Tuesday 26 June 2018

Ghalib - Qatraa mein dazlaa dikhaai na de / क़तरा में दजला दिखायी न दे - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 97.
क़तरा में दजला दिखायी न दे, और जुज़्ब में कुल,
खेल लड़कों का हुआ, दीदा ए बीना न हुआ !!

Qatraa mein dazlaa dikhaayee na de, aur juzb mein kul,
Khel ladkon kaa huaa, deedaa e beenaa na huaa !!
- Ghalib

दजला - सागर
जुज़्ब  - अंश, इकाई
कुल - सम्पूर्ण ,
दीदा ए बीना - दृष्टि पूर्ण आंख.

बूंद में यदि समुद्र के दर्शन नहीं होते किसी को और अंश में सम्पूर्णता का बोध नहीं होता किसी को तो ऐसी दृष्टि से देखना तो बच्चों का खेल हुआ। यह वह दृष्टि नहीं है जो मर्म देख सके।

ग़ालिब अगर मद्यपी न होते तो लोग उन्हें वली, सन्त समझते। पर ग़ालिब शराब न पीयें, यह कभी सम्भव न हो सका। उनके दोस्त, उनकी पत्नी, उनके दुश्मन, उनके आलोचक, उनके निंदक, और उनके प्रशंसक सभी इस बात पर एक थे कि उनकी काव्य प्रतिभा, उनकी अंदाज़ ए बयानी लासानी थी। पर जुए की लत और मदिरा की आदत ने उन्हें जीवन मे बहुत बुरे दिन दिखाए। यह शेर दार्शनिक अंदाज़ का है। बूंद और सागर यह दो प्रतीक अद्वैतवाद के प्रतीक है। ठीक वही प्रतीक अग्नि और स्फुलिंग के माध्यम से जो भारतीय अद्वैतवाद के सिद्धनकारों ने कह रखा है। यहां ग़ालिब, दृष्टि की समष्टि पर दृष्टिपात करते हैं। वे उस नज़र के प्रशंसक हैं जो बूंद, जो यहां इकाई का प्रतीक है में सारा ब्रह्मांड देख लेने की क्षमता है। अगर दृष्टि इतनी विशाल और अनन्तगामी नहीं है तो वह नज़र ही क्या है। यहां दृष्टि का अर्थ चाक्षुष दर्शन ( स्थूल आंखों से ) नहीं बल्कि व्यक्ति की समझ से है। यह आध्यात्म की ओर इशारा करता हुआ शेर है।

कबीर को भी देखें। कबीर भी रहस्यवादी थे। कहते कुछ थे पर उनके हर दोहे में दर्शन की गूढ़ता छिपी रहती थी। उनकी यह पंक्तियां पढ़ें।

हेरत हेरत हे सखी, रह्या ' कबीर ' हेराय,
बून्द समानी समद में, सो कत हैरी जाय,
हेरत हेरत हे सखी, रहा कबीर हिराइ,
समन्द समाना बून्द में जो कत हेरया जाय !!
( कबीर )

कबीर उसे ( ईश्वर को ) खोजते खोजते खुद खो जाते हैं फिर भी समझ नहीं पाते हैं। बूंद, व्यक्ति का जब अस्तित्व समुद्र ( परमात्मा ) में समा जाता है तो उसे कैसे ढूंढ कर अलग रखा जा सकता है। उसका तो अस्तित्व ही नहीं रहा।

अद्वैत और सूफीवाद के दर्शन से प्रभावित ग़ालिब के कई शेर बेहद फलसफाना अंदाज़ लिये हैं। उन्हें समझना आसान नहीं है।

© विजय शंकर सिंह

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