7 जून 2018 को प्रणव मुखर्जी ने संघ के मुख्यालय नागपुर में जा कर और स्वयंसेवक बन्धुओं को सम्बोधित कर के एक स्वस्थ परम्परा और बहुलतावादी सोच का परिचय ही दिया है। संसार मे कुछ भी अस्पृश्य नहीं हो सकता है। विचारों से परहेज केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकता है कि, कोई संगठन या व्यक्ति विपरीत विचारधारा का हैं। संघ का साहित्य पढिये और खुद आप उनमें गंभीर विरोधाभास पाएंगे। संघ के हिंदुत्व और राष्ट्र की व्याख्या की सनातन दार्शनिक सोच से जब भी तुलना आप करेंगे तो दोनों को एक दूसरे से विपरीत ही पाएंगे।
मैं प्रणव मुखर्जी के भाषण का टेक्स्ट प्रस्तुत कर रहा हूँ। उनका भाषण अंग्रेजी में है। यह टेक्स्ट एनडीटीवी न्यूज़ से लिया गया है। भाषण का हिंदी अनुवाद मेरे द्वारा किया गया है। अनुवाद कार्य का मुझे, कोई अनुभव नहीं है। अतः गलतियां हो सकती हैं। टेक्स्ट का मूल अंग्रेजी अंश आप ब्लॉग के लिंक को खोल कर पढ़ सकते हैं।
अब हिंदी में यह भाषण पढ़ें।
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सरसंघचालक मोहन भागवत जी, प्रतिनिधिगण, देवियों और सज्जन,
1. आज मैं यहां राष्ट्र, राष्ट्रवाद, और देशभक्ति की अवधारणा को जो मैं समझता हूं, को अभिव्यक्त करने के लिये उपस्थित हुआ हूँ। ये तीनों संदर्भ एक साथ इतने जुड़े हुये हैं कि किसी एक विंदु पर भी बिना अन्य दो विन्दुओं को छुए, चर्चा करना कठिन है।
2. आइए, अब हम इन शब्दों के अर्थ जो शब्दकोशों में दिये गये हैं, पर एक नज़र डालें।
राष्ट्र की परिभाषा,
" लोगों का एक बड़ा समूह, जो एक समान संस्कृति, भाषा, इतिहास और रहन सहन, के साथ एक क्षेत्र विशेष में रहता है, राष्ट्र कहलाता है। "
राष्ट्रवाद की परिभाषा,
" अपने राष्ट्र के प्रति पहचान रखते हुये अपने राष्ट्र के हित के प्रति लेकिन अन्य राष्ट्रों के हितों के विरुद्ध भी रहते हुये, समर्पित रहना है। "
देशभक्ति की परिभाषा है,
" अपने देश के प्रति समर्पण और देश के लिये निरन्तर सन्नद्ध रहना है । "
3. आइए, अब हम इन सब विषयों को अपने देश के संदर्भों में देखें। भारत दुनिया भर से, विभिन्न व्यापारिक रास्तों, सिल्क मार्ग और मसालों के मार्ग से जुड़ा हुआ, एक खुला समाज था। इन राजमार्गों के कारण भारत मे दुनिया भर के, व्यवसाय, बौद्धिक विद्वान, संत और भारत विजय की आकांक्षा लिये लोग, आते और जाते रहे हैं, जिससे संस्कृति और आस्था का व्यापक आदान प्रदान होता रहा है। ऐसे ही समागम के कारण बौद्ध धर्म , हिन्दू धर्म के व्यापक प्रभाव के साथ साथ, मध्य एशिया, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया में पहुंचा था । चौथी सदी ईसा पूर्व में आने वाले यात्री मेगस्थनीज, पांचवी सदी में आने वाले चीनी यात्री फ़ाहियान और सातवीं सदी में आने वाले ह्वेनसांग ने भारत का भ्रमण किया और, यहां की कुशल प्रशासनिक व्यवस्था, नियोजित रहन सहन, और समृद्ध ढांचागत व्यवस्था की विशद चर्चा की । भारत मे स्थित, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, बलभी, सोमापुरा और ओदंतपुरी के विश्वविद्यालयों की समृद्ध परंपरा छठी सदी ईसा पूर्व से लेकर 1800 सालों तक लगभग बनी रही। इन्होंने दुनिया भर की प्रतिभाओं को अपनी बौद्धिक समृद्धि और प्रतिभा के कारण आकर्षित किया । उदार स्वरूप होने के कारण, कला और साहित्य के क्षेत्र में इन संस्थाओं ने व्यापक प्रगति की थी। राज व्यवस्था पर आचार्य चाणक्य का लिखा ग्रन्थ अर्थशास्त्र इसी कालावधि की अद्भुत रचना है।
4. वेस्टफेलिया के 1648 के समझौते के बाद, यूरोपीय नेशन स्टेट की अवधारणा बनी थी, लेकिन इस अवधारणा के बहुत पहले से ही भारत मे राज्य की अवधारणा विकसित हो गई थी। वेस्टफेलिया के अवधारणा के अनुसार एक तयशुदा भौगोलिक क्षेत्र, एक भाषा, एक धर्म और एक समान शत्रु से घिरा भौगोलिक क्षेत्र यूरोपीय नेशन स्टेट की अवधारणा के अनुसार, एक राष्ट्र माना गया, जब कि भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास, वसुधैव कुटुम्बकम, सर्वे भवन्तु सुखिनः और सर्वे संतु निरामया के उदार विचारों से उद्भूत विश्ववाद से हो चुका था। हम पूरे विश्व को एक परिवार के रूप देखते हैं, और सभी की प्रसन्नता और अच्छे स्वास्थ्य के लिये प्रार्थना करते हैं। हमारी राष्ट्रीय पहचान का विकास ही समवेतता, सामंजस्यता, और सह अस्तित्व के सिद्धांतों पर आधारित है। संस्कृति, आस्था, और भाषागत विविधता में एकता के कारण ही हम स्थान, विश्व मे एक अलग स्थान रखते है। सहिष्णुता हमारी शक्ति है। हम अपनी बहुलतावादी संस्कृति को स्वीकार और इसका सम्मान करते हैं। विविधता हमारे लिये एक पर्व के समान है। यह विविधता हमारी सामुहिक चेतना में सदियों से रची बसी है। क्षेत्रबाद घृणा, असहिष्णुता, धार्मिक पहचान और विचारधारा के आधार पर हमारे राष्ट्रवाद की अगर नए तरह से व्याख्या की जाएगी तो इससे हमारी पहचान समाप्त हो जाने का खतरा है। हमारे समाज मे मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इन सब मतभेदों के बावजूद भी, हम एक साझी संस्कृति, साझा साहित्य और साझी सभ्यता के साथ ( विश्व मे ) एक अलग और विशिष्ट ईकाई बने हुये हैं। प्रख्यात इतिहासकार विंसेंट स्मिथ के शब्दों में,
" भौगोलिक विभिन्नताओं और अलग , अलग राजनीतिक सत्ता के बावजूद भी भारत आंतरिक रूप से सदैव एक रहा है। यह एकता भी, रक्त, भाषा, वेशभूषा, व्यवहार और सम्प्रदाय की अनेक विभिन्नताओं के बावजूद अक्षुण्ण रही है। "
5. अगर हम इतिहास पर सरसरी निगाह डालें तो छठी सदी ईसा पूर्व में उत्तर भारत के षोडश महाजनपदों के साथ आधुनिक भारतीय राज्य की अवधारणा का जन्म होता है। चौथी सदी ईसा पूर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानी आक्रमणकारियों को पराजित कर उत्तर पश्चिम और उत्तर भारत मे एक महान साम्राज्य की स्थापना की थी । अशोक, इस राजवंश का सबसे महान शासक हुआ। 185 ईसा पूर्व के बाद मौर्य साम्राज्य बिखर गया और भारत अनेक छोटे छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। फिर गुप्त वंश ने एक महान और समृद्ध साम्राज्य की स्थापना की, जो 550 ईस्वी तक शेष रहा। फिर बारहवीं सदी तक अनेक राजवंशों ने , मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा देश पर आक्रमण कर इस पर अधिकार कर लेने तक, शासन किया और मुस्लिम आक्रमणकारियों के अनेक वंशो ने 300 साल तक राज किया। पानीपत के प्रथम युद्ध मे बाबर ने 1526 ई में अंतिम लोधी सुल्तान को पराजित कर के मुग़ल वंश की नींव डाली जिसने 300 वर्षों तक देश पर राज किया। 1757 ई में अंग्रेज़ो द्वारा प्लासी के युद्ध और 1746 से 63 तक अर्काट के युद्धों में, दक्षिण के क्षेत्रों को जीतने के बाद देश के एक बहुत बड़े भूभाग पर अपना अधिकार जमा लिया। इसके बाद, पश्चिम में भी एक बड़े भूभाग पर अपना कब्जा जमाने के बाद 1774 ई में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नियमित प्रशासन व्यवस्था की नींव डाली। शासन चलाने के लिये कलकत्ता के फोर्ट विलियम में गवर्नर जनरल का एक पद और उसके सहायता हेतु बम्बई और मद्रास में दो अधीनस्थ गवर्नरों के पदों का सृजन किया गया। लगभग 140 वर्षो तक कलकत्ता, ब्रिटिश सत्ता का केंद्र बना रहा। हालांकि 1858 ई में ईस्ट इंडिया कम्पनी से प्रशासन की जिम्मेदारी बिटिश सरकार ने सीधे अपने अधीन ले ली और भारतीय प्रशासन के पर्यवेक्षण के लिये सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ़ॉर इंडिया का पद सृजित कर दिया ।
6. 2500 वर्षो के राजनीतिक उथल पुथल और आक्रमणों तथा 5000 वर्षों तक देश की सांस्कृतिक धारा अनावरत प्रवाहित होती रही। वास्तविकता तो यह है कि हर विजेता और हर विदेशी जाति को भारत की सांस्कृतिक धारा ने अपने मे समाहित कर लिया। टैगोर ने जैसा कि अपनी एक कविता " भारत तेहा " में कहा है, और में उसे उद्धरित करूँगा,
" कोई नहीं जानता कि, किसकी पुकार पर
मानवता की अनेक धाराओं ने
दुर्दम्य लहरों के समान
विश्व के कोने कोने से आकर
एक सहस्राब्दी में, सरिता बन,
एक महासागर में तिरोहित हो गयी
और जो एक आत्मा बनी,
वही भारत है। "
7. आधुनिक भारतीय राज्य की अवधारणा के निर्माण में अनेक संस्थाओं का योगदान रहा, जिनमे से एक इंडियन नेशनल कांग्रेस प्रमुख थी। 1885 के पुणे अधिवेशन के अध्यक्ष सुरेंद्र नाथ बनर्जी से लेकर अन्य अध्यक्षों ने भी समस्त भारतीय भूभाग जो ब्रिटिश भारत के अधीन और 565 देशी रियासतों के अधीन था को भारत की राष्ट्रीय पहचान के रूप में देखा और इसे स्थापित किया। " स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है " बाल गंगाधर तिलक के ये शब्द जब उनके वकील बैरिस्टर जोजेफ बैप्टिस्टा द्वारा न्यायालय में कहे गये तो इस वाक्य में आये स्वराज्य का तात्पर्य पूरे भारत जिसमे सभी जाति, नस्ल, और धर्म जो सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत और देसी रियासतों तक विस्तारित था, की स्वाधीनता से था। राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा किसी भौगोलिक क्षेत्र, भाषा, जाति, और धर्म के बंधन से परे थी। जैसा कि गांधी जी ने कहा था कि भारतीय राष्ट्रवाद न तो खास समाज के लिये है, न ही आक्रामक और न ही विध्वंसक है। यह वह राष्ट्रवाद है जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में व्याख्यायित किया है जिसे मैं उद्धरित कर रहा हूँ,
" मैं इस बात से मुतमईन हूँ कि राष्ट्रवाद हिन्दू मुस्लिम सिख और अन्य दीगर तबक़ों के वैचारिक तालमेल से ही पैदा होगा। इसका यह मतलब कत्तई नहीं है कि कोई एक विशेष संस्कृति समाप्त हो जाय बल्कि इसका यह मतलब है कि राष्ट्रीय परिदृश्य में सभी संस्कृतियां एक साथ फलते फूलते रहें। "।
हमारे स्वाधीनता संग्राम में साम्राज्य विरोधी और ब्रिटिश शासन की विरोधी सभी ताक़तों ने जिसमे मूलतः प्रगतिशील शक्तियां थीं ने अपने वैचारिक और राजनीतिक मतभेदों को भुला कर, कंधे से कंधा मिला कर संघर्ष किया है।
8. हमने 1947 में स्वाधीनता प्राप्त की। हम बल्लभभाई पटेल के आभारी हैं कि उनके प्रयासों से सभी देसी रियासतें भारत गणराज्य में विलीन हुयीं। राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों पर देश के विभिन्न राज्यों का गठन, देसी रियासतों के विलय होने के बाद सम्पन्न हुआ।
9.अत्यंत आदर्श और साहस के साथ, 26 जनवरी 1950 को, हम भारत के लोगों ने, देश के संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य के संकल्प के साथ, एक संविधान को अंगीकृत किया, जिसने देश के समस्त को नागरिकों को न्याय, समानता और स्वतंत्रता का अधिकार समान भाव से दिया। हमने सभी के बीच भाईचारा, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता की बात की। ये आदर्श, भारत के मुख्य विंदु बन गए। शांति, उद्भव, और सदियों के औपनिवेशिक साम्राज्य से उत्पन्न, विपन्नता को दूर करने के लिये लोकतंत्र, सबसे मूल्यवान उपकरण सिद्ध हुआ। हमारे लिये लोकतंत्र एक उपहार नहीं है बल्कि एक पवित्र संकल्प है । 395 अनुच्छेदों और 12 अनुसूचियों से बंधा हुआ हमारा संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज ही नहीं है, बल्कि देश के आर्थिक सामाजिक बदलाव का एक महा घोषणापत्र ( मैग्ना कार्टा ) है। राष्ट्रवाद, हमारे संविधान से उद्गमित होता है। हमारे राष्ट्रवाद का निर्माण, संवैधानिक देशभक्ति से होता है, जिसमें बहुलतावाद, खुद को निरन्तर सुधारने की इच्छा और सभी की नागरिकताओं के सम्मान का भाव निहित है।
प्रतिनिधिगण, देवियों और सज्जनों,
अपने पचास साल के सार्वजनिक जीवन मे, जो मैंने एक सांसद और प्रशासक के रूप में बिताया है , के कुछ सत्य, जो मेरे अंतस में हैं आप सब से साझा करना चाहूंगा।
10. भारत की आत्मा, बहुलतावाद और सहिष्णुता में निवास करती है। हमारे समाज की यह बहुलता, सदियों से देश मे चले आ रहे विभिन्न विचारों के सामंजस्य का परिणाम है। धर्म निरपेक्षता और समन्वयवाद हमारे लिये एक आस्था के समान है। भारत का राष्ट्रवाद, एक भाषा, एक धर्म, और एक शत्रु से उपजने वाले यूरोपीय राष्ट्रवाद की तरह का, राष्ट्रवाद नहीं है। अनादि काल से चले आ रहे इस वैश्विकवाद में, 1अरब 30 करोड़ लोग जो अपने दिन प्रतिदिन के कार्य मे 122 भाषाएं, 1600 बोलियां बोलते हैं, 7 प्रमुख धर्मों को मानते हैं, 3 मुख्य नस्लों, आर्य, मंगोल और द्रविड़ से सम्बंधित हैं, एक तंत्र, एक ध्वज और एक पहचान, जो भारतीय है और इनमे से, कोई किसी का शत्रु नहीं है, मिल कर भारत का निर्माण करते हैं। यही विशिष्टताएं अनेकता में एकता लिये देश को एक विशिष्ट भारत बनाती हैं।
11. तथ्यों से सम्पुटित और जनता द्वारा की जाने वाली तार्किक बहस सभी जन समस्याओं पर, स्वस्थ लोकतंत्र के लिये एक अनिवार्य प्रक्रिया है। संवाद, केवल इस लिये ही आवश्यक नहीं है कि, वह अपना पक्ष रखता है बल्कि वह इस लिये भी ज़रूरी है कि हम स्वस्थ संवाद से अपने विरोधी को समझा भी सकें। ऐसे जन संवाद के दौरान विपरीत विचार और तर्कों को मान्यता देना ही चाहिये। हम बहस कर सकते हैं, हम सहमत हो सकते हैं, और हम विपक्ष से असहमत भी हो सकते हैं। लेकिन हम विचारों की बहुलता की महत्ता को इनकार नहीं कर सकते हैं। राजनीति में बिना अस्वस्थ विवाद के केवल संवाद ही एक मात्र मार्ग है जिससे हम जटिल समस्याओं का निदान ढूंढ सकते हैं।
12. शांतिपूर्ण सह अस्तित्व, सहानुभूति पूर्ण दृष्टि, जीवन के प्रति सम्मान, प्रकृति से जुड़ाव हमारी सभ्यता के अंग रहे हैं। जब जब किसी बच्चे या महिला पर क्रूर अत्याचार होता है, भारत की आत्मा आहत होती है। क्रोध की हिंसक अभिव्यक्ति हमारे सामाजिक ताने बाने को क्षीण कर रही है। प्रतिदिन हम बढ़ती हुयी हिंसा की खबरें सुनते हैं। इस हिंसक मनोभाव का कारण, अज्ञानता, भय और अविश्वास है। हमे अपने आचरण में दैहिक और वाचिक हिंसा से दूर रहना होगा। केवल एक अहिंसक समाज ही देश के सभी लोगों को, विशेषकर, हाशिये पर पड़े हुये समाज और वंचित वर्ग को, लोकतांत्रिक प्रक्रिया का लाभ दे सकता है। हमें शांति, सद्भाव और प्रसन्नता के लिये निश्चित रूप से क्रोध और हिंसा का परित्याग करना होगा।
12.A. हमने दुःख और तनाव के साथ एक लंबा जीवन जिया है। आप सभी युवा, अनुशासित, प्रशिक्षित और बहुत शिक्षित भी हैं। कृपया शांति, सद्भाव और प्रसन्नता के लिये प्रार्थना कीजिए, आज भारत माता को इसी की आवश्यकता है।
13. प्रसन्नता, मानव जीवन का मूल है। स्वस्थ, प्रसन्न और ऊर्जावान जीवन जीना सभी नागरिकों का मौलिक अधिकार है। हालांकि हमने आर्थिक क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति की है पर प्रसन्नता की विश्व सूची में हम पीछे हैं। 2018 के विश्व प्रसन्नता इंडेक्स के 156 देशों की सूची में हम 133 वें स्थान पर हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र का यह श्लोक संसद भवन के लिफ्ट संख्या 6 पर उत्कीर्ण है।
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् ।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ।।
प्रजा के सुख में ही राजा का सुख निहित है, और प्रजा के हित मे राजा का हित। उसे केवल वही कार्य नहीं करना चाहिये जो केवल उसे ही प्रसन्नता दे बल्कि वह करना चाहिये जो प्रजा को प्रसन्न करे।
कौटिल्य ने इस श्लोक में, बड़े ही सारगर्भित रूप से यह बताया है कि राज्य ही जन है। जनता ही राज्य के सभी व्यापार में केंद्र में है और ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे जनता में बंटवारा हो। राज्य का उद्देश्य जन सहयोग से विपन्नता, रुग्णता, कुपोषण के विरुद्ध संघर्ष और आर्थिक प्रगति को विकास के पथ पर ले जाना है। शांति, सद्भाव और प्रसन्नता के प्रसार की जन नीति हमारे राज्य और नागरिकों के हित मे दिन प्रतिदिन होती रहे, यही और केवल यही भाव ही, हमें एक प्रसन्न राष्ट्र बना सकता है जहां से हमारा राष्ट्रवाद स्वतः मुखरित होता है।
धन्यवाद।
जय हिंद।
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जब प्रणव मुखर्जी को आरएसएस मुख्यालय नागपुर में आमंत्रित किया गया तो इसकी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं हुई। कांग्रेस ने, हालांकि प्रणव दा अब कांग्रेस के सदस्य नहीं हैं , इस विंदु पर विपरीत प्रतिक्रिया दी। संघ और कांग्रेस में वैचारिक विरोध है और दोनों ही कई विषयों पर अलग अलग राय रखते हैं।
प्रणव मुखर्जी 7 जून को नागपुर गये और उन्होंने एक बेहद मौलिक विंदु पर अपना व्याख्यान दिया। यह नहीं पता कि राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति विषय पर व्याख्यान देने के लिये यह विषय संघ ने सुझाया था या प्रणव जी का यह अपना चयन है। फिर भी चयन निर्णय जिस किसी का भी हो, यह विषय ज्वलंत है, और सामयिक भी। संघ खुद को हिंदुत्व के रक्षक और देश की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के ध्वजवाहक के रूप में प्रस्तुत करता है। संघ का राष्ट्रवाद, सावरकर के हिन्दू महासभा के 1937 ई के अधिवेशन में प्रतिपादित किये ' धर्म ही राष्ट्र है ' के सिद्धांत पर आधारित राष्ट्रवाद है या इस भाषण में व्यक्त किये गए सनातन राष्ट्रवाद की तरह है। संघ साहित्य में जितना मैंने पढ़ा है, उनके राष्ट्रवाद और यूरोपीय नेशन स्टेट के राष्ट्रवाद में मुझे समता मिलती है। प्रणव मुखर्जी के इस विद्वतापूर्ण व्याख्यान के सम्बंध में आरएसएस ने कोई अधकृत प्रतिक्रिया दी है या नहीं यह तो मैं नहीं बता पाऊंगा, पर टीवी डिबेट में संघ विचाररक के नाम से शिरकत करने वाले राकेश सिन्हा ने प्रणव मुखर्जी के वक्तव्य का स्वागत किया है।
किसी भी विचारधारा को जब आप अस्पृश्य मान बैठते है तो उस विचारदर्शन का भला ही होता है। वैचारिक शास्त्रार्थ विचारधाराओं को एक प्रकार से तराशता है। वह कुछ को सहमत करता है तो कुछ असहमति के भी विंदु होते हैं। सहमति और असहमति से ही विचारदर्शन का खोखलापन और उसकी ताकत पता चलती है। चार्ल्स डार्विन का जगत प्रसिद्ध सिद्धांत सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट, योग्यतमावशेष जीव विज्ञान या विकासवाद के लिये उपयुक्त हो या न हो, पर वह विचारधाराओं के इस संघर्ष में , मुझे आज भी उपयुक्त लगता है। जो भी विचार, उदार, जनहितकारी और मनुष्य की सर्वांगीण प्रगति के सोपान की ओर ले जाएंगे वे ही जीवित रहेंगे शेष इतिहास में दफन हो जाएंगे।
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Here is the full text of President Pranab Mukherjee's Address:
Nation, Nationalism and Patriotism
Greetings,
Sarsanghchalak Shri Mohan Bhagwat Ji, Delegates, Ladies and Gentlemen
1. Today, I'm here to share with you my understanding of the concepts of Nation, Nationalism and Patriotism in the context of India, that is Bharat. These three concepts are so closely intertwined that it is difficult to discuss any one of them in isolation.
2. Let us make a beginning by understanding the dictionary meaning of these three words. Nation is defined as 'a large group of people sharing the same culture, language or history and inhabiting a particular state or area'. Nationalism is defined as 'identification with one's own nation and support for its interests especially to the exclusion of interests of other nations'. Patriotism is defined as 'devotion to and vigorous support for one's country'.
3. Let us look at our roots,
India was an open society, globally connected along the Silk and Spice Routes. These busy highways of commerce and conquest witnessed a free exchange of culture, faith and invention as merchants, scholars and sages traversed mountain and desert and sailed the oceans. Buddhism reached Central Asia, China and Southeast Asia together with Hindu influences . Ancient travelers like Megasthenes in the 4th century B.C., Fa Hien in the 5th century A.D. and Hiuen Tsang in the 7th century AD; when they came to India, wrote about the efficient administrative systems with planned settlements and good infrastructure. Takshashila, Nalanda, Vikramashila, Valabhi, Somapura and Odantapuri comprised the ancient university system that dominated the world for 1,800 years beginning the sixth century BCE. They were magnets for the finest minds and scholars in the world. In the liberal environment of these institutions creativity found full form and art, literature, and scholarship flourished. Chanakya's Arthashastra, an authoritative text on state-craft was also written during this period.
4. India was a state long before the concept of the European Nation State gained ground after the Treaty of Westphalia in 1648. This model- of a defined territory, a single language, shared religion and a common enemy- is the model which led to the formation of various nation states in Europe. On the other hand Indian Nationalism emanated from "Universalism" the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam (वसुधैव कुटुम्बकम) and Sarve Bhavantu Sukhinah, Sarve Santu Niramayah. We see the whole world as one family and pray for the happiness and good health of all. Our national identity has emerged through a long drawn process of confluence, assimilation, and co-existence. The multiplicity in culture, faith and language is what makes India special. We derive our strength from tolerance. We accept and respect our pluralism. We celebrate our diversity. These have been a part of our collective consciousness for centuries. Any attempt at defining our nationhood in terms of dogmas and identities of religion, region, hatred and intolerance will only lead to dilution of our national identity. Any differences that may appear are only on the surface but we remain a distinct cultural unit with a common history, a common literature and a common civilization . In the words of the eminent historian Vincent Smith, "India beyond all doubt possesses a deep underlying fundamental unity, far more profound than that produced either by geographical isolation or by political superiority. That unity transcends the innumerable diversities of blood, colour, language, dress, manners, and sect" .
5. If we take a quick look at history the emergence of the Indian State can be traced back to the sixteen Mahajanapadas mostly spread across Northern India in the 6th century BC. In the 4th century BC, Chandragupta Maurya defeated the Greeks to build a powerful empire comprising of North-Western and Northern India. Emperor Ashoka was the most illustrious ruler of this dynasty. After the collapse of the Mauryan Dynasty, the empire broke into small kingdoms around 185 BC. Gupta Dynasty again created a vast empire which collapsed around 550 AD. Many dynasties ruled till 12th century, when Muslim invaders captured Delhi and successive dynasties ruled for the next 300 years. Babur defeated the last Lodhi King in 1526 at the First Battle of Panipat and firmly established Mughal rule which continued for 300 years. The East India Company after winning the Battle of Plassey in 1757, and the Three Battles of Arcot (1746-63) brought a vast territory in East and South of India under its control. A large part of western region was also annexed to the company's territory and to administer these territories, a modern form of government was established in 1774. To administer these territories, the office of Governor General at fort William, Calcutta and two sub-ordinate governors at Madras and Bombay were created. For nearly 140 years, Calcutta was the centre of British Authority in India. However, the responsibility of administration was taken away from the East India Company in 1858 and the Secretary of State for India was appointed in the British Cabinet to super intend the Indian Administration.
6. Throughout this period of 2500 years of changing political fortunes and conquests, the 5000 year old civilizational continuity remained unbroken. In fact, each conqueror and each foreign element had been absorbed to form a new synthesis and unity . Tagore in his poem 'Bharat Teha' says and I quote "......No one knows at whose beckoning call how many streams, of humanity came in indomitable waves from all over the world, over the millennia and mingled like rivers, into this vast ocean and created an individual soul, that is called Bharat".
7. The concept of Modern Indian State found frequent articulation by various Indian organizns including the Indian National Congress towards the end of nineteenth century. Starting with Shri Surendranath Banerjee in 1895 at Pune, all Congress Presidents gave a call for an Indian Nation comprising the territorial areas of British India and the territories of 565 princely states. When Bal Gangadhar Tilak gave voice to the phrase coined by Barrister Joseph Baptista "Swaraj is my Birthright and I shall have it", he referred to Swaraj for the Indian People - encompassing various castes, creeds, and religions, spread across British India, and Princely States. This Nation and Nationalism was not bound by geography, language, religion, or race. As Gandhiji explained Indian nationalism was not exclusive, nor aggressive, nor destructive. It was this Nationalism that Pandit Jawaharlal Nehru so vividly expressed in the 'Discovery of India', and I quote, "I am convinced that Nationalism can only come out of the ideological fusion of Hindu, Muslim, Sikh and other groups in India. That does not mean that extinction of any real culture of any group, but it does mean a common national outlook, to which other matters are subordinated". In the process of our movement against British Rule, the various anti-colonial, anti-British and mostly progressive movements across the length and breadth of the country were unified into a cohesive national struggle for freedom, keeping the feeling of patriotism above their individual, ideological and political leanings.
8. We won independence in 1947. Thanks to the efforts of Sardar Vallabhbhai Patel, the Princely States merged leading to the consolidation of India. The complete integration of Provincial and Princely States took place after the formation of states on the recommendation of States Re-organisation Commission.
9. On 26 January 1950, the Constitution of India came into effect. In a remarkable display of idealism and courage, we the people of India gave to ourselves a sovereign democratic republic to secure for all its citizens justice, liberty, and equality. We undertook to promote among all citizens fraternity, the dignity of the individual and the unity of the nation. These ideals became the lodestar of the modern Indian State. Democracy became our most precious guide towards peace and regeneration from the swamp of poverty created by centuries of colonial rule. For us, Democracy is not a gift, but a sacred trust. The Indian Constitution, consisting of 395 articles and 12 schedules, is not merely a legal document but a Magna Carta of socio-economic transformation of the country. It represents the hopes and aspirations of the billion plus Indians. From our constitution flows our nationalism. The construct of Indian nationalism is 'Constitutional Patriotism', which consists of an appreciation of our inherited and shared diversity; a readiness to enact one's citizenship at different levels; the ability to self correct and learn from others .
Delegates, Ladies and Gentlemen,
I want to share with you some truths that I have internalized during my fifty year long public life, as a Parliamentarian and Administrator.
10. The soul of India resides in pluralism and tolerance. This plurality of our society has come through assimilation of ideas over centuries. Secularism and inclusion are a matter of faith for us. It is our composite culture which makes us into one nation. India's Nationhood is not one language, one religion, one enemy. It is the 'Perennial Universalism' of 1.3 billion people who use more than 122 languages and 1600 dialects in their everyday lives, practice 7 major religions, belong to 3 major ethnic groups- Aryans, Mongoloids, and Dravidians live under one system, one flag and one identity of being 'Bhartiya' and have 'No Enemies'. That is what makes Bharat a diverse and united nation.
11. In a democracy, informed and reasoned public engagement on all issues of national importance is essential. A dialogue is necessary not only to balance the competing interests but also to reconcile them. Divergent strands in public discourse have to be recognized. We may argue, we may agree, or we may not agree. But we cannot deny the essential prevalence of multiplicity of opinion. Only through a dialogue can we develop the understanding to solve complex problems without an unhealthy strife within our polity.
12. Peaceful co-existence, compassion, respect for life, and harmony with nature form the foundation of our civilization. Every time a child or woman is brutalized, the soul of India is wounded. Manifestations of rage are tearing our social fabric. Every day, we see increased violence around us. At the heart of this violence is darkness, fear, and mistrust. We must free our public discourse from all forms of violence, physical as well as verbal. Only a non-violent society can ensure the participation of all sections of people in the democratic process, especially the marginalized and the dispossessed. We must move from anger, violence, and conflict to peace, harmony, and happiness.
12 A. We have lived with pain and strife for long enough. You are young, disciplined, well trained and highly educated. Please wish for peace, harmony and happiness. Our Motherland is asking for that. Our Motherland deserves that.
13. Happiness is fundamental to the human experience of life. To lead healthy, happy, and productive lives is the basic right of our citizens. While we have done well on our economic growth indicators, we have fared poorly on the World Happiness Index. We rank 133 out of the 156 countries mapped in the World Happiness Report 2018. Kautilya's Shloka from Arthashastra, inscribed near lift No. 6 in the Parliament House says:
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् ।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ।।
In the happiness of the people lies the happiness of the king, their welfare is his welfare. He shall not consider as good only that which pleases him but treat as beneficial to him whatever causes happiness to all people. Kautilya points out in this shloka very succinctly that the State is for the people. People are at the centre of all activities of the state and nothing should be done to divide the people and create animosity amongst them. The aim of the state should be to galvanise them to fight a concerted war against poverty, disease and deprivation and to convert economic growth into real development. Let the objective of spreading Peace, Harmony and Happiness inform the formulation of our public policy and guide all the actions of our state and citizens in their everyday life.This and only this will be able to create a happy nation, where Nationalism flows automaticall
Thank You
Jai Hind.
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© विजय शंकर सिंह
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