Saturday 2 June 2018

गांवबंद, किसान आंदोलन और किसानोँ की मांगें / विजय शंकर सिंह

किसानों का दस दिन का गांव बंद आंदोलन शुरू हुआ है। असंगठित और वैचारिक शून्यता के आधार पर प्रारंभ होने वाले आंदोलन या तो हिंसक और विधिविरुद्ध होकर भटक जाते हैं या बिखर जाते हैं। आंदोलनों की घोषणा कर देना, उन्हें प्रारम्भ करने का आह्वान कर देना आसान होता है पर आंदोलनों को बिना भटके, बिखरे, और अराजक हुए अपने अंजाम तक पहुंचाना कठिन होता है। नेतृत्व की सफलता इसी में है कि यह आंदोलन जो किसानों की समस्या को लेकर उठा है अपने लक्ष्य तक पहुंचे। हाल ही में किसानों का मुम्बई मार्च एक अनोखा आंदोलन था। व्यापक और लंबे समय तक पैदल मार्च करने वाला यह आंदोलन न तो भटका, न बिखरा, और न ही अराजक हुआ।

इन आंदोलनों को राजनीतिक होना ही चाहिये। अक्सर हम जब यह कहा जाता है कि आंदोलन में राजनीति हो रही है तो हम असहज हो बैकफुट पर आ जाते हैं। हमारी हर मांग, हमारी हर ज़रूरत, हमारी हर इच्छा राजनीति पर ही आधारित है। राजनीति, केवल चुनाव लड़ना और हारना जीतना ही नहीं है बल्कि अपनी जायज मांगो के लिए आंदोलन करना भी राजनीति है। अपनी बात कहने का  अधिकार हमे संविधान ने दिया है जो राज व्यवस्था का मूलाधार है और राज व्यवस्था की राजनीति के बिना कल्पना नहीं की जा सकती है।

किसानों का आंदोलन भारतीय राजनीति में कोई नयी और अनोखी चीज नहीं है। आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद भी किसान आंदोलनों की एक परंपरा रही है। 1857 के विप्लव को भी किसान विद्रोह की नज़र से कुछ लोगों ने देखा है। निलहे किसानों के शोषण पर बंगाल के किसानों की व्यथा और उनके आक्रोश को प्रसिद्ध बांग्ला नाटक नील दर्पण में व्यक्त किया गया है। गांधी को महात्मा गांधी बनाने में चंपारण किसान आंदोलन और राजकुमार शुक्ल के योगदान को भूला नहीं जा सकता है। सरदार बल्लभ भाई पटेल को सरदार बनाने वाला प्रसिद्ध बारदोली आंदोलन एक किसान आंदोलन ही था। इसी आंदोलन ने बल्लभ भाई पटेल को सरदार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया और सरदार नाम गांधी जी ने ही बल्लभ भाई को दिया था। । और भी प्रमुख किसान आंदोलन है, जिन्होंने किसानों की व्यथा को स्वर दिया है।

आज़ादी के बाद महाराष्ट्र का शेतकरी किसान संगठन, और उत्तर प्रदेश का भारतीय किसान यूनियन जिसके नेता महेंद्र सिंह टिकैत थे, की किसान जागृति में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अभी हाल में जो किसान आंदोलन चर्चा में हैं वे महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान के है। आज ये सभी संगठन आंदोलित है। इनकी एकजुटता अगर दिख नहीं रही है तो इसका कारण, इनके असंगठित स्वरूप का होना है। कृषि कोई उद्योग नहीं है। किसान कोई श्रमिक भी नहीं है। जोत बड़ी छोटी हो सकती है। लेकिन, सभी के पास ज़मीनें हो ही,  यह भी संभव नहीं हैं। खेतों पर काम करने वाले भूमिहीन श्रमिकों की भी संख्या कम नहीं है। यह सभी खेती और अच्छी पैदावार पर ही निर्भर रहते हैं। आज ये सभी आंदोलित है। यह अलग बात है कि टीवी मीडिया इन्हें नज़रअंदाज़ भी कर रहा है।

