Tuesday 20 August 2019

कविता - बर्तोल्त ब्रेख्त - जैसे कोई ज़रूरी खत लेकर आता है / विजय शंकर सिंह

जैसे कोई ज़रूरी ख़त लेकर आता है डाकख़ाने देर से
खिड़की बंद हो चुकी होती है I

जैसे कोई शहर को आसन्न बाढ़ की चेतावनी देना चाह रहा हो,
पर वह दूसरी ज़ुबान बोलता है I वे उसे नहीं समझ पाते I

जैसे कोई भिखारी पाँचवीं बार वह दरवाज़ा खटखटाता है
जहाँ से चार दफ़ा पहले कुछ मिला था उसे
पाँचवी बार वह भूखा है I

जैसे किसी के घाव से ख़ून बह रहा हो और डॉक्टर का इंतज़ार कर रहा हो
उसका ख़ून बहता ही जाता है I
वैसे ही हम आगे आकर बताते हैं कि हमारे साथ बुरा हुआ है I

पहली बार बताया गया था कि हमारे दोस्तों का क़त्ल किया जा रहा है
दहशत की चीख़ थी
फिर सौ लोगों को क़त्ल किया गया I

लेकिन जब हज़ार क़त्ल किये गये, और क़त्लेआम की कोई इंतेहा नहीं थी
ख़ामोशी की एक चादर पसर गयी I

जब बुराई बारिश की तरह आती है, तो कोई भी नहीं चिल्लाता 'रुको'!
जब अपराध ढेर में तब्दील होने लगते हैं, तो वे अदृश्य हो जाते हैं I

जब दुख असहनीय हो जाते हैं, चीख़ें नहीं सुनी जातीं I
चीख़ें भी बरसती हैं गर्मी की बारिश की तरह I

-- बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
● अनुवाद: प्रकाश के रे

( विजय शंकर सिंह )

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