Wednesday, 20 June 2018

जम्मू कश्मीर की सरकार - भाजपा का समर्थन वापसी या जिम्मेदारी से पलायन / विजय शंकर सिंह


कल तक सरकार या यूं कहिये नरेंद मोदी जी ने आतंकवाद की कमर तोड़ दी थी, पर आज जब समर्थन वापसी का औचित्य साबित किया जा रहा है तो, कहा जा रहा है कि आतंकवाद बढ़ गया था इसलिए हमने समर्थन वापस ले लिया। यह तो झोलाछाप डॉक्टरों जैसा इलाज हुआ। मरीज को न जाने क्या क्या दवा दी गयी, और जब मरीज अनाप शनाप बकने लगा सन्निपात में आ गया तो डेरा डंडा उठा झोला समेट कर सरपट भागे कि अब इसे शहर के अस्पताल ले जाओ। या तो अमित शाह झूठ बोल रहे हैं, या राम माधव या दोनों ही मिल कर एक शातिर मिथ्यावाचन की स्क्रिप्ट लिख रहे हैं। 

2015 में जब सरकार बनी तो सबको सन्देह था कि यह वैचारिक ध्रुवीय विरोधाभासी  सरकार है जो शायद ही अपना कार्यकाल पूरा करे । केर बेर का संग था यह । तब कहा गया कि व्यापक राष्ट्र हित मे यह सरकार बनी है और इसका एक साझा कार्यक्रम है। धारा 370 जो पीडीपी और भाजपा दोनों के लिये जीवन मरण का प्रश्न और मुद्दा था, उसे बस्ता ए ख़ामोशी में रख दिया गया। उचित भी था। ऐसा न किया जाता तो, सरकार ही नहीं बनती। खैर सरकार बनी और लुढ़कते हुयी ही सही, कुछ चली। लेकिन आतंकवाद मुख्य मुद्दा तब भी था और अब भी है। इंडो पाक कनफ्लिक्ट मॉनिटर की एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, 2011 में 62, 2012 में 114, 2013 में 349, 2014 में 581, 2015 में 405, 2016 में 449, 2017 में 971, 2018 में 28 मई तक 1252 बार पाकिस्तानी सेना द्वारा अतिक्रमण की घटनाएं हुई है। जिस साल एक मास्टरस्ट्रोक कहे जाने वाले कूटनीतिक कदम के अंतर्गत प्रधानमंत्री अचानक इस्लामाबाद में नवाज़ शरीफ़ के घर उनके एक पारिवारिक समारोह में भाग लेने उतर गये थे उस साल सीमोल्लंघन की घटनाएं और बढ़ी। इन आंकड़ों से यह पता चलता है कि पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति विफल और ढुलमुल रही है। 

इसी अवधि में आईएसआई द्वारा पठानकोट एयरबेस का मुआयना कराना, थोक भाव से पत्थरबाजों के विरुध्द कायम मुकदमों को वापस लेना, और सीमापार बिना किसी शांति का आश्वासन पाए ही इकतरफा युद्धविराम की घोषणा करना, सरकार के अनिश्चय और ढुलमुल रवैये को ही बताता है। पत्थरबाज, आतंकियों के लिये एक प्रकार से कवर का काम करते हैं। सबके खिलाफ मुक़दमे कापसी से दो सन्देश साफ साफ गये। आतंकियों ने इससे यह संदेश ग्रहण किया कि सरकार अपने राजनीतिक हित के प्रति अधिक सजग है, बनिस्बत कि प्रशासनिक हित के। सुरक्षा बल अनुशासित होते हैं। वे तो सरकार के किसी भी निर्णय पर कोई टीका टिप्पणी करेंगे नहीं पर वे भी समाचारों से अवगत हैं, सोशल मीडिया पर हैं, सारी बात जान बूझ रहे हैं तो उनके अंदर भी प्रतिक्रिया होती ही है। यह मान बैठना कि वे आदेश पालन करने वाले यंत्रमानव या रोबोट हैं, मूर्खता ही होगी। इन सब राजनीतिक निर्णयों से  उनके मनोबल पर असर पड़ता है , पर वे सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं।  किसी भी युद्ध या युद्ध जैसी परिस्थितियों से निपटने के लिए मनोबल सबसे पहली और ज़रूरी चीज़ है। 