किसानों की मांगें क्या है ? सोशल मीडिया पर एके मीणा नामक किसान का यह पत्र मुझे बसंत कंबोज Basant Kamboj की टाइमलाइन पर दिखा जिसमे उन्होंने किसानों की समस्याओं और मांगो का विवरण है, जिसे मैं यहां साझा कर रहा हूँ।

गाव बंद क्यों है #किसानो कि मांग क्या है?
1. सभी अवसर लागतो और आर्थिक लागतो को सम्मिलित करके कृषि मूल्य को लाभदायक बनाया जाए |

2. यदि सरकार महगाई कम करना चाहती है तो कृषि लागतों जैसे खाद,बीज,कृषि उपकरण, रिसर्च सेवाओं इत्यादि को शून्य जीएसटी,( GST ) के स्तर पर लाया जाए, साथ ही जीएसटी, ( GST ) के दायरे से बाहर आने वाले कृषि आगतो जैसे पट्रोल डीजल बिजली पर शून्य कर की नीति अपनाई जाए |

3. कृषि उत्पादों के WPI (थोक मूल्य सूचकांक ) और CPI (उपभोक्ता मूल्य सुचकांक ) में अंतर का लाभ जो केवल व्यापारियों और दलालो को जाता है उसे कृषक को भी मिले, अर्थात दोनों मूल्यों में अंतर का 50 % सीधे कृषको के खाते में हस्तांतरित किया जाये

4. मंडी का सञ्चालन गांव गांव के कृषकों के  प्रतिनिधियों के माध्यम से संस्था बनाकर किया जाये | किसानो को अपनी फसल सीधे बेचने में सभी बाधाओ को दूर किया जाये |किसी भी प्रकार का लिखित या टोकनिजम करने से आने वाली बाधा को तुरंत हटाया जाये जो कृषको को दलालों और सरकारी कर्मचारी के चंगुल में फंसाती है

5. सरकार, केंद्र और राज्य स्तर के बजट का पर्याप्त भाग  गांव-गांव में कृषि वस्तुओ के सार्वजनिक संग्रहण और सामूहिक सुविधा केंद्र बनाने में खर्च करे ।

6. किसी भी स्थिति में कृषक की जमीन को कोई सरकारी और निजी बैंक नीलाम नही करे | उसे कर चुकाने के लिए दीर्ध कालीन ऋण और श्रम के अवसर भी दिए जाए ।

7. कृषकों को बाजार ऋण की जगह कम ब्याज के दीर्घकालीन और विभिन्न सेवा शुल्को से मुक्त ऋण दिए जाएँ | किसी भी स्थिति में उद्योगों के NPA का भार किसानो पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नही डाला जाए ।

8. कृषि वस्तुओ की पैकेजिंग की सुविधा और ट्रांसपोर्ट के लिए सरकार व्यवस्था  गावो तक उपलब्ध करवाए |

9. कृषि सम्बन्धित नीति के निर्धारण में व्यापारियों की निर्णायक भूमिका समाप्त हो ,और एसोचेम और फिक्की की तर्ज पर किसान की संस्था बनाई जाये जो 24 x 7 x 365 कृषको के हितो का संरक्षण करे |

10. कृषि वस्तुओ और खाद्यान का संग्रहण और वितरण संस्थाए जैसे FCI में कृषकों की भागीदारी हो और यह संस्था खाद्यान को सडाकर उधोग पतियों को बेचने की जगह कृषकों के हितो को ध्यान में रखकर कार्य करे .इसमे कृषकों की पुरी भागीदारी हो और इसे भ्रष्टाचार से मुक्त रखने की पुरी व्यवस्था हो अर्थात इसमे सोसल ऑडिट की व्यवस्था की जाये |

11. कृषको के लिए एक आपातकालीन फंड तैयार रखा जाये जो हर स्थिति में कृषकों को सहायता उपलब्ध करवाए |

12. कृषकों का फसल और स्वास्थ बीमा उपलब्ध करवाया जाये और बीमा कंपनी को नोप्रोफिट नो लोस के सिद्धान्त से संचालित किया जाये ना कि कृषकों से मोटा प्रीमियम वसूल कर कृषकों की आय की सर्कुलेशन से बाहर किया जाये | इसी प्रकार चिकित्सा सुविधाए गावो तक उपलब्ध  करवाई जