिक रुग्णता से ग्रस्त है। इसका एक कारण यह है देश की स्वास्थ्य सेवाओं में मानसिक स्वास्थ्य और चिकित्सकों की कमी है औऱ इस व्याधि के प्रति लोगों में जागरूकता का अभाव है। किसी भी सरकारी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज में यह विभाग उपेक्षित ही दिखेगा। इसका कारण इसके आसपास जिसे आम बोलचाल में पागलखाना कहते हैं के प्रति सामान्य जन का परिहास और मज़ाक़ का भाव भी होता है।

मानसिक रोगियों की चिकित्सा और सुश्रुषा में लगे लोगों के 2014 में प्राप्त एक आंकड़े के अनुसार, एक लाख की जनसंख्या पर केवल एक व्यक्ति जो इस रोग के उपचार से जुड़ा है, नियुक्त है। यह आंकड़ा सभी स्टाफ का है न कि केवल डॉक्टर का। डॉक्टर का आंकड़ा तो और भी कम होगा। भारत मे अब तक के आंकड़ों के अनुसार, कुल 5000 मनोचिकित्सक और 2000 मानसिक चिकित्सा केंद्र हैं।

2015 - 16 के एक राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, ( नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे - एनएमएचएस ) के अनुसार, भारत मे रहने वाले हर छठे व्यक्ति को कुछ न कुछ मानसिक उपचार की ज़रूरत है। इसमे भी चिंताजनक यह है कि किशोर या युवाओं में यह समस्या अधिक है। हालांकि सरकार ने मेंटल हेल्थकेयर बिल में राज्य सरकारों को यह विशेष जिम्मेदारी दी गयी है कि वह सबके लिये सुलभ मानसिक चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध कराएं। लेकिन इसका इलाज और अन्य संसाधन महंगे होते हैं और डॉक्टर भी कम उपलब्ध हैं, इसलिए यह बिल अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पा रहा है।

समाज मे मानसिक रोगों के प्रति उपेक्षा भाव ही है कि हम इस व्याधि से पीड़ित लोगों को क्रैक, खिसका हुआ आदि कह कर सम्बोधित करते हैं, जिसके कारण ऐसे रोगी और उनके घरवाले भी अक्सर इस रोग को छुपाते हैं और इनके प्रति खुलकर डॉक्टर को बताने और इलाज कराने में झिझकते हैं। धीरे धीरे यह व्याधि जब पागलपन के दौरे में तब्दील हो जाती है तो मरीज इतना गंभीर हो जाता है कि उसका इलाज कठिन, महंगा और समयसाध्य हो जाता है।

मानसिक रुग्णता में केवल बाइपोलर डिसऑर्डर, शिजोफ्रेनिया आदि ही नहीं आते हैं, बल्कि वे सभी मनोविकार जो असमान्य दिखते हैं वे भी आते हैं।अकेलापन, किसी के प्रति जबरदस्त इकतरफा लगाव, पजेसिवनेस, ज़िद, ज़िद को पूरा करने की हिंसक प्रवित्ति, अतिशय प्रेम और घृणा, आदि मन की असामान्य परिस्थितियां हैं जो शुरू में एक आदत जैसी दिखती है पर वह किसी न किसी मानसिक रुग्णता का प्रारंभ भी हो सकतीं है। यह सब परिस्थितिजन्य हो होता ही है अनुवांशिक भी होता है।

इन सब मनोविकारों का एक बड़ा कारण जीवन शैली और वे परिस्थितियां भी हैं जिनमे हम रहते हैं। आधुनिक जीवनशैली और भौतिकता से भरी सोच भी हमे इस रोग की गिरफ्त में लाने के लिये कम उत्तरदायी नहीं है। किशोरों में भविष्य में बेहतर जीवन पाने और ज़बरदस्त प्रतियोगिता के वातावरण ने उन्हें जो तनाव और कल क्या होगा कि अनिश्चितता का भाव दे दिया है इससे वे कम उम्र में ही अवसाद में आते जा रहे हैं। पढ़ाई लिखाई, सोच, संग साथ सब का सब कैरियर केंद्रित हो जाने से जीवन उसी कैरियर का पर्याय बनकर रह गया है। और अंतहीन शिखर तक जाता यह कैरियर प्रेम जीवन को काफी हद तक रसहीन भी बना जाता है।

युवाओं में इसी तनाव, अवसाद, और अनाभिव्यक्त तकलीफों के जमाव से जो अपशिष्ट मस्तिष्क में जमता जाता है वह कहीं न कहीं किसी न किसी मनोरोग को ही उपजाता है। हम सबको बेहतर जीवन चाहिये। अच्छा खाना पीना, पहनना ओढ़ना, मकान , नौकरी, अच्छा संग साथ, यह सब हम सब की सामान्य कामना का अंग है। इसे पाने के लिये हम सब अपने अपने दृष्टिकोण, क्षमता, योग्यता, अवसर और मेधा से प्रयास भी करते हैं। पर यह प्रयास इस जीवन की आपाधापी में इतना बोझ भी न बन जाये कि जब यह सब मिल जाय तो हम खुद को ही खो दे।

© विजय शंकर सिंह

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