उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, के एक अमानवीय और शासक होने के लिए सर्वथा अनुपयुक्त अवगुण ने प्रख्यात कथाकार प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी, नशा की याद दिला दी। लगभग सौ साल पहले लिखी गयी कहानी कैसे आज फिर अलग अलग पात्र, स्थान, काल और संदर्भ में दुहरायी गयी, कहानी को कालजयी बना देती है। कहानी फिर कभी सुना दूंगा। फिलहाल तो उसका रीमिक्स पढ़ लीजिये।
कल 28 तारीख को यह हुआ कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के जनता दर्शन कार्यक्रम में एक बुजुर्ग शिक्षिका ने अपनी व्यथा कथा रखते हुए कहा कि, वह पिछले 25 बरस से उत्तराखंड के बेहद दुर्गम क्षेत्र के एक स्कूल में सरकारी शिक्षिका के पद पर कार्यरत है। 58 बरस की शिक्षिका उत्तरा पंत के पति का सालों पहले निधन हो चुका था और वह यह चाहती है कि उसका स्थानांतरण, राजधानी या किसी ऐसे जिले में हो पाए, जहां वह अपनी सेवा के अंतिम दौर में थोड़ी निश्चिंतता से रह कर सरकारी काम कर सके। इस महिला ने अपने तबादले के लिये बेसिक शिक्षा अधिकारी, जिलाधिकारी, आयुक्त, शिक्षा सचिव और मुख्यमंत्री कार्यालय तक अपना दुखड़ा रोया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। सब ठस और संगदिल बने रहे।
उत्तरा पंत ने अपनी बात कहने के लिये जनता दर्शन जो मुख्यमंत्री द्वारा किया जाता है में जाकर अपनी बात रखी। सोशल मीडिया पर जो वीडियो चल रहा है उसके अनुसार, यह शिक्षिका अपनी व्यथा कहते कहते थोड़ा उत्तेजित हो गई । उसकी तेज आवाज पर मुख्यमंत्री ने उसे बुरी तरह डपट लिया। इस डांट ने उत्तरा को और व्यथित तथा आक्रोशित कर दिया। इस पर मुख्यमंत्री ने उसे तमीज सिखाने की बात कही और कहा कि सस्पेंड कर दूंगा। सरकारें कर्मचारियों का भला कर पाएं या न कर पाएं पर वे बुरा तो कर ही देती हैं। मुख्यमंत्री सस्पेंड भी कर सकते हैं और मनचाही जगह तबादला भी। पर उन्होंने तबादले की बजाय सस्पेंड करने की बात कही। जब मामला और बढ़ा तो उत्तरा ने सभी की पोल खोलनी शुरू कर दी। उत्तरा ने मुख्यमंत्री पर भी आरोप लगाते हुये यह बात कह दी कि मुख्यमंत्री ने अपने पत्नी को देहरादून में ही पोस्टिंग दिलवा दी । तब सीएम टीएस रावत ने गुस्से में उसे गिरफ्तार कर जेल भेजने का आदेश दे दिया। उत्तरा ने त्रिवेंद्र सिंह रावत पर गुस्से में आ कर कह दिया कि ऐसे नीच निकृष्ट लोग जब राजनीति में रहेंगे तो राज नहीं पूरी मानवता का सर्वनाश हो जाएगा। क्रोध, आक्रोश और व्यथा ने उत्तरा को अनियंत्रित कर दिया और फिर उसने शराब माफिया से पैसे लेने की बात भी कह दिया।
गिरफ्तार कर जेल भेजने का आदेश मुख्यमंत्री का था तो इसका पालन भी होना था। उत्तरा पंत को पुलिस ने गिरफ्तार कर अदालत में पेश तो कर दिया पर अदालत ने उत्तरा का ऐसा कोई अपराध नहीं पाया जिसके आधार पर उसे जेल भेजा जा सके, तो उसे निजी मुचलके पर रिहा कर दिया ।
इस घटना को एक संवेदनशील तरीके से भी सुलझाया जा सकता था लेकिन प्रशासनिक अक्षमता और अदूरदर्शिता से बात का बतंगड़ बन गया। उत्तरा जैसी पीड़ित शिक्षिका केवल उत्तराखंड में ही हो ऐसी बात नहीं है। यह किस्सा कहीं का भी हो सकता है। उसकी मांग भी जायज़ थी। उसे माना जाना चाहिये था। लेकिन फरियादी की तेज आवाज पर खुद के अहंकार को चुनौती समझ लेना और एक अत्यंत असंवेदनशील निर्णय मुख्यमंत्री द्वारा ले लेना शासन न करने की कला है। जनता दर्शन या दरबार आखिर बना किस लिये है ? जनता तो अपनी बात कहेगी ही। पीड़ा क्षुब्ध भी करती है और आक्रोशित भी। उत्तरा पंत 58 साल की उम्र में एक सुविधाजनक पोस्टिंग चाहती थी। उन्होंने सभी प्रशासनिक चैनल का प्रयोग किया और अंत मे जहाँगीरी घण्टा बजा दिया। जिल्ले इलाही ने न्याय तो दिया नहीं उल्टे उसे जेल भेज दिया। यह कैसा जनता दर्शन और कैसा न्याय !
कल्पना कीजिये, सीएम ने अगर, उत्तरा की बात मान कर, उसे मनचाही स्थान पर नियुक्त करने का आदेश या ऐसा करने का समयबद्ध आश्वासन दे कर उसके पहले के प्रार्थनापत्रों पर उचित कार्यवाही न करने के लिये अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करने का निर्णय कर दिया होता तो जनता में इन्ही मुख्यमंत्री जी के बारे में क्या संदेश जाता ? लेकिन ऐसा निर्णय तभी कोई ले पाता है जब वह शासक होने के नशे से मुक्त हो। पर यह नशा तो सारे नशाओं से बढ़ कर है ।
अंत मे तुलसीदास की यह चौपाई भी पढ़ लें,
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं ।
संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न हुआ हो ।
© विजय शंकर सिंह
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