समाज के विकास के क्रम में यह विवाह एक संस्था के रूप में कब उद्भूत हुयी होगी, यह तो कहना कठिन है पर सभ्यता और संस्कृति के इतिहास का जब अध्ययन किया जाता है तो यह संस्था आदिम युग मे जब मनुष्य ने आग और पहिये का अविष्कार किया होगा उसके बाद से ही यह संस्था अस्तित्व में आ गयी होगी। बाद में जैसे जैसे समाज और सभ्यताएं विकसित होती गयी वैसे वैसे नए नए रीति रिवाज बनने लगे। यह संस्था सभी समाज और धर्मो में अपने अपने तरह से विकसित हुई और वह विकास क्रम आज भी जारी है। इस्लाम मे विवाह को निकाह कहा जाता है ।
इस्लाम में निकाह एक पुरूष और एक स्त्री की अपनी आज़ाद मर्ज़ी से एक दूसरें के साथ पति और पत्नी के रूप में रहने का फ़ैसला हैं। सनातन धर्म में जहां विवाह एक संस्कार है, वहीं इस्लाम मे यह एक संविदा है। विवाह में पति पत्नी के भावुक और सात जन्म तक के काल्पनिक बंधन के विपरीत, इस्लाम मे निकाह को अधिक व्यवहारिक धरातल पर रख कर देखा गया है। यह संविदा है, इसलिए इसमें कुछ शर्ते भी हैं, पहली यह कि पुरूष वैवाहिक जीवन की ज़िम्मेदारियों को उठाने की शपथ ले, एक निश्चित रकम जो आपसी बातचीत से तय हो, मेहर के रूप में औरत को दे और इस नये सम्बन्ध की समाज में घोषणा हो जाये। विवाह के बिना किसी मर्द और औरत का साथ रहना और यौन सम्बन्ध स्थापित करना न केवल गलत है बल्कि वह एक गुनाहे अज़ीम है।
चूंकि निकाह एक संविदा है। औरत और मर्द आपसी सहमति से इस लिखित संविदा जिसे निकाहनामा कहते हैं से बंधे रहते है अतः इस्लाम में उक्त निकाह यानी संविदा विच्छेद का भी प्राविधान है जिसे तलाक़ कहा गया हैं। इस्लामी कानूनी के मर्मज्ञ इस बात पर एकमत है कि इस्लाम मे तलाक़ का प्राविधान तो है पर उसे जटिल बनाया गया है ताकि तलाक़ का फैसला करते समय उसे आसानी से अमल में न लाया जा सके। यह असामान्य परिस्थितियों के लिये असामान्य प्राविधान है और इसका प्रयोग अपवाद स्वरूप ही किया जाना चाहिये न कि यह एक विधान है। इसीलिए क़ुरआन में तलाक़ की प्रक्रिया लम्बी और थोड़ी जटिल बनायी गयी है। तलाक, तलाक़, तलाक एक बार मे नहीं बल्कि कुछ अंतराल के बाद कहने की प्रक्रिया है ताकि इन अंतरालों में हो सकता है पति का मन बदल जाए, गिले शिकवे दूर हों जाय और परिवार बिखरने से बच जाय। क्योंकि यह मान लिया गया है कि तलाक़ का कारण कुछ भी हो इससे, परिवार और रिश्ते बिखरते ही हैं। कुरान में कहा गया है कि जहाँ तक संभव हो, तलाक़ न दिया जाए और यदि तलाक़ देना ज़रूरी और अनिवार्य हो जाए तो कम से कम यह प्रक्रिया अपनायी जाय। क़ुरआन में तलाक़ प्रक्रिया की समय अवधि भी स्पष्ट रूप से बताई गई है। एक ही क्षण में तलाक़ का सवाल ही नहीं उठता। खत लिखकर, टेलीफ़ोन पर या आधुनिकाल में ईमेल, एस एम एस अथवा वॉट्सऍप के माध्यम से एक-तरफा और ज़ुबानी या अनौपचारिक रूप से लिखित तलाक़ की इजाज़त इस्लाम कतई नहीं देता। एक बैठक में या एक ही वक्त में तलाक़ दे देना गैर-इस्लामी है।
तलाक़ की प्रक्रिया, शरीयत , जिसे शरीया क़ानून और इस्लामी क़ानून भी कहा जाता है में दी गयी है। इस्लाम में इसे धार्मिक क़ानून का दर्जा प्राप्त है। इस क़ानून का आधार पहला, इस्लाम का सर्वोच्च धर्मग्रन्थ क़ुरआन है और दूसरा इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद द्वारा दी गई मिसालें हैं , जिन्हें सुन्नाह यानी परम्परायें कहा जाता है। इस्लामी क़ानून की व्याख्याएं, इन दो स्रोतों को ध्यान में रखकर की जातीं हैं। इस क़ानून बनाने की प्रक्रिया को 'फ़िक़्ह' कहा जाता है। शरीयत में बहुत से विषयों पर अपने अपने मत है, जैसे कि स्वास्थ्य, खानपान, पूजा विधि, व्रत विधि, विवाह, जुर्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था इत्यादि। मुसलमान यह तो मानते हैं कि शरीयत अल्लाह का क़ानून है लेकिन उनमें इस बात को लेकर मतभेद है कि यह क़ानून कैसे परिभाषित और लागू होना चाहिए। सुन्नी समुदाय में चार भिन्न भिन्न फ़िक़्ह के नज़रिए हैं और शिया समुदाय में दो। अलग अलग देशों, समुदायों और संस्कृतियों में भी शरीयत को अलग-अलग ढंगों से समझा जाता है। शरीयत के अनुसार न्याय करने वाले पारम्परिक न्यायाधीशों को 'क़ाज़ी' कहा जाता है। कुछ स्थानों पर 'इमाम' भी न्यायाधीशों का काम करते हैं। इस्लाम के अनुयायियों के लिए शरीयत इस्लामी समाज में रहने के तौर-तरीक़ों, नियमों और कायदों के रूप में क़ानून की भूमिका निभाता है। पूरा इस्लामी समाज इसी शरीयत क़ानून के हिसाब से चलता है। मोहम्मडन लॉ या इस्लामी कानून भी अलग अलग तरीक़ों से व्याख्यायित है। लेकिन निकाह एक संविदा है और तलाक उक्त संविदा भंग का एक उपाय यह लगभग सभी फिरकों में है।
तलाक़ को लेकर इधर एक विवाद उठ खड़ा हुआ है कि एक ही बार मे तीन तलाक़ जिसे तलाक़ ए बिद्दत (ट्रिपल तलाक़) कहते हैं, के अंतर्गत जब कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को एक बार में तीन तलाक़ बोल, या फ़ोन, मेल, मैसेज या पत्र के ज़रिए तीन तलाक़ कह, लिख कर दे देता है तो इसके तुरंत बाद तलाक़ हो जाता है, तो क्या इस तलाक़ को इस्लामी कानूनी के अनुसार जायज़ माना जाय ? ट्रिपल तालक़, जिसे तलाक़-ए-बिद्दत, तत्काल तलाक़ और तालक़-ए-मुघलाजाह (अविचल तलाक़) के रूप में भी जाना जाता है, इस्लामी तलाक़ का एक रूप है जिसे भारत में मुसलमानों द्वारा इस्तेमाल किया गया है, विशेषकर हनफ़ी पन्थ के अनुयायी न्यायशास्र के सुन्नी इस्लामी स्कूल इसे मानते हैं। लेकिन इस्लामी कानूनों के जानकार इस प्रकार के तलाक को जायज़ नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि इस प्रकार का तलाक कुरआन की भावना और शरियत की मंशा के विपरीत है। लेकिन दुर्भाग्य से सबसे अधिक तलाक़ इसी प्रथा से हो रहे है। इस प्रथा के औचित्य और अनौचित्य पर देश और मुस्लिम समाज मे भी बहुत बहसें हुयीं और यह मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट में इस महत्वपूर्ण मामले की सुनवायी, मुख्य न्यायाधीश ( सीजेआई ) की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने की। सुनवायी के बाद पीठ ने अपने 365 पेज के फ़ैसले में 3:2 के बहुमत के फैसले से ‘तलाक़-ए-बिद्दत’’ तीन तलाक़ को निरस्त कर दिया। अदालत का फैसला शरियत का कहीं उलंघन नहीं करता है। क्योंकि शरियत में भी ट्रिपल तलाक़ को मान्यता नहीं दी गयी है।
भारत में भले ही इसे खत्म करने पर बहस चल रही हो पर पड़ोसी मुल्क, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका समेत 22 देश इसे पहले ही खत्म कर चुके हैं।
मिस्र ने सबसे पहले 1929 में ही तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया था। यहां कानून के अनुसार तीन बार तलाक कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा।
इंडोनेशिया में तलाक के लिए कोर्ट की अनुमति जरूरी है। यहां महिलाओं को भी तलाक देने का अधिकार है।
ईरान में 1986 में बने 12 धाराओं वाले तलाक कानून के अनुसार ही तलाक संभव है। 1992 में इस कानून में कुछ संशोधन किए गए इसके बाद कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है।
कट्टरपंथी समझे जाने वाले ईरान में भी महिलाओं को भी तलाक देने का अधिकार है।
तुर्की ने 1926 में स्विस नागरिक संहिता अपनाकर तीन तलाक की परंपरा को त्याग दिया। इस संहिता के लागू होते ही शादी और तलाक से जुड़ा इस्लामी कानून अपने आप हाशिये पर चला गया। हालांकि 1990 के दशक में इसमें जरूर कुछ संशोधन हुए, लेकिन जबरदस्ती की धार्मिक छाप से यह तब भी बचे रहे।
साइप्रस में भी तुर्की के कानून को मान्य किया गया है। अत: यहां भी तीन तलाक को मान्यता नहीं है।
पाकिस्तान में भी तीन बार तलाक बोलकर पत्नी से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। सुन्नी बहुल इस देश में भी तलाक चाहने वाले व्यक्ति को पहले अपनी पत्नी के खिलाफ यूनियन बोर्ड के चेयरमैन को नोटिस देना होता है। इस मामले में पत्नी को भी जवाब देने का मौका दिया जाता है। पाकिस्तान में 1955 में महिलाओं के आंदोलन के बाद यह व्यवस्था शुरू की गई।
बांग्लादेश ने भी तलाक पर पाकिस्तान में बना नया कानून अपने यहां लागू कर तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया।
अफगानिस्तान में तलाक के लिए कानूनन रजिस्ट्रेशन जरूरी है। यहां 1977 में नागरिक कानून लागू किया गया था। इसके बाद से तीन तलाक की प्रथा समाप्त हो गई। श्रीलंका में तीन तलाक वाले नियम को मान्यता नहीं है। हालांकि श्रीलंका मुस्लिम देश नहीं है, लेकिन यहां तलाक देने से पहले काजी को सूचना देनी होती है। 30 दिन में काजी पति-पत्नी में समझौते की कोशिश करता है। इसके बाद ही काजी और दो चश्मदीदों के सामने तलाक हो सकता है।
मलेशिया में कोर्ट के बाहर तलाक मान्य नहीं है। पुरुषों की तरह महिलाएं भी यहां तलाक के लिए आवेदन दे सकती हैं।
लीबिया में महिला और पुरुष दोनों को ही तलाक लेने की अनुमति है, लेकिन यहां भी कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है।
सूडान में भी तीन तलाक को मान्यता नहीं है। 1935 से ही यहां तीन तलाक पर प्रतिबंध है।
अल्जीरिया में भी अदालत में ही तलाक दिया जा सकता है। यहां जोड़े को फिर से मिलने के लिए 90 दिन का समय रखा गया है।
सीरिया में करीब 74 प्रतिशत आबादी सुन्नी मुसलमानों की है। यहां 1953 से तीन तलाक पर प्रतिबंध है। संविधान में यह प्रावधान है कि कोर्ट से तलाक लिया जा सकता है। महिला भी तलाक ले सकती है। यहां तलाक के बाद महिला को गुजारा भत्ता देना होता है।
मोरक्को में 1957-58 से ही मोरक्कन कोड ऑफ पर्सनल स्टेटस लागू है। इसी के तहत तलाक लिया जा सकता है। तलाक का पंजीयन कराना जरूरी है।
ट्यूनीशिया में 1956 में बने कानून के मुताबिक वहां अदालत के बाहर तलाक को मान्यता नहीं है। यहां पहले तलाक की वजहों की पड़ताल होती है और यदि दंपति के बीच सुलह की कोई गुंजाइश न दिखे तभी तलाक को मान्यता मिलती है।
इसके अलावा संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर, बहरीन और कुवैत में भी तीन तलाक पर प्रतिबंध है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद से देश में लोकसभा ने मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक, 2017 को पारित कर दिया है । पारित विधेयक के अहम बिंदु इस प्रकार हैं:
* धारा 3. मुस्लिम पति द्वारा शाब्दिक तौर पर, चाहे मौखिक या लिखित या इलेक्ट्रॉनिक रूप में या किसी भी दूसरे तरीके से, अपनी पत्नी को तलाक दिया जाना अवैधानिक/अमान्य और गैर कानूनी होगा.
* धारा 4. कोई मुस्लिम पति, जो अपनी पत्नी को अनुच्छेद 3 में वर्णित तरीके से तलाक देता है, उसे तीन साल तक की कैद की सजा दी जाएगी साथ ही उस पर जुर्माना भी लगाया जाएगा।
सरकार का तर्क है कि गलत तरह से तलाक के कारण पीड़ित मुस्लिम महिलाएँ इस कानून से राहत पाएंगी। सरकार ने इस कानून के माध्यम से स्वयं को मुस्लिम महिलाओं का हितचिंतक दिखने की कोशिश की है। हालांकि विधेयक जहां तक तलाक़ ए बिद्दत को रोकने की बात करता है वहां तक तो वह शरीयत के भावना के अनुरूप है और तीन बार तलाक़ कह देने से तलाक़ का होना भी नहीं होता है, पर तीन तलाक़ कहने वाले को तीन साल की कारावास की सज़ा का प्राविधान तर्कसंगत नहीं लगता है। मूल कानूनी प्रश्न यह भी उठता है कि तलाक़ हुआ ही नहीं तो सज़ा किस बात की ? यह तर्क दिया जाएगा कि तीन तलाक़ बोलने की यह सजा है । लेकिंन, पति पत्नी की वैवाहिक स्थिति तो वही रही। फिर जेल के बाद जब पति लौटेगा तो क्या परिवार की सामान्यता रह पाएगी ? फिर इन तीन सालों में पत्नी और अगर बच्चे हों तो उनका भरण पोषण कौन करेगा ? क्या सजायाफ्ता पति लौट कर पुनः निर्विकार भाव से एक शरीफ पतिं की तरह घर मे रह सकेगा ? अगर वह किसी नौकरी में है तो क्या तीन साल की सज़ा के बाद भी उसकी वह नौकरी बरक़रार रहेगी ? सामाजिक प्रतिष्ठा पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? आदि आदि अनेक सवाल इस सज़ायाबी वाले प्राविधान से और उठ खड़े हुये हैं। धर्म और न्यायशास्त्र के आधार पर प्रत्यक्ष रूप से दिखने वाले इस विधेयक में कई कमियां हैं, जिससे यह साबित होता है इसे ड्राफ्ट करते समय बहुत सी सम्भावनाओ पर विचार नहीं किया गया है और इसका उद्देश्य लैंगिक न्याय, जैसा कि दावा किया गया है, नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अरविंद जैन ने एक वाजिब सवाल उठाया है। उनके अनुसार, " भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 के अनुसार पत्नी से कानूनी बलात्कार का अधिकार, व्यभिचार (धारा 497) और समलैंगिकता (धारा 377) कोई अपराध नहीं..अब सब संवैधानिक है...कोई अपराध नहीं। दहेज केस के किसी अपराधी की गिरफ्तारी तक नहीं, मगर तीन तलाक़ देने की कहने वालों को तीन साल के लिए, जेल। यह अपराध भी संज्ञेय और गैर-जमानती। पति जेल में और परिवार सड़क पर। पत्नी-परिवार के पालन-पोषण का क्या इंतज़ाम किया? इसका फैसला मजिस्ट्रेट करेगा ! " न्याय की यह कैसी अवधारणा ?
एक और कानूनी विसंगति इस विधेयक के साथ है। आईपीसी की धारा 494 के अनुसार पति-पत्नी के रहते, दूसरा विवाह करने की सज़ा सात साल है मगर यह अपराध असंज्ञेय और जमानत योग्य है लेकिन इस तीन तलाक़ बिल में की सज़ा तीन साल और अपराध संज्ञेय तथा गैर-जमानती ! क्यों ? दूसरा विवाह करना, तीन तलाक़ से कम गम्भीर अपराध है, तो बहुविवाह की सज़ा सात साल क्यो ?
लोकसभा में पारित तीन तलाक को अपराध बनाने वाले कानून को लेकर चली बहस एक साधारण सवाल के इर्द-गिर्द घूमती रही थी कि, जब शादी एक दीवानी करार है और सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही फौरी तीन तलाक़ को अवैध घोषित कर दिया है, तो किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी को कानून द्वारा अमान्य ठहरा दिए गए तरीके से तलाक देने की कोशिश करने के लिए सजा देने की जरूरत क्या है ? यह सजा किस अपराध की है यह तो कानून स्पष्ट ही नहीं करता है !
इसका एक दुष्परिणाम यह होगा कि लोग, अपनी पत्नी को बिना तीन बार तलाक बोलकर घर से निकाल देने और सज़ा से बच कर परित्याग करने का कायरतापूर्ण उपाय अपनाएंगे जिससे और समस्याएं उतपन्न होंगी। परित्याग चूंकि कोई कानूनी अपराध नहीं है अतः पति को किसी कानूनी कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ेगा. और छोड़ी गई पत्नी बिना तलाक़ ही तलाकशुदा जीवन बिताने के लिये बाध्य होगी। जो और बुरा होगा। दूसरे शब्दों में एक बार जब यह कानून पारित हो जाता है, एक घटिया मुस्लिम पति, जो अपनी पत्नी को छोड़ देना चाहता है, आसानी से वही रास्ता अपनाएगा जो उसके जैसा कोई घटिया हिंदू, ईसाई, जैन या सिख पति अपनाता है- अपनी पत्नी को ससुराल से बाहर निकाल देने का रास्ता। वह उसे कोस सकता है, उसे गाली दे सकता है, उसे कह सकता है कि शादी टूट गई है और यह कि उसे उससे (पति से) किसी पैसे की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. लेकिन जब तक वह तलाक के लिए उर्दू के तीन गैर कानूनी शब्द अपने मुंह से नहीं निकालेगा, वह जेल जाने से बचा रहेगा। यह इस कानून की सबसे बड़ी खामी है।
अगर धार्मिक अवरोध को हटा कर देखें तो परित्यक्त महिलाओं की संख्या आखिरी जनगणना (2011) के अनुसार, भारत भर में 23.7 लाख औरतें अपनी पहचान ‘अलग रह रहीं’ के तौर पर करती हैं। लेकिन यह हम नहीं बता सकते कि वे स्वेच्छा से अलग रह रही हैं या पति ने उन्हें छोड़ दिया है क्योंकि जनगणना विवरण में ऐसा कोई कालम नहीं है। हमारे पास यह जानने का और कोई साधन नहीं है कि ये औरतें अपने पतियों से अपनी मर्जी से अलग हुईं या उन्हें एकतरफा तरीके से छोड़ दिया गया था, या इससे भी खराब, क्या उन्हें अपने ससुराल से बाहर निकाल दिया गया था। इनमें भी एक बड़ा बहुमत 19 लाख हिंदू औरतों का है. कुल ‘अलग रह रहीं’ मुस्लिम औरतों की संख्या जबकि 2.8 लाख है.। 1955 में हिन्दू महिलाओं के लिये भी एक कानून हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 बनाया गया था। इस कानून से पहले हिन्दुओं में भी बहुविवाह मान्य था और स्त्रियों को तलाक का अधिकार नहीं था । विवाह सात जन्मों का अटूट बंधन माना जाता था। उस समय तमाम हिंदूवादी नेताओं ने इस कानून का खूब विरोध किया था।
तीन तलाक़ बिल लोकसभा में तो एक बार फिर से पास हो गया मगर सवाल है कि बिना बहुमत के राज्यसभा में कैसे पास होगा ? पहले भी पास नहीं हुआ था तभी तो सरकार को 'अध्यादेश' जारी करना पड़ा था। अब फिर राज्यसभा में यह बिल लटक सकता है। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अरविंद जैन ने अपने एक लेख में लिखा है,
'" शाहबानो' से लेकर 'सायराबानो' तक से, राजनीतिक विश्वासघात और न्याय का नाटक-नौटंकी ही होती रही है। लिंग समानता की आड़ में घृणित धार्मिक राजनीति। सत्ता और विपक्ष दोनों के हाथ दस्तानों (दोस्तानों) में! दोहरे चरित्रहीन चेहरे देश के सामने हैं। "
तीन तलाक़ विधेयक के बहाने संसद में 89% मर्द सांसद, 'स्त्री सशक्तिकरण' पर बहस (लफ़्फ़ाज़ी) करते रहे हैं। यह बिल महिला सशक्तिकरण पर लफ़्फ़ाज़ी अधिक और महिला हित चिंता कम लगती है। कहीं इस बिल को बहस के केंद्र में लाकर सत्ताधारी दल का मकसद यह तो नहीं है कि वह अपने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की बहस को आगे बढ़ाये और इसका लाभ 2019 के चुनाव में ले।
निचली सदन में तीन तलाक बिल पास होने के बाद अब सरकार का सामने सबसे बड़ी चुनौती इसे राज्यसभा में पास कराने की है। लोकसभा में पेश हुए इस विधेयक के पक्ष में 245 वोट पड़े जबकि विपक्ष में सिर्फ 11 वोट ही पड़े। कांग्रेस, एआईएडीएमके, सपा और डीएमके ने इसे सेलेक्ट कमेटी के पास भेजने की मांग करते हुए सदन से वॉक आउट किया। राज्सभा में वैसे तो बीजेपी का आंकड़ा पहले की तुलना में काफी बढ़ा है लेकिन इतना भी नहीं है कि वह विपक्ष के बिना सहयोग के विधेयक को पास करा ले। राज्यसभा में कुल सदस्यों की संख्या 244 है और उनमें से 4 सदस्य नामित हैं। फिलहाल, राज्यसभा में जो आंकड़े हैं उसके अनुसार एनडीए के पास 97 सदस्य हैं। जबकि राज्यसभा में फिलहाल विपक्ष का पलड़ा संख्याबल के मामले में सरकार पर भारी है। मौजूदा परिस्थिति में विपक्ष के पास 115 सांसद हैं। अगर कानून नन भी जाता है तो अनेक विसंगतियों को देखते हुये, इस कानून को अदालती विवाद में पड़ जाने की पूरी संभावना भी है।
समाज को नियंत्रित करने के लिये कानूनों की अवधारणा हुयी है। पर यह भी एक कटु सत्य है कि समाज की बुराइयों को केवल कानून बनाकर ही खत्म नहीं किया जा सकता है। दहेज प्रथा, अस्पृश्यता, आदि सामाजिक बुराइयों के खिलाफ कानून बने हैं पर वे बुराइयां कम तो हुयी हैं पर खत्म नहीं हुयी है। यह मुस्लिम समाज को सोचना है कि वे कैसे तीन तलाक़ की कुप्रथा जो उनकी किताबों के ही अनुसार मान्य नहीं है से कैसे बचा जाय।
© विजय शंकर सिंह