शुजात बुखारी एक प्रतिष्ठित पत्रकार थे। वे राइजिंग कश्मीर के संपादक थे। क्यों वे मारे गए, कैसे मारे गए यह सब धीरे धीरे सतह पर आ जायेगा। पर एक बात साफ है कि आतंकवाद रोकने के लिये सरकार हो सकता है, दृढ़ संकल्प बद्ध हो, पर सरकार यह संदेश देने में सफल नहीं रही कि वह आतंकवाद के खात्मे के लिये दृढ़ संकल्प रखती है। कश्मीर 1989 से ही आतंकवाद की गिरफ्त में है। कश्मीर के अलगाववादियों का आंदोलन और पंजाब का खालिस्तान आंदोलन दोनों ही पाकिस्तान प्रायोजित रहा है तथा है, और यह दोनों ही आंदोलन जनरल जिया उल हक के ऑपरेशन जिब्राल्टर की रणनीति के अंग है। 1980 से 90 तक दस साल से खालिस्तानी आंदोलन को झेलता हुआ पंजाब अंततः शांत हो गया। अब तो उस आतंकवाद का कोई चिह्न ही नहीं है जिसने 1984 - 87 में यह आभास देना शुरू कर दिया था कि पंजाब देश से अलग होकर अब गया कि तब गया। लेकिन तत्कालीन सरकार की दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति और सुरक्षा बलों की कारगर नेतृत्व क्षमता और रणनीति से पंजाब, अंततः आतंकवाद से मुक्त हो गया।
1990 में कश्मीर की हालत बहुत खराब हो गयी थी। तब घाटी में न केवल कर्फ्यू लगा रहता था बल्कि जनसँख्या अनुपात का धार्मिक संतुलन खत्म करने के लिये आतंकी संगठनों ने डरा कर और हत्याएं कर के कश्मीरी पंडितों को, वहां से भगा दिया। ये पंडित या तो जम्मू में आ कर बसे या फिर पंजाब या दिल्ली चले गए। यह एक विचित्र पलायन था। धार्मिक आधार पर ऐसा अंतर्देशीय पलायन इतिहास में कम ही मिलता है। फिर कभी नीम नीम कभी शहद शहद, यह आतंकवाद चलता रहा। लेकिन 1990 जैसी खराब स्थिति अब नहीं है। 2005 ई में मैं जब कश्मीर गया था तभी स्थिति सुधरने लगी थी।
पिछले कई सालों से कश्मीर में भाजपा और पीडीपी की मिली जुली सरकार है। महबूबा मुफ्ती वहां की मुख्यमंत्री हैं। कश्मीर की दो प्रमुख पार्टियों नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी में छत्तीस का रिश्ता है। दोनों ही दलोँ की अपनी अपनी प्रतिद्वन्द्विताएं है और अपने अपने राजनीतिक स्वार्थ भी । यह भी एक अजीब विसंगति है कि बीजेपी पीडीपी के साथ सरकार में है, जब कि कश्मीर को ले कर दोनों में गजब का नीतिगत विरोधाभास है। बीजेपी जब विपक्ष में थी तो कश्मीर समस्या का एक ही रामबाण इलाज उसके पास था, संविधान की धारा 370 का उन्मूलन। पर कश्मीर की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां 370 धारा के उन्मूलन के विरुद्ध हैं। पर आज चार साल से अधिक हो गया है सरकार ने आज तक यह नहीं बताया कि इस धारा पर उसका एक्शन प्लान क्या है। अब उनके समर्थक यह कह सकते हैं राज्यसभा में बहुमत नहीं है आदि आदि। कम से कम सरकार कोई कार्यदल तो बना ही सकती थी जो इस धारा को खत्म करने या न करने के बारे में स्पष्ट तथ्यात्मक रिपोर्ट देती। पर इस मुद्दे पर सरकार बनाने का इरादा तो, भाजपा का था, पर सरकार बना कर इसे भुला देने का एक सुप्त इरादा भी था जो चार साल की चुप्पी से स्पष्ट है। 370 हटाने का एजेंडा केवल और केवल भाजपा का था और किसी भी दल ने यह वादा कभी नहीं किया है क्यों कि उन्हें तथ्य और असलियत पता है।
अभी रमजान के पहले भारत सरकार ने इकतरफा युद्ध विराम / सीज फायर की घोषणा कर के खुद ही अपने दृढ़ संकल्प की पोल खोल दी। कानून व्यवस्था की बड़ी घटनाएं, सामूहिक हत्याएं, आतंकवाद आदि ऐसी समस्याएं हैं जो केवल और केवल सुरक्षा बलों के बल पर नहीं सुलझाई जा सकती है। आज जितना गड़बड़ कश्मीर हैं उससे थोड़ा ही कम, कभी नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय 70 के दशक मेँ बंगाल और 1980 के दशक में पंजाब था। पर राजनैतिक इच्छा शक्ति की दृढ़ता ने न केवल इन दोनों प्रान्तों के आतंकवाद पर काबू पाया बल्कि अब उनके निशान भी वहां नहीं मिलते है।
भारत सरकार रमजान के पवित्र महीने और कश्मीर सरकार की सीएम महबूबा मुफ्ती के अनुरोध का हवाला इस सीज फायर को लागू करने के संदर्भ में दे सकती है। बात सही भी है। पीडीपी सीज फायर के पक्ष में थी और उसे इसी 8 जून को भारत सरकार के गृहमंत्री राजनाथ सिंह से इस सीज फायर को बढाने के लिये अनुरोध भी किया था। पर आज की एक खबर के अनुसार भारत सरकार ने सीज फायर की अवधि बढाने से इनकार कर दिया है। पीडीपी एक क्षेत्रीय दल है और उसकी प्राथमिकताएं उसके राज्य और जनाधार से तय होती है, जब कि बीजेपी एक राष्ट्रीय दल और उसकी प्राथमिकता राष्ट्रीय हित से जुड़ी होनी चाहिये। बीजेपी और पीडीपी दोनों के जनाधार अलग अलग हैं और दोनों ही के जनाधार एक दूसरे के विरोधाभासी भी हैं। इस सीज फायर से पीडीपी को तो लाभ पहुंचा, पर इस से सुरक्षा बलों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव ज़रूर पडा होगा। आतंकियों का हौसला तो बढ़ा ही है। सीज फायर अगर दोनों की सहमति से लागू किया गया है तब तो यह एक आपसी सहमति हो सकती है पर अगर इकतरफा है तो इसका कोई मतलब नहीं है। शुरू में जब इस सीज फायर की आलोचना हुयी तो यह कहा गया कि सुरक्षा बलों पर हमला होगा तो वे जवाब देंगे। हमले पर जवाब देने के लिये सुरक्षा बलों को किसी सरकार से आदेश लेने की ज़रूरत ही नहीं है बल्कि यह तो उन्हें आत्म रक्षा के वैधानिक अधिकार के अंतर्गत प्राप्त ही है।
रमजान का महीना इस्लाम का सबसे पाक महीना है। और अगर यह सोच लिया जाय कि आतंकी इस महीने में अपनी शैतानी हरकतें रोक देंगे तो यह खुद को भ्रम में रखना है। इसी महीने में कम से कम 10 सुरक्षा बलों के जवान मारे गए, आतंकियों के ठिकाने नष्ट किये गए हैं। कश्मीर का आतंकवाद पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित ही नहीं है बल्कि पाकिस्तान द्वारा खुल कर बाकायदे आपूर्ति लाइन बना कर एक क्षद्म युद्ध के रूप में लड़ा जा रहा है। पाकिस्तान इसे कभी स्वीकार नहीं करेगा चाहे जितनी बार पठानकोट का सरकार , आईएसआई से मुआयना करा दे। जिस मुल्क ने मुम्बई हमले के आरोपी को जीवित पकड़े जाने पर स्वीकार नहीं किया, पठानकोट एयरबेस पर हुये हमले में अपनी संलिप्तता होते हुए भी स्वीकार नहीं किया, करगिल के घुसपैठियों को स्वीकार नहीं किया, वे इन आतंकी गतिविधियों में लिप्त आतंकियों को स्वीकार करेंगे ? इकतरफा सीज फायर की घोषणा, और पत्थरबाजों पर से एक साथ मुकदमा वापस लेना यह दोनों ही फैसले अपरिपक्व और गलत है। इससे पीडीपी को तो राजनीतिक लाभ हुआ पर आतंकवादी विरोधी मुहिम को नुकसान हुआ। सामुहिक मुकदमा वापसी सरकार की कमज़ोरी होती है, भले ही सरकार इसे अपनी दरियादिली बताये। इन दोनों फैसलों से यह संदेश गया है कि सरकार आतंकी गतिविधियों के समक्ष झुक सकती है। इन संकेतों से जितना मनोबल आतंकियों का बढ़ता है उतनी ही अन्यमनस्कता सुरक्षा बलों की भी बढ़ जाती है। ऐसे निर्णय दलगत राजनीतिक लाभ हानि से हट कर लिये जाने चाहिये। पर ऐसा कम ही होता है।
शुजात बुखारी की हत्या के बाद वहां स्थिति बिगड़ेगी। ईद के बाद आतंकी गतिविधियां बढ़ सकती हैं। 28 जून से अमरनाथ यात्रा प्रारम्भ हो रही है। यह यात्रा सदैव आतंकवादी समूहों के निशाने पर रही है और इस बार भी रहे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सरकार तैयारी कर रही है और सुरक्षा बल किसी भी आकस्मिक स्थिति से निपटने के लिये तैयार भी हैं। लेकिन आतंकवाद की जटिल समस्या से निपटने के लिये सरकार को अपनी वैचारिक और रणनीतिक धुंधता दूर करनी होगी। सरकार और पार्टी का एजेंडा अलग कर ही इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
© विजय शंकर सिंह
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