Thursday 15 August 2019

स्वाधीनता संघर्ष की चार महान घटनाएं जिसने आज़ादी की राह प्रशस्त कर दी / विजय शंकर सिंह

अक्सर आप को ऐसे महानुभाव मिल जाएंगे जो यह कहते हुये नहीं थकते हैं, कि, गांधी जी के सत्य अहिंसा और बिना खड्ग और ढाल की टेकनीक से यह आज़ादी नहीं मिली है बल्कि भगत सिंह जैसे शहीदों के बलिदान से मिली है। मुझे उनके इस कथन और धारणा पर कोई आपत्ति नहीं है। पर यह कथन जब आज़ादी के संघर्ष में शून्य भूमिका वाले नेताओं के समर्थक लोग कहते हैं तो हंसी आती है। गांधी, भगतसिंह, सुभाष आदि का लक्ष्य एक ही था। कभी वीडी सावरकर और एमए जिन्ना का भी यही लक्ष्य था, पर आज़ादी के संघर्ष के अंतिम कालखंड में जिन्ना और सावरकर देश के नही अपने अपने धर्म के नेता हो गये। यह उन जैसी तार्किक प्रतिभा का अवमूल्यन था। दोनों ही अपने निजी जीवन मे वैज्ञानिक और तार्किक सोच के थे तथा धर्मांध बिलकुल नही थे, पर अंत मे उनके लिये देश की एकता, आज़ादी, अखंडता, साझी विरासत, आदि आदर्श जो कभी उनके मूल्य हुआ करते थे, 1940 ई के बाद उनके धर्म के समक्ष कुछ भी नहीं रहे। यह दारिद्र्य कैसे आया इस पर भी विचार किया जाना चाहिये।

स्वाधीनता संग्राम एक महायज्ञ था। हर व्यक्ति औऱ हर संगठन के लोग इस महायज्ञ में अपना अपना योगदान दे रहे थे। इसमे तिलक भी थे, तो गोखले भी। गांधी भी थे तो जिन्ना भी। सावरकर भी थे तो सुभाष बाबू भी। विदेशी धरती पर आज़ाद हिंद सरकार की स्थापना करने वाले राजा महेन्द प्रताप भी थे तो 1857 के लड़ाके, रानी झांसी, बाबू कुंवर सिंह, तात्या टोपे, नाना राव पेशवा, बेगम हजरत महल, बैसवारे के राजा राव बक्श सिंह जैसे अवध के ताल्लुकदार और अंतिम मुग़ल सम्राट, भले ही जिसकी हैसियत, अज दिल्ली ता पालम तक ही रह गयी हो, और जिसे अपने कूचे में दो ग़ज़ ज़मीन भी मयस्सर न हो पायी हो, वह बहादुर शाह जफर और कूटनीतिज्ञ वकील अजीमुल्ला खान भी थे। 90 साल की इस महागाथा का इतिहास इतना विविधितापूर्ण और इतना वृहद है कि उसे एक पैराग्राफ में समेटा नहीं जा सकता है।

यूं तो आज़ादी की लड़ाई का सफर गुलामी के बरअक्स बराबर ही चलता रहा। कहीं, संथालो का विद्रोह, तो कहीं मोपलों का, तो हो सकता है कुछ ऐसे विद्रोह भी हुये हों जो इतिहास में दर्ज ही न हो पाए हों, पर उत्तर भारत मे होने वाला 1857 का विप्लव सच मे सावरकर के शब्दों में देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम था। यह अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की गुलामी के खिलाफ सैनिकों, और उत्तर भारत के लार्ड डलहौजी के डॉक्टरीन ऑफ लैप्स जो ईस्ट इंडिया कम्पनी की हड़प नीति थी के खिलाफ एक आक्रोश और उससे मुक्त होने की हिंसक अभिव्यक्ति थी। इसका प्रतीकात्मक नेतृत्व अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर ने किया था और इस विप्लव की शुरुआत शहीद मंगल पांडे ने बैरकपुर, कोलकाता के पास एक सैनिक छावनी में । फिर तो नब्बे साल तक यह सिलसिला चलता रहा । आक्रोश का अंदाज़ा तो अंग्रेजों को था। 1857 में इटावा, उत्तर प्रदेश के कलेक्टर एओ ह्यूम ने इस आक्रोश को अपने कार्यकाल में देखा और महसूस किया था। तभी उसने उस आक्रोश को निकलने के लिये सेफ्टी वॉल्व थियरी पर 1885 में उसने इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना की। पर उसे यह अंदाजा नहीं था कि 1902 में हुये बंग भंग आंदोलन में भारतीय आक्रोश का एक नया और बदला हुआ रूप देखने को मिलेगा। फिर तो लोकमान्य तिलक ने स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कह कर भारतीय जनमानस के भावना की मुखर अभिव्यक्ति कर ही दी थी।आज़ादी के लिये फिर क्रांतिकारी आंदोलन हुये, अहिंसक और सविनय अवज्ञा के आंदोलन तो मुख्य धारा के थे ही। कुछ ने विदेशों में अलख जगाई। कुछ संवैधानिक तरीके से अंग्रेज़ों से जूझते रहे। उद्देश्य एक ही था भारत को आज़ाद देखना, बस सबके अंदाज़ जुदा जुदा थे।

लेकिन 1940 से 1947 तक चार ऐसी महत्वपूर्ण घटनाये घटीं जिसने अंग्रेजों के समक्ष ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दिया कि अंग्रेज भारत छोड़ कर वापस जाने के लिये मजबूर हो गए। मैं उन घटनाओं का उल्लेख यहां कर रहा हूँ।

● 1942 का भारत छोडो आंदोलन, आज़ादी के संघर्ष की मुख्य धारा, कांग्रेस का आंदोलन था। तब कांग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं एक समूह था, जिसमे अलग अलग विचारधारा के लोग एक समान उद्देश्य, भारत की अंग्रेजी राज्य से मुक्ति की आशा में, अपनी अपनी सोच से एक साथ लड़ रहे थे। पर 1920 से लेकर 1947 तक कांग्रेस की मूल धारा महात्मा गांधी के विचारों पर आधारित रही। गांधी का कद इतना बड़ा था कि उसे नकार कर उस काल खंड में कोई कांग्रेस में नहीं रह पाया, यहां तक कि महान सुभाष बाबू भी नहीं। गांधी जी ने आज़ादी के इस अंतिम आंदोलन को छेड़ा था, लेकिन यह आंदोलन उनके ही सिद्धांतों के अनुरूप अहिंसक नही रह सका।

भारत  छोड़ो आन्दोलन, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 9 अगस्त 1942 को आरम्भ किया गया था। यह एक आन्दोलन था जिसका लक्ष्य भारत से ब्रितानी साम्राज्य को समाप्त करना था। यह आंदोलन महात्मा गांधी द्वारा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के मुम्बई अधिवेशन में शुरू किया गया था। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विश्वविख्यात काकोरी काण्ड के ठीक सत्रह साल बाद ९ अगस्त सन १९४२ को गांधीजी के आह्वान पर समूचे देश में एक साथ आरम्भ हुआ। यह भारत को तुरन्त आजाद करने के लिये अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक सविनय अवज्ञा आन्दोलन था।

क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला लिया। 8 अगस्त 1942 की शाम को बम्बई में अखिल भारतीय काँगेस कमेटी के बम्बई सत्र में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नाम दिया गया था। हालांकि गाँधी जी को फ़ौरन गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के जरिए आंदोलन चलाते रहे। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया, अरुणा आसफ अली, जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोधि गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम में सतारा, उत्तर प्रदेश में बलिया और पूर्व में मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में स्वतंत्र सरकार, की स्थापना भी आन्दोलमकरियो द्वारा कर दी गई थी। अंग्रेजों ने आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया फ़िर भी इस विद्रोह को दबाने में सरकार को दो साल से ज्यादा समय लग गया।

● दूसरी घटना है नेताजी सुभाष बोस द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने की। सुभाष और गांधी में मतभेद का मुख्य कारण 1939 में हुए द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश के प्रति कांग्रेस की नीति थी। सुभाष यह चाहते थे कि जैसे ही युद्ध शुरू हो भारत को स्वाधीनता की मांग शुरू करके एक व्यापक आंदोलन छेड़ देना चाहिये। पर गांधी सहमत नहीं थे। वे अभी बात चीत से यह मामला निपटाना चाहते थे। वे अंग्रेजों से अब भी सदाशयता के आधार पर आज़ादी की उम्मीद लगाए बैठे थे। सुभाष अल्पमत में नहीं थे पर गांधी उनके साथ नहीं थे। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और फिर दुनिया का सबसे अनोखा स्वातंत्र्य संघर्ष शुरू किया।

सुभाष बाबू, कलकत्ता से भेस बदल कर देश के बाहर चले गए, जर्मनी में हिटलर से मिले और जर्मनी की मदद से धुरी राष्ट्रों के साथ अपनी एक सेना आज़ाद हिंद फौज का गठन किया और भारत जो अंग्रेजी राज से मुक्त कराने बर्मा के जंगलों से इम्फाल तक आ पहुंचे। दुनिया भर के आज़ादी के संघर्ष की कहानियां पढ़ डालिये, सुभाष जैसा यह एडवेंचरस संघर्ष कम ही मिलेगा।

आज़ाद हिन्द फ़ौज सबसे पहले अलीगढ़ के मुरसान के  राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने 29 अक्टूबर 1915 को अफगानिस्तान में बनायी थी। मूलत: यह 'आजाद हिन्द सरकार' की सेना थी जो अंग्रेजों से लड़कर भारत को मुक्त कराने के लक्ष्य से ही बनायी गयी थी। किन्तु यहाँ जिसे 'आजाद हिन्द फौज' कहा गया है उससे इस सेना का कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ, नाम और उद्देश्य दोनों के ही समान थे। रासबिहारी बोस ने जापानियों के प्रभाव और सहायता से दक्षिण-पूर्वी एशिया से जापान द्वारा एकत्रित क़रीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू किया था और उसे भी यही नाम दिया अर्थात् आज़ाद हिन्द फ़ौज। बाद में उन्होंने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को आज़ाद हिन्द फौज़ का सर्वोच्च कमाण्डर नियुक्त करके उनके हाथों में इसकी कमान सौंप दी। आज़ाद हिंद फौज 1945 तक जब तक विश्वयुद्ध मे जापान टूट नहीं गया, लड़ती रही। हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम के प्रहार के बाद यह लड़ाई मित्र राष्ट्रों ने जीत लिया और आज़ाद हिंद फौज को संसाधनों की कमी के कारण यह अभियान रोकना पड़े। सुभाष फिर ताइवान जाते समय एक दुर्घटना के शिकार हो गए। वे मरे या ज़िंदा रहे इस पर संशय अब भी है।

● विश्वयुद्ध के 1945 में समाप्त हो जाने पर आज़ाद हिंद फौज के सेनानियों को अंग्रेज़ों ने बंदी बना दिया और उन पर राज्य के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का मुक़दमा चलाया गया। इतिहास में यह आईएनए ट्रायल के नाम से प्रसिद्ध है।  आजाद हिन्द फौज के अभियोग से तात्पर्य नवम्बर १९४५ से लेकर मई १९४६ तक आजाद हिन्द फौज के अनेकों अधिकारियों पर चले कोर्ट-मार्शल से है। कुल लगभग दस मुकदमे चले। इनमें पहला और सबसे प्रसिद्ध मुकद्दमा दिल्लीके लाल किले में चला जिसमें कैप्टन प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह तथा मेजर शाहनवाज खान पर संयुक्त रूप से चला।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक नाटकीय बदलाव आया। 15 अगस्त 1947 भारत को आजादी मिलने तक, भारतीय राजनैतिक मंच विविध जनान्दोलनों का गवाह रहा। इनमें से सबसे अहम् आन्दोलन, आजाद हिन्द फौज के 17 हजार जवानों के खिलाफ चलने वाले मुकदमे के विरोध में जनाक्रोश के सामूहिक प्रदर्शन थे। मुक़दमे की कार्यवाही रोज़ छपने वाले अखबारों की ब्रेकिंग न्यूज़ होती थी। जवाहरलाल नेहरू ने 1927 से वकालत छोड़ने के बाद फिर से अदालत में इस मुक़दमे में आज़ाद हिंद फौज के सेनानियों की तरफ से खड़े हुये। भूला भाई देसाई आज़ाद हिंद फौज की तरफ़ से नियमित वकील थे।

इस मुक़दमे में भी साम्प्रदायिकता का जहर लोगों ने घोलने की कोशिश की। मेजर शहनवाज खान को मुस्लिम लीग की तरफ से एमए जिन्ना और कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन को अकाली दल ने अपनी ओर से मुकदमा लड़ने के लिये आर्थिक और कानूनी मदद की पेशकश की, लेकिन इन देशभक्त सिपाहियों ने कांग्रेस द्वारा जो डिफेंस टीम बनाई गई थी, उसी टीम को ही अपना मुकदमा पैरवी करने की मंजूरी दी। उन्होंने मजहबी भावनाओं से ऊपर उठकर यह अनोखा फैसला किया। सहगल, ढिल्लन, शहनवाज सब मिल बोलो एक आवाज़, उस समय का महत्वपूर्ण नारा बन गया था। अंग्रेजी राज इस मुक़दमे को युद्धबंदी के मुक़दमे की तरह निपटाना चाहता था। पर जैसे जैसे मुक़दमे की सुनवाई बढ़ती जाती थी, देश मे आज़ादी का ज्वार बढ़ता जाता था। अंग्रेजों की हिम्मत युद्धबंदी के समान मुक़दमों के निपटारे की नहीं पड़ी। अंत मे अंग्रेजों को, इन सभी सैनिकों को छोड़ना पड़ा।

● भारत की आजादी के ठीक पहले मुम्बई में रायल इण्डियन नेवी के सैनिकों द्वारा पहले एक पूर्ण हड़ताल की गयी और उसके बाद खुला विद्रोह भी हुआ। यह घटना भी अनोखी है। नेवी विद्रोह ब्रिटिश सेना में विद्रोह की पहली घटना नहीं थी। इसके पहले दमनात्मक आदेशों को नकार देने की एक बड़ी घटना पेशावर में घटी थी। यह घटना बहादुर सैनिक चन्द्र सिंह गढ़वाली से जुड़ी है। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को भारतीय इतिहास में पेशावर कांड के नायक के रूप में याद किया जाता है। 23 अप्रैल 1930 को हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर दिया था। 1930 के बाद नेवी विद्रोह की घटना 1946 में, सोलह साल बाद घटी।

इतिहास में इसे जलसेना विद्रोह या मुम्बई विद्रोह (बॉम्बे म्युटिनी) के नाम से जाना जाता है। यह विद्रोह 18 फ़रवरी सन् 1946 को हुआ जो कि जलयान में और समुद्र से बाहर स्थित जलसेना के ठिकानों पर भी हुआ। यद्यपि यह मुम्बई में आरम्भ हुआ किन्तु कराची से लेकर कोलकाता तक इसे पूरे ब्रिटिश भारत में इसे भरपूर समर्थन मिला। कुल मिलाकर 78 जलयानों, 20 स्थलीय ठिकानों एवं 20 हजार नौसैनिकों   ने इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष भाग लिया। यह एक बड़ी घटना थी। इस घटना के बाद ही अंग्रेज समझ बैठे थे कि अब भारत मे अंग्रेजी राज के पटाक्षेप का समय आ गया है। किन्तु दुर्भाग्य से इस विद्रोह को भारतीय इतिहास मे समुचित महत्व नहीं मिल पाया है।

इतिहास के पन्नो में, स्वाधीनता संग्राम के दौरान, अंग्रेजों से माफी मांग कर उनके इशारे पर आज़ादी के लिये लड़ने वाले लोगों की जो मुखबिरी करते थे, वे आज खुद को स्वयम्भू देशभक्त घोषित करते नहीं थकते हैं  और उनकी नज़र में जो उनकी विभाजनकारी विचारधारा को नहीं माने वह देशद्रोही है । कल देश की आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ देने का अपराध बोध या सावरकर और जिन्ना के मर चुके द्विराष्ट्रवाद का अधूरा एजेंडा इन्हें आक्रामक राष्ट्रवादी और देशभक्त बनाता है या कोई और कारण है, इस पर भी विचार ज़रूरी है।

आज के दिन, आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ देने वाले और उनकी मुखबिरी करके, उनके समर्थन में सरकार बनाने वालों को बेनकाब करना एक पुण्य कार्य है।

जब वंदे मातरम और भारत माता की जय बिना धर्म, जाति, और वैचारिक मतभेद के बोला जा रहा था और यह उद्घोष देश की एकता और अखंडता के साथ साथ आज़ादी के लिये था तो वे, जो गॉड सेव द किंग के समर्थन में आज़ादी के आंदोलन को तोड़ने में लगे हुये थे, को बेनकाब करना एक पुण्य कार्य है।

इन देशभक्ति के लबादे में छुपे फासिज़्म को पहचानना बहुत ज़रूरी है। फासिज़्म लोकतंत्र, श्रेष्ठतावाद, बहुमत, और अंधराष्ट्रवाद से उपजता है। उसकी उम्र अधिक नहीं होती है। क्योंकि वह उन्माद पर आधारित होता है। उन्माद एक असामान्य स्थिति होती है। कोई भी सतत और निरंतर उन्माद के भाव मे नहीं रह सकता है। लेकिन जब नशा उतरता है तो खुद को गटर में पाता है। इस नशे से मुक्त होना आज के दिन एक पुण्य कार्य है।

फासिज़्म का नाश हो इसलिए देश का एकजुट रहना बहुत ज़रूरी है। एकजुटता के लिये जरूरी है कि, सभी धर्म, जाति के लोग एक साथ रहे और एक साथ चले।
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् l देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ll भावार्थ -- हम सब एक साथ चलें; एक साथ बोलें; हमारे मन एक हो ।
ऋग्वेद के इस महान मंत्र को जीवन मे आत्मसात करना एक पुण्य कार्य है।
तथास्तु !!

© विजय शंकर सिंह

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