Wednesday 20 June 2018

कश्मीर घाटी में खीर भवानी - एक यात्रा संस्मरण / विजय शंकर सिंह

जब मैं श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतर कर सीआरपीएफ के ऑफिसर्स मेस में पहुंचा तो गाड़ी से उतरते ही मेस पर निगाह पड़ी तो लिखा देखा, कशिर ऑफिसर्स मेस। एक बार तो लगा कि यह कश्मीर लिखा होगा, हो सकता है लिखने में त्रुटि हो गयी हो। पर जब यही वहां के झंडों पर लिखा देखा तो कमरे में व्यवस्थित होने के बाद मेस तथा आरटीसी, ( यह रिक्रूट ट्रेनिंग सेंटर है ) के कैम्पस में घूमते हुये एक स्थानीय व्यक्ति से पूछा कशिर का क्या अर्थ है ? उत्तर मिला घाटी। वादी। श्रीनगर पहाड़ों से घिरे एक सुरम्य घाटी में स्थित है। इसी विस्तीर्ण घाटी में स्थित श्रीनगर के बीच से झेलम प्रवाहित होती है, और एक बड़ी झील है, जिसे डल कहते है।

इसी घाटी में श्रीनगर से 23 किमी दूर एक गांव है तुलमुला। यह गांव, बालटाल और सोनमर्ग जाने वाले रास्तों के बीच अंदर ग्रामीण क्षेत्र में पड़ता है। इसी गांव में कश्मीर राजपरिवार की कुल देवी खीर भवानी का मंदिर है। यह शक्ति के स्वरूप का मंदिर है। यह इक्यावन मान्यता प्राप्त शक्तिपीठों में नहीं आता है। यह मूलतः भवानी का ही मन्दिर है पर दुग्ध रूप में यहां अवतरित होने के कारण, क्षीर भवानी ( खीर भवानी ) नाम पड़ गया । यहां खीर का प्रसाद भी चढ़ता है और देवी के इस नाम के अतिरिक्त, महाराग्या देवी, रंग्न्या, रजनी, भगवती आदि नाम हैं। इस मंदिर की सुरक्षा का दायित्व सीआरपीएफ की एक कम्पनी के पास है। कश्मीर की स्थितियों को देखते हुये वहां की सुरक्षा व्यवस्था आवश्यक है।

एक सदी पहले तुलमुला गांव एक जंगल था। इसी जंगल मे यह स्थान सबसे पहले बकरवाल लोगों ने खोजा था। यहां मन्दिर के अंदर जो जानकारी दी गयी है, उसके अनुसार, इस देवी से जुड़ी निम्न कथा बतायी गयी।  महाराग्या देवी, की रावण ने पूजा की और देवी ने प्रसन्न होकर, लंका में निवास करने चली गयीं। जब रावण की आसुरी प्रवित्तियाँ बढ़ने लगी तो देवी ने, उसके अत्याचारों से दुःखी हो कर लंका को त्याग देने का निर्णय किया। देवी ने अपनी व्यथा हनुमान से कही, कि उन्हें लंका में नहीं रहना है, उन्हें हिमालय के बीच सतीसर ( जो कश्मीर का एक प्राचीन नाम है ) में जंगलों और उपत्यका में ले चलने की बात कही। हनुमान ने देवी को साथ ले जाने से, अपने अखण्ड ब्रह्मचर्य के खंडित होने की बात कही, और विनम्रता पूर्वक देवी को अपने साथ ले जाने से मना कर दिया। तब देवी ने हनुमान से कहा कि, वह एक कमंडल में दुग्ध के रूप में हनुमान के साथ जाएंगी और इस प्रकार हनुमान का अखण्ड ब्रह्मचर्य भी खंडित नहीं होगा। हनुमान मान गए। देवी ने क्षीर , दुग्ध का रूप ग्रहण किया और वे तुलमुला गांव जहां है वहां चिनार के घने जंगल के बीच आ बसी। यहां शहतूत के भी घने वृक्ष थे। कंबन रामायण में भी इस कथा का आंशिक उल्लेख मिलता है। उस कथा के अनुसार, सीता ,राग्या देवी का ही रूप है। सीता को रावण की पुत्री के रूप में कंबन रामायण में बताया गया है।

यह भी धारणा है कि जिस रात्रि राग्निया देवी ने कश्मीर में आगमन किया वह रात्रि राग्निया रात्रि के नाम से प्रसिद्ध है। राग्निया देवी के नाम पर तुलमुला गांव के इस खीर भवानी मन्दिर के अतिरिक्त कश्मीर में , टीकर, भुवनेश्वर, मज़गाम, ( नूराबाद ) , भेडा, लोकरीरपुर, मणिग्राम, रायथान, और बाइदपुर आदि स्थानों पर भी मंदिर हैं। लेकिन तुलमुला जहां बताते हैं कि कभी 360 जलश्रोत निकल कर सर्प सदृश्य एकत्र होते थे, यही देवी का मुख्य स्थान बना। यह देवी का सात्विक स्वरूप है। सनातन सम्प्रदायो में शाक्त परम्परा जिसे रहस्य या गुह्य परम्परा भी तंत्र साहित्य में कहा जाता है का मुख्य स्थान पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र रहे हैं। शाक्तों का सबसे बड़ा तंत्र पीठ कामाख्या कामरूप जिले में हैं । लेकिन देवी का वैष्णवी रूप पश्चिम हिमालय की तलहटी में मिलता है। शाक्त वामचारी पूजा पद्धति में विश्वास करता है जब कि वैष्णवी स्वरूप उससे बिल्कुल उलट है। यह शांति की देवी हैं।

भारत के इतिहास लेखन में कल्हण की राजतरंगिणी का नाम सबसे प्रमुख है। यह कश्मीर के राजवंशों का इतिहास है। संस्कृत में लिखी इस प्रसिद्ध और ऐतिहासिक पुस्तक का हिंदी अनुवाद वाराणसी के विद्वान और राजनेता रहे, डॉ रघुनाथ सिंह ने किया है। लेकिन यह इतिहास की अकादमिक पुस्तक नहीं है, बल्कि इतिहास को इसमें से छानना पड़ता है। राजतरंगिणी में भी तुलमुला के जलस्रोतों का उल्लेख मिलता है। राजतरंगिणी के अनुसार, इतने जलश्रोत थे कि तुलमुला की भूमि दलदली हो गयी थी। अबुल फजल के आईन ए अकबरी के अनुसार, तुलमुला में सैकड़ों एकड़ की दलदली भूमि थी। यहां के पंडित जी जो मन्दिर में रहते हैं ने इस मंदिर की एक और कथा सुनाई। उनके अनुसार, तुलमुला कश्मीरी पंडितों का पुराना गांव था। गांव का नाम, भी तुलमुला के जंगलों के नाम पर ही पड़ा है। हज़ारो साल पहले यहां बाढ़ आती थी। यह बाढ़ पहाड़ों से बह कर आ रहे जलस्रोतों से लगातार आती रहती थी। इन बाढ़ों से बह कर आई मिट्टी से यहाँ मिट्टी का दलदली ढूहा बनता गया। कश्मीरी पंडित, योगी कृष्ण टपलू को स्वप्न में देवी दिखीं और, कहा कि वह इस कुंड में सर्प के रूप में तैर कर एक पेड़ के पास लिपट जाएंगी और वहीं उनका विग्रह होना चाहिये। जब बाढ़ का पानी कम हुआ तो पंडित जी ने उस स्थान की पहचान की। यह घटना, लगभग डेढ़ दो सौ साल पहले की बताई जाती है। योगी कृष्ण टपलू एक प्रसिद्ध ज्योतिषी भी थे, और लोग बताते हैं कि उनके पास ज्योतिष का प्रसिद्ध प्राचीन ग्रँथ भृगु संहिता की प्रति थी। भृगु संहिता की प्रति अपने पास होने का दावा बहुत से लोग करते हैं। मेरे एक मित्र के अनुसार, भृगु संहिता की एक प्रति होशियार पुर के एक सज्जन के पास भी है। सच क्या है, यह मैं नहीं बता पाऊंगा। वही पास में ही एक विशाल शिवलिंग भी है जिसके मन्दिर को बोहरी कदल कहते हैं। इन्ही टपलू परिवार के माखनलाल टपलू मन्दिर की व्यवस्था देखा करते थे। टपलू परिवार 1990 में जब कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ तो तुलमुला से पलायित कर गया और इन्ही परिवार के अनिल टपलू, दिल्ली में दिलशाद गार्डेन दिल्ली रहते हैं।

पंडित टपलू को दिखे स्वप्न के बाद डेढ़ सौ साल पहले जब देवी के स्थान की महत्ता सर्वज्ञात होने लगी तो यहां भीड़ बढ़ने लगी और दर्शनार्थियों के मेले लगने लगे। लोगों द्वारा, खीर, मिष्ठान्न आदि प्रसाद आदि चढ़ाने से कुंड और स्थान ढंक गया था। जब इसकी सफाई और खुदाई हुयी तो प्राचीन मंदिर के अवशेष निकलने लगे। बहुत सी छोटी छोटी मूर्तियां मिली और इन भग्नावशेषों को देख कर एक सुव्यवस्थित और समृद्ध मन्दिर का प्रमाण मिला। यह मंदिर किसके द्वारा किस काल मे बनाया गया था यह न तो वहां मेरे साथी गाइड बता पाए , न राजतरंगिणी के एक विद्वान मित्र मुझे स्पष्ट कर पाए और न ही गूगलेश्वर से मैं जानकारी कर पाया। 1911 के पहले जब तक इस भग्न मन्दिर का जीर्णोद्धार कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह के निर्देश पर नहीं हो गया था, तब तक इन्ही भग्नावशेषों की पूजा होती थी और इन्ही खंडहरों में मेला लगता था। महाराजा द्वारा कुंड का नए तरह से निर्माण कर के, कुंड के बीचोंबीच संगमरमर का एक छोटा सा देवी मन्दिर,  बनवाया गया जो आजकल मुख्य मंदिर है। कुंड और यह मंदिर कहा जाता है उसी स्थान पर है जिसे देवी ने स्वप्न में पंडित टपलू को बताया था। वहां के पुजारी खुद को उन्ही पंडित टपलू के वृहत्तर परिवार का होना बताते हैं।  तुलमुला गांव भी इस स्थान पर तुलमुल के वृक्षों की बहुतायत होने से पड़ा है। तुलमुल, कश्मीरी भाषा मे शहतूत को कहते हैं। यहां चिनार और शहतूत के घने जंगल थे। अब भी शहतूत के वृक्ष हैं पर वे जंगल नहीं गांव में उगे पेड़ों के उपवन की तरह हैं। तुलमुल नाम भी कश्मीरी भाषा मे संस्कृत के अतुल्य मूल्य से अपभ्रंश के रूप में आने की बात बताई गई। शहतूत के पत्तों पर पलने वाले रेशम के कीड़ों से कश्मीरी रेशम बनता था, अतः अपनी आर्थिक उपयोगिता के कारण यह वृक्ष अतुल्य मूल्य से तुलमुल हो गया और गांव तुलमुला।

प्राचीन तीर्थों से जुड़ी लोक और दंत कथाओं का विस्तार बहुत व्यापक है। टीएन धर, जो एक शिक्षाविद और कश्मीर पर एक आधिकारिक विद्वान हैं ने कश्मीर पर एक रोचक पुस्तक लिखी है, सेंटस एंड सेजेस ऑफ कश्मीर । Saints and sages of Kashmir, जो APH Publishing Corporations, नयी दिल्ली से प्रकाशित है के पृष्ठ 310 पर एक रोचक दंतकथा का उल्लेख है। उक्त दंत कथा के अनुसार, पंडित प्रसाद जू परिमू एक गृहस्थ संत थे जिनकी एक समृद्ध शिष्य परंपरा थी। वह श्रीनगर के सेकिदफ़र नामक गाँव मे रहते थे। झेलम के किनारे बसा यह गांव अब शहर का अंग हो गया है। उन्हें कोई संतान नहीं थी और निःसंतान होने के कारण उन्होंने माधव जू नामक एक बच्चे को गोद लिया। ( जू एक सम्मानजनक सम्बोधन है ). पंडित परिमू अपनी आराध्या खीर भवानी मंदिर में अक्सर जाते थे और इसी क्रम में जब वह वहां ध्यान में लीन थे, तो भवानी ने स्वप्न में उन्हें दर्शन दिया और कहा कि बच्चा गोद लेने की कोई आवश्यकता नहीं थी, वे स्वयं उनके संतान के रूप में जन्म लेने की इच्छुक थीं। देवी के इसी स्वप्न के बाद परिमू की पत्नी ने एक पुत्री को जन्म दिया। यह घटना, पुस्तक के अनुसार 1870 - 80 ई की है। इस प्रकार की तीन और लोकश्रुति की कथाओं का उल्लेख किया गया। संतान प्राप्ति के इच्छुक दम्पति यहां पूजा पाठ भी करवाते हैं।

भारत के दो महान संत, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानंद के भी खीर भवानी जाने का उल्लेख मिलता है। राजकीय डिग्री कॉलेज, भद्रवाह के फिजिक्स के सहायक प्रोफेसर राकेश कुमार पंडित के एक लेख जो उन्होंने स्वामी विवेकानंद की 150 वीं जयंती पर 2014 में लिखा था के अनुसार, जुलाई 27, 1898 को स्वामी विवेकानंद ने अपनी शिष्या निवेदिता के साथ अमरनाथ की यात्रा की थी। उनकी यह तीर्थयात्रा पहलगाम, चन्दनबाड़ी, शेषनाग आदि पड़ावों को पार करते हुये, 1 अगस्त 1898 को बाबा अमरनाथ की गुफा में पहुंची। वे हिम शिवलिंग देख अभिभूत हो गए। शिव, विवेकानंद के आराध्य देव थे। देर तक वे भूमि पर साष्टांग पड़े रहे। अपने इस दिव्य आध्यात्मिक अनुभव को साझा करते हुये सिस्टर निवेदिता से उन्होंने कहा कि यह हिम लिंग, शिव का प्रतीक नहीं बल्कि साक्षात शिव ही थे, उनके समक्ष। अमरनाथ से वे वापस श्रीनगर आये और जिस मुस्लिम की हाउस बोट में वह ठहरे थे, उसकी चार वर्षीय पुत्री की उन्होंने देवी मान कर, उसकी पूजा की और उसका नाम रखा उमा। एक सप्ताह के श्रीनगर प्रवास के बाद विवेकानंद उक्त मुस्लिम परिवार और उसकी चार साल की पुत्री जिसका उन्होंने नामकरण उमा किया था के साथ 30 सितम्बर 1898 को खीर भवानी के लिये प्रस्थान किया। खीर भवानी तब एक भग्न मन्दिर था। यह भग्नावशेष मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तोड़े जाने के कारण बिखरा था। उसी भग्न मन्दिर में 1911 तक पूजा होती थी। वहां वे एक सप्ताह तक रहे और पूजा, अर्चना और ध्यान आदि किया। राकेश कुमार पंडित का यह लेख गूगल पर उपलब्ध है।

जो मुख्य जलधारा जिसके किनारे यह देवी स्थान स्थित है वह माता रागिनी कुंड कहलाता है। यह देवी कश्मीरी पंडितों की भी मुख्य आराध्या देवी हैं। यहां एक मेला भी जून के अंत मे लगता है। इसका भी वही समय है जो अमरनाथ यात्रा का होता है। मान्यता यह भी है, जल स्रोतों का रंग समय समय पर बदलता रहता है। इसका कारण तलहटी में पड़े, पहाड़ो से आये रंग बिरंगे पत्थर हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि विशिष्ट रंगों के परिवर्तन से भविष्य की कुछ घटनाओं का भी संकेत मिलता है। 1886 में वाल्टर लारेंस जब जम्मू कश्मीर रियासत का सेटलमेंट कमिश्नर था, तो उसने अपनी रिपोर्ट में इन बदलते रंगों और रंगों से जुड़ी ज्योतिषीय मान्यताओं का उल्लेख किया है। उसने स्वयं रंग बदलते श्रोत को देखा था। अब वहां जल कुंड है, चारों ओर बसा गांव है और देवी स्थान है। जलश्रोत अब नहीं है।

हमलोग देर तक खीर भवानी मंदिर के परिसर में रहे। वहां और भी दर्शनार्थी थे। परिसर बड़ा है और चारो ओर माला प्रसाद से सजी हुई दुकानें हैं। अधिकतर दुकानें स्थानीय गांव वालों की ही हैं, जो लगभग सभी मुस्लिम है। पूरे गांव में आठ दस घर पंडितों के हैं जो मेले के समय आते हैं और फिर जम्मू चले जाते हैं। कश्मीर की अशनि स्थिति का अनुमान मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था को देख कर आसानी से लगाया जा सकता है। पर जितनी रोकटोक काशी विश्वनाथ और मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि मन्दिर में हैं, वैसी यहां नहीं है। यहां मुख्य आशंका पाकिस्तान से भेजे गए आतंकियों से है न कि स्थानीय मुस्लिमों से। अमरनाथ यात्रा के समय ही यहां मेला लगता है तब यहां दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है। अभी उतनी भीड़ नहीं है।

© विजय शंकर सिंह

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