आज जैसी स्थिति दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और उप राज्यपाल के बीच तनातनी की आ गयी है अगर वैसी ही स्थिति किसी अन्य राज्य में होती तो क्या इसे उसी दृष्टिकोण से देखा जाता जिस तरह से आज देखा जा रहा है ? आप कहेंगे कि दिल्ली पूरा राज्य नहीं है अधूरा है। वहां के एलजी के पास सारी ताक़त है। वही सीएम की सारी फाइलें पास करता है। अगर हाई कोर्ट का आदेश देखें तो वही सचमुच में बॉस है। अब जब कानून ही ने एलजी को बॉस बता दिया तो क्या कहा जाय। कानून तो सबसे ऊपर है।
केजरीवाल ने कुछ योजनाओं को लागू करने के लिये नियमानुसार एलजी के पास पत्रावली भेजी और उस पर एलजी बैठ गए। पत्रावली पर बैठ जाना सचिवालय और सचिव की पुरानी आदत है। एलजी सर भी ठहरे एक नौकरशाह। वह भी स्टील फ्रेम वाले। जंग भी थोड़ा बहुत खा जाय तो स्टील तो स्टील ही होता है। उन्होंने उन फाइलों पर कोई निर्णय ही नहीं लिया। अब केजरीवाल मय लवाजमा लिये दिये एलजी हाउस में दाखिल हो गये। लेकिन एलजी ने मिलने से इनकार कर दिया। सारा लवाजमा धरने पर बैठ गया। धरने से और कुछ हो न हो एक फ़िज़ा तो बनेगी, सो फ़िज़ा बननी शुरू हो गयी। दिल्ली वैसे भी इन दिनों अंधी है। खबर फरोश बता रहे हैं कि दिल्ली के ऊपर तो धूल ने डेरा जमा लिया है सो न दिल्ली ऊपर से किसी को दिख रही है और न दिल्ली वाले किसी को देख पा रहे हैं।
तीन दिन से अधिक हो गए दिल्ली की मुन्तख़ब हुयी सरकार को दिल्ली की कानूनी सरकार के दीवान ए खास में कब्ज़ा जमाये। अरविंद केजरीवाल भी वैसे तो हैं एक पूर्व नौकरशाह और टेक्नोक्रेट, पर उन्हें नौकरशाही कभी रास नहीं आयी। वे ठहरे एक्टिविस्ट। एक्टिविज्म का कीड़ा जिसे काट ले वह सदैव एक्टिव ही रहता है और एक्टिविस्ट तथा शासक प्रशासक की भूमिका में तालमेल कम ही बैठ पाता है। यह जंग या रस्साकशी जो दोनों सरकारों के बीच चल रही है वह लोकतंत्र के लिये सुखद संकेत नहीं है। एक तरफ तो उप राज्यपाल केंद्र का प्रतिनिधि है और दिल्ली के सिलसिले में उसे अतिरिक्त और विशेष अधिकार प्राप्त है। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री को जनता ने चुना है और उसकी जवाबदेही जनता के प्रति है। जब कि एलजी किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है सिवाय अपने आका के जो कि केंद्र सरकार है।
एक सहज सवाल उठता है कि, क्या एक मुख्यमंत्री अपने सहयोगियों के साथ, एलजी के राजकीय आवास में उनसे मिलने की प्रतीक्षा में बैठा है और एलजी उससे मिलने के लिये कुछ कमरों की दूरी तय नहीं कर पा रहा है ! क्या उसका आचरण औपनिवेशिक काल के सामन्त की तरह नहीं दिख रहा है ? इतनी भी तमीज एलजी साहब को नहीं है कि वे उन प्रस्तावों पर मुख्यमंत्री से मिल कर जो उन्ही के ड्राइंग रूम में बैठा है, जा कर विन्दुवार चर्चा कर लेते। अगर तत्काल चर्चा करना किन्ही तकनीकी कारणों से संभव नहीं है तो यह तो वे कह ही सकते हैं कि आप लोग अभी तशरीफ़ ले जाइए और चर्चा की कोई और तिथि तय कर दी जाती। पर उस दर्प के वायरस का वे क्या करें जो सिविल सेवा की परीक्षा पास करते ही स्वभावतः दिमाग के एक कोने में आ बैठती है और गाहे बगाहे सिस्टम को हैंग करती रहती है।
आज चार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के समर्थन में दिल्ली आए हैं। बंगाल, केरल, कर्नाटक और आंध्र के। इनका अनुराग केजरीवाल से है या नहीं, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता है पर ये अच्छी तरह से जानते हैं कि राज्यपाल केंद्र के इशारे पर चलता है और देर सबेर ऐसी ही या इसी प्रकार की मिलीजुली असहज स्थिति से इन्हें भी रूबरू होना पड़ सकता है। ये सभी क्षेत्रीय दल हैं या कुछ ही राज्यों में सीमित हैं। कांग्रेस का रवैया थोड़ा इनसे अलग है। कांग्रेस दिल्ली में आआपा द्वारा अपदस्थ की गई है और वह खुद को दिल्ली में केजरीवाल की प्रतिद्वंद्वी मानती है, और है भी। शीला दीक्षित जब यह कहती हैं कि उनके समय तो कोई बात ही नहीं हुई और एलजी से संबंध उनके मधुर थे, तो वे यह भूल जाती हैं कि अपने 15 साला शासन में वे दस साल उस समय थीं जब केंद्र में कांग्रेस का शासन था और पांच साल जिस भाजपा का शासन था उसके प्रधानमंत्री अटल जी थे जो इन सब क्षुद्र मामलों में पड़ने वाले राजनेता नहीं थे। दूसरे शीला दीक्षित कोई एक्टिविस्ट नहीं थी और अनुभवी नेता थीं और नौकरशाही में उनकी व्यक्तिगत पैठ भी थी। एलजी और मुख्यमंत्री विवाद से एक मौलिक प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि जनता का चूना हुआ व्यक्ति ही शक्तिशाली है या फिर केंद्र द्वारा थोपा हुआ नौकरशाह। लोकतंत्र, चुने हुए व्यक्ति की बात करता है।
दिल्ली में एलजी की चलेगी या सीएम की, यह तो बाद में तय होता रहेगा, पर मेरी समझ मे एलजी का यह दर्पयुक्त निर्णय कि चाहे जितना भी धरना दे लो मैं बिल्कुल नहीं मिलूंगा अनुचित और अभद्र फैसला है। उनके इस फैसले से जनता में यह क्षवि बन रही है कि केजरीवाल सच मे जनता के लिये कुछ बेहतर करना चाहते हैं, पर वे क्या करें, एलजी करने ही नहीं देता। एलजी का यह निर्णय चाहे उनका अपना हो पर सामान्य धारणा यही है कि वे यह सब केंद्र के इशारे पर ऐसा कर रहे हैं। केंद्र को चाहिए कि यह अशोभनीय सिलसिला खत्म हो और जिसके जो जो संवैधानिक अधिकार हों उन्हीं के अंतर्गत मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल बात कर के यह तमाशा बंद करें। केजरीवाल को आप कितना ही कुछ कहें, पर एक बात ध्रुव सत्य है कि दिल्ली के वे निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं और उन्हें वही जनादेश प्राप्त हुआ है जो सभी निर्वाचित सरकारोँ को संसदीय लोकतंत्र में प्राप्त होता है।
अगर दिल्ली सरकार के अधीन नियुक्त आईएएस अफसरों पर दिल्ली के मुख्यमंत्री का वैसा ही पूर्ण नियंत्रण होता जैसा कि अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों का होता है तो ये अफसर, हड़ताल आदि कृत्य करने का जैसा आचरण कर रहे हैं, वैसा कदापि नहीं करते। वे तब एलजी की एक नहीं सुनते। नौकरशाही यह बात बखूबी जानती है कि किसकी बात सुननी है, किसकी नहीं सुननी है, किसकी बात कितनी सुननी है, किसकी सुन कर अनसुनी करनी है, किसकी बात नजरअंदाज करनी है और किसकी बात बिल्कुल नजरअंदाज नहीं करनी है। दिल्ली में नियुक्त आईएएस अफसरों पर नियंत्रण केंद्र सरकार का बरास्ते उप राज्यपाल है, तो वे दिल्ली सरकार की अनदेखी करने की हिम्मत जुटा ले रहे हैं और खुल कर प्रेस से बात कर रहे हैं। नौकरशाही, घोड़े की तरह होती है वह सवार पहचानती है। लगाम का झटका और रकाब की एड़ का इशारा समझती है।
ऐसे आधे अधूरे राज्य से तो बेहतर है कि दिल्ली के राज्य का दर्जा ही समाप्त कर दिया जाय। देश की राजधानी होने के कारण, न तो इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना संभव है और यह आधा अधूरा राज्य अगर ऐसे ही क्षुद्र मनोवृत्ति के नेताओं से गठित सरकारे रही तो जन समस्याओं के समाधान के बजाय अन्य दूसरी समस्याएं ही उतपन्न करती रहेंगी।
© विजय शंकर सिंह
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