Thursday, 14 June 2018

Ghalib - Qatraa qatraa ik heebulaa hai / क़तरा क़तरा इक हीबुला है - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 95.
क़तरा क़तरा इक हीबुला है, नये नासूर का,
खूँ भी , ज़ौक़ ए दर्द से फारिग मेरे तन में नहीं !!

Qatraa qatraa ik heebulaa hai, naye nasuur kaa, 
Khoon bhii, zauq e dard se faarig mere tan mein nahiin !!
- Ghalib

मेरे रक्त की हर बूंद नए नए ज़ख्मों का पोषण करने वाली है। मेरे शरीर मे दौड़ने वाला रक्त भी मेरे भीतर व्याप्त पीड़ा के आंनद से मुक्त नहीं है।

दर्द का हद से बढ़ जाना है दवा हो जाना। यह एक प्रसिद्ध पंक्ति है और मनोभाव है। दर्द, गम, दुख, या दुखवाद उर्दू शायरी के प्रमुख आयाम रहे हैं। सबसे लोकप्रिय कलाम गम दर्द और दुख के इर्द गिर्द ही रचे गए हैं। दर्द के गीत रास भी बहुत आते हैं। कारण ? दर्द हर अंतस में व्याप्त है। उसके कारण, जुदा जुदा हो सकते हैं, उसके अंतराल के क्रम में अंतर हो सकता है, उसके शिद्दतपने में फ़र्क़ हो सकता है, उसके एहसास के व्यक्त करने में फ़र्क़ हो सकता है, पर गम तो गम है वह तो, रहेगा ही। ' मौत से पहले आदमी, ग़म से निजात पाये क्यों ! ' ग़म के गीत उस दर्द को सहलाते हैं, और अपनापन देते हैं। यही अपनापन, जब हम उन गीतों में ढूंढते हैं तो, जो समानुभूति हमारे अंदर उपजती है, वही आनन्दित भी करती है।

ग़ालिब अपने दर्द की तासीर बयां कर रहे हैं। रक्त के हर बूंद में दर्द है तो रक्त संचार की गति से दौड़ रहा है। दर्द यहां जीने का कारण बन गया है। वह उन ज़ख्मों को पोषित कर रही है जिन्होंने दर्द दिया है। ग़ालिब को दर्द से मुक्ति भी नहीं चाहिये। यह दर्द उन्हें बेहद पसंद है। वे दर्द आशना हैं । भला इश्क़ से भी बड़ा दर्द हो सकता है कोई ?  ग़ालिब, अपनी पीड़ा में भी दुख नहीं आंनद का अनुभव करते हैं। उन्हें जीवन भी तो पीड़ामय ही मिला था।

यहां एक और महान कवियित्री की याद आती है। वे हैं,  महादेवी वर्मा । उनकी यह पंक्तियां पढें,

पर शेष नहीं होगी यह
मेरे प्राणों की क्रीड़ा,
तुमको पीड़ा में ढूँढा
तुम में ढूँढूँगी पीड़ा !!

दुखवाद या दुख में आनन्द ढूंढने का हौसला बिना दृढ़ आशावाद के आ जाय, यह संभव ही नहीं। जीवन, ढंग से बीते इसलिए दुख के तिमिर में भी प्रकाश की एक रेख ढूंढने का हुनर रखिये, जीना आसान हो जाएगा !

© विजय शंकर सिंह

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