2015 से अब तक भाजपा की सरकार केंद्र में भी है और राज्य में भी रही है। महबूबा को भाजपा का बाहर से समर्थन नहीं था, बल्कि वह मजबूती से सरकार में थी। उनका उपमुख्यमंत्री भी था। केंद्र में सरकार होने के नाते महबूबा पर एक प्रकार का मानसिक दबाव भी था। संसाधनों की भी कमी नहीं थी। कहते हैं नरेंद्र मोदी जी को सत्ता में आने के पहले से ही कश्मीर के मानलों की समझ थी। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल खुद भी पाकिस्तान और कश्मीर मामलों के सर्वज्ञ हैं। मोदी जी, डॉ मनमोहन सिंह की तरह जनाधारविहीन नेता भी नहीं है। उनकी पार्टी में उनकी धाक इतनी है कि उनका कोई विकल्प ही नहीं है। फिर कमज़ोरी कहां है ? सेना, सभी सुरक्षा बल, आईबी, रॉ, सभी केंद्र के अधीन हैं फिर भी अगर आतंकवाद बढ़ जाने के कारण भाजपा को स्वयं जिम्मेदारी से पलायन करना पड़े यह स्पष्ट रूप से अकर्मण्यता है। 

कश्मीर में चार साल की सभी उपलब्धियों और अनुपलब्धियों कि जिम्मेदार भाजपा और पीडीपी दोनों ही संयुक्त रूप से हैं। भाजपा अधिक है, क्यों कि वह केंद्र में भी सत्ता में भी है। वह राष्ट्रीय दल है और उसके सामने व्यापक राष्ट्रहित के मुद्दे हैं। जब यह समझौता हुआ था तो यह उम्मीद जगी थी, संविधान की धारा 370, कश्मीरी पंडितों की वापसी, कश्मीर में विश्वास बहाली, हिंसक गतिविधियों पर लगाम, आदि कश्मीर से जुड़े मूल मुद्दों को पीडीपी भले ही नज़रंदाज़  कर जाय, पर भाजपा, इन मुद्दों पर कुछ न सार्थक कार्यवाही ज़रूर करेगी। पर बदामि च ददामि न। न तो संविधान की धारा, 370 पर कोई अध्ययन दल ही बना और न ही कश्मीरी पंडितों के वापसी के लिये ही कोई कदम उठाया गया। भाजपा को एक सुनहरा अवसर मिला था, जम्मू कश्मीर में शासन करने का। वह इस अवसर का लाभ उठा कांग्रेस की उन नीतियोँ के खिलाफ, जिसका यह अरसे से विरोध कर रही थी, के बजाय, अपनी उन नीतियों को लागू कर सकती थी, जिन्हें कश्मीर के हित मे समझती थी। चार साल का समय कम नहीं होता है। पर इनके लिये कठुआ के बलात्कारी गुंडो का साथ देना ज़रूरी था, न कि देश के व्यापक हित में काम करना। धारा 370, और कश्मीरी पंडितों की वापसी, यह दोनों ही मुद्दे भाजपा के प्रिय मुद्दे रहे हैं। चार साल के शासन के बाद भी अगर इन मुद्दों पर विचार करने के लिये कोई कदम तक नहीं उठाया गया तो यह मानना पड़ेगा कि यह सारे मुद्दे बस चुनाव जीतने के लिये ही थे। इन मुद्दों को ज़िंदा रखना, भाजपा की मज़बूरी भी है और उनकी रणनीति भी। चार साल में कश्मीर में सरकार ने क्या किया, इसकी पड़ताल जब विशेषज्ञ करेंगे तो स्वतः कई बातें सामने आएंगी। सरकार से मतलब, केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों से है। इस समर्थन वापसी का राजनीतिक लाभ भले ही भाजपा को हो पर यह उसकी प्रशासनिक अक्षमता भी है। अब कल से धारा 370 के खात्मे और पंडितों की वापसी पर इनका प्रलाप सुन लीजियेगा। 

जुमलों की बारिश से खुशनुमा मौसम बना कर चुनाव जीत लेना, कम सीटों के बावजूद भी साम दाम दंड भेद से सरकार बनाने में सफल हो जाना आसान है बनिस्बत सरकार चलाने और जनता को एक स्वच्छ प्रशासन देने के। यह महबूबा की विफलता कम है नरेंद्र मोदी जी की विफलता अधिक। पत्थरबाजों पर से मुक़दमे हटवा कर और रमज़ान में इकतरफा सीज फायर करा कर महबूबा ने अपना राजनीतिक हित तो साध लिया है पर भाजपा इस मुद्दे पर भी असफल रही है। 

© विजय शंकर सिंह 

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