सरकार ने संयुक्त सचिव स्तर पर 10 पेशेवर लोगों को नियुक्त करने का निर्णय किया है। ये पेशेवर लोग सिविल सेवा के इम्तेहान के माध्यम से नहीं बल्कि एक इंटरव्यू के द्वारा चुने जाएंगे। इनके पेशेवराना अनुभवों का लाभ सरकार को नीति निर्माण में मिलेगा। ऐसा सरकार का मानना है। सरकार अपनी इस योजना पर कितना सफल होती है, यह तो भविष्य में ही पता चल पाएगा।
अब एक नज़र भारत मे सिविल सेवा के विकास पर भी डालते हैं।
लार्ड कार्नवालिस (गवर्नर-जनरल, 1786-93) पहला गवर्नर-जनरल था, जिसने भारत में इन सेवाओं को प्रारंभ किया तथा उन्हें संगठित किया। उसने भ्रष्टाचार को रोकने और सेवाओं की बेहतरी के लिये निम्न कदम उठाये। क्यो कि लार्ड कार्नवालिस यह मान बैठा था कि , “ हिन्दुस्तान का प्रत्येक नागरिक भ्रष्ट है। ”
* वेतन में वृद्धि।
* निजी व्यापार पर पूर्ण प्रतिबंध।
* अधिकारियों द्वारा रिश्वत एवं उपहार इत्यादि लेने पर पूर्ण प्रतिबंध।
* वरिष्ठता (seniority) के अधर पर तरक्की (Promotion) दिए जाने को प्रोत्साहन।
1793 के चार्टर एक्ट द्वारा 500 पाउंड वार्षिक आय वाले सभी पद, कंपनी के अनुबद्ध अधिकारियों (Covenanted Servents) के लिये आरक्षित कर दिये गये थे। कंपनी के प्रशासनिक पदों से भारतीयों को पृथक रखने के निम्न कारण थे।
* नस्लवाद, जो गोरे रंग या एंग्लो सेक्सन जाति का अहंकार था, जिसने स्वयं को यह मान लिया था कि वे राज करने के लिये ही पैदा हुये हैं। रुडयार्ड किपलिंग सौ साल बाद भी गोरी जाति की ही यह जिम्मेदारी मानते हैं कि वे हम भारतीयों को शिष्ट, सभ्य और सुसंस्कृत करने आये हैं।
* प्राच्य भारतीय परम्पराओं और साहित्य के प्रति अज्ञानता का भाव अंग्रेज़ों में था। जब उन्होंने एशियाटिक सोसायटियों का गठन किया और कुछ अंग्रेज़ विद्वानों ने प्राचीन भारतीय वांग्मय का अध्ययन किया तो उनका यह भ्रम भंग हुआ कि, यहां यूरोप के सभ्यता के इतिहास से कहीं पहले ही भारत मे राजनीति, मौद्रिक व्यवस्था, युद्ध शास्त्र, व्यवसाय, गुरुकुल और विश्वविद्यालयों की एक समृद्ध परंपरा विकसित थी।
* अधिकांश ने भारत को अफ्रीकी और अमेरिकी रेड इंडियन के समान एक बर्बर कबीलाई समाज समझा था और इसे संपेरों और नटों का देश समझ लिया था। हालांकि, सर टॉमस रो ने जहांगीर के दरबार को देख कर चमत्कृत हो जाने की बात भी कही है।
* 1757 ई के प्लासी के युद्ध मे लार्ड क्लाइव ने बंगाल की नवाबी और सेठ अमीचन्द को उत्कोच में धन दे कर , मीर जाफर को पटाया था और तब अंग्रेज़ों ने सिराजुद्दौला को हराया था। उनके मन मे आम भारतीयों के प्रति यह धारणा बैठ गयी कि भारतीय लोग स्वभावतः भ्रष्ट होते हैं और उन्हें धन दे कर खरीदा जा सकता है, इस लिये उन्होंने प्रशासन में स्थान देने से परहेज किया।
* आधुनिक शिक्षा, जिसका अर्थ ही अंग्रेज़ी शिक्षा माना जाता था के न होना भी एक कारण था।
वर्ष 1800 में, वैलेजली (गवर्नर-जनरल, 1798-1805) ने प्रशासन के नये अधिकारियों को प्रशिक्षण देने हेतु कलकत्ता में, फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना की। वर्ष 1806 में कम्पनी के कोर्ट आफ डायरेक्टर्स ने वैलेजली के इस कालेज की मान्यता रद्द कर दी तथा इसके स्थान पर इंग्लैण्ड के हैलीबरी (Haileybury) में नव-नियुक्त अधिकारियों के प्रशिक्षण हेतु ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना की गयी। यहां भारत में नियुक्ति से पूर्व इन नवनियुक्त प्रशासनिक सेवकों को दो वर्ष का प्रशिक्षण लेना पडता था।
1853 के चार्टर एक्ट द्वारा नियुक्तियों के मामले में डायरेक्टरों का संरक्षण समाप्त हो गया तथा सभी नियुक्तियां एक प्रतियोगी परीक्षा के द्वारा की जाने लगीं जिसमें किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं रखा गया।
अंग्रेजों को यह विश्वास था कि ब्रिटिश हितों को पूरा करने के लिये अंग्रेजों को ही प्रशासन का दायित्व संभालना चाहिये। अंग्रेजों की यह धारणा कि भारतीय, ब्रिटिश हितों के प्रति अयोग्य, अविश्वसनीय एवं असंवेदनशील साबित होंगे। अतः यह धारणा कि जब तक इन पदों के लिये यूरोपीय ही पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं तथा उनके बीच ही इन पदों को प्राप्त करने हेतु कड़ी प्रतिस्पर्धा है, तब तक ये पद भारतीयों को नहीं दिये जाने चाहिए।
यद्यपि 1833 के चार्टर एक्ट द्वारा कंपनी के पदों हेतु भारतीयों के लिये भी प्रवेश के द्वार खोल दिये गये किंतु वास्तव में कभी भी इस प्रावधान का पालन नहीं किया गया। 1857 के पश्चात, 1858 में साम्राज्ञी विक्टोरिया की घोषणा में यह आश्वासन दिया गया कि सरकार सिविल सेवाओं में नियुक्ति के लिये रंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगी तथा सभी भारतीय स्वतंत्रतापूर्वक अपनी योग्यतानुसार प्रशासनिक पदों को प्राप्त करने में सक्षम होगे। किंतु इस घोषणा के पश्चात भी सभी उच्च प्रशासनिक पद केवल अंग्रेजों के लिये ही सुरक्षित रहे। भारतीयों को फुसलाने एवं समानता के सिद्धांत का दिखावा करने के लिए डिप्टी मैजिस्ट्रेट तथा डिप्टी कलेक्टर के पद सृजित कर दिये गये, जिससे भारतीयों को लगा कि वे इन पदों को प्राप्त कर सकते हैं किंतु स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही। यह पद भी राजभक्त देशी ज़मीदारों की संतानों के लिये ही खोले गए थे। उन्हें सुविधाएं तो थीं पर अधिकार नहीं थे। यह एक प्रकार से राजभक्ति का प्रसाद था।
इसके बाद भारतीय सिविल सेवा अधिनियम, 1861 ( Indian Civil Services Act 1861) पारित किया गया। इस अधिनियम द्वारा कुछ पद अनुबद्ध सिविल सेवकों के लिये आरक्षित कर दिये गये किंतु यह व्यवस्था की गयी कि प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती के लिये अंग्रेजी माध्यम से एक प्रवेश परीक्षा इंग्लैण्ड में आयोजित की जायेगी, जिसमें ग्रीक एवं लैटिन इत्यादि भाषाओं के विषय होगे। प्रारंभ में इस परीक्षा के लिये आयु 23 वर्ष थी। तदुपरांत यह 23 वर्ष से, 22 वर्ष (1860 में), फिर 21 वर्ष (1866 में) और अंत में घटाकर 19 वर्ष (1878) में कर दी गयी।1863 में, सत्येंद्र नाथ टैगोर ( रवींद्रनाथ टैगोर के बड़े भाई ) ने इंडियन सिविल सर्विस में सफलता पाने वाले प्रथम भारतीय होने का गौरव प्राप्त किया।
1878-79 में, लार्ड लिटन ने वैधानिक सिविल सेवा (Statutory Civil Service) की योजना प्रस्तुत की। इस योजना के अनुसार, प्रशासन के 1/6 अनुबद्ध पद उच्च कुल के भारतीयों से भरे जाने थे। इन पदों के लिये प्रांतीय सरकारें सिफारिश करेंगी तथा वायसराय एवं भारत-सचिव की अनुमति के पश्चात उम्मीदवारों की नियुक्ति कर दी जायेगी। इनकी पदवी और वेतन संश्रावित सेवा से कम होता था। लेकिन यह वैधानिक सिविल सेवा असफल हो गयी तथा 8 वर्ष पश्चात इसे समाप्त कर दिया गया।
1885 में अपनी स्थापना के पश्चात कांग्रेस ने मांग की कि, इन सेवाओं में प्रवेश के लिये आयु में वृद्धि की जाये। तथा
इन परीक्षाओं का आयोजन क्रमशः ब्रिटेन एवं भारत दोनों स्थानों में किया जाये। कांग्रेस तब आज़ादी के लिये तैयार नहीँ हो पायी थी, वह एक सेफ्टी वाल्व के सिद्धांत पर काम कर रही थी।
इसके बाद, लोक सेवाओं पर एचिसन कमेटी, 1886 (Aitchison Committee on Public Services, 1886) का गठन, लार्ड डफरिन ने 1886 में किया। इस समिति की निम्न सिफारिशें थी।
* सेवाओं में अनुबद्ध (Covenanted) एवं अ-अनुबद्ध (uncovenanted) शब्दों को समाप्त किया जाये।
* सिविल सेवाओं को तीन भागों में वर्गीकृत किया जाये-
सिविल सेवाः इसके लिये प्रवेश परीक्षायें इंग्लैण्ड में आयोजित की जायें।
प्रांतीय सिविल सेवाः इसके लिये प्रवेश परीक्षायें भारत में आयोजित की जाये।
अधीनस्थ सिविल सेवाः इसके लिये भी प्रवेश परीक्षायें भारत में आयोजित की जाये।
* सिविल सेवाओं में आयु सीमा को बढ़ाकर 23 वर्ष कर दिया जाये।
1893 में, इंग्लैण्ड के हाऊस आफ कामन्स में यह प्रस्ताव पारित किया गया की इन सेवाओं के लिए प्रवेश परीक्षाओं का आयोजन अब क्रमशः इंग्लैंड एवं भारत दोनों स्थानों में किया जायेगा। किंतु इस प्रस्ताव को कभी कार्यान्वित नहीं किया गया। भारत सचिव किम्बरले ने कहा कि
“सिविल सेवाओं में पर्याप्त संख्या में यूरोपीयों का होना आवश्यक है। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसे त्यागा नहीं जा सकता”।
इसके बाद प्रसिद्ध मांटफोर्ड सुधार, 1919 लागू किया गया।
इन सुधारों में, इस नीति की घोषणा की गयी कि,,
“यदि भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना होती है तो लोक सेवाओं में ज्यादा से ज्यादा भारतीय नियुक्त हो सकेंगे, जो भारतीयों के हित में होगा”।
इसने भी सिविल सेवा की प्रवेश परीक्षा का आयोजन क्रमशः इंग्लैण्ड एवं भारत में कराने की सिफारिश की।
इसने प्रशासनिक सेवा के एक-तिहाई पदों को केवल भारतीयों से भरे जाने की सिफारिश की तथा इसे प्रतिवर्ष 1.5 प्रतिशत की दर से बढ़ाने का सुझाव दिया।
मांटफोर्ड सुधारों के बाद, ली आयोग (1924) का गठन हुआ, जिसने निम्न सिफारिशें कीं-
* भारत सचिव को ही- भारतीय सिविल सेवा, सिंचाई विभाग के इंजीनियरों, तथा भारतीय वन सेवा इत्यादि में नियुक्तियों की प्रक्रिया जारी रखनी चाहिये।
* स्थानांतरित क्षेत्रों यथा- शिक्षा एवं लोक स्वास्थ्य सेवाओं में नियुक्तियों का दायित्व प्रांतीय सरकारों को दे दिया जाये।
* इंडियन सिविल सर्विसेज में भारतीयों एवं यूरोपियों की भागेदारी 50:50 के अनुपात में हो तथा भारतीयों को 15 वर्ष में यह अनुपात प्राप्त करने की व्यवस्था की जाये।
अतिशीघ्र एक लोक सेवा आयोग का गठन किया जाये (1919 के भारत सरकार अधिनियम में भी इसकी सिफारिश की गयी थी)।
भारत सरकार अघिनियम, 1935, में यह सिफारिश की गयी कि केंद्रीय स्तर पर एक संघीय लोक सेवा आयोग तथा प्रांतों में प्रांतीय लोक सेवा आयोगों की स्थापना की जाये। उसी अधिनियम के अनुसार संघ और प्रांतीय लोक सेवा आयोगों की स्थापना हुई।
1947 ई के 21 अप्रैल को सरदार बल्लभ भाई पटेल ने सिविल सेवा ( जो आईसीएस के बजाय आईएएस इंडियन एडमिनिस्ट्रेशन सर्विस बनी, ) के प्रथम बैच के युवा अधिकारियों को, मेटकाफ हाउस में संबोधित करते हुये कहा कि, ये देश के प्रशासन का स्टील फ्रेम है। 21 अप्रैल को इसी लिये सिविल सेवा दिवस मनाया जाता है।
( क्रमशः )
आगे आज़ादी के बाद सिविल सेवा फिर पुलिस सेवा और पुलिस सुधार पर लेख होंगे ।
© विजय शंकर सिंह
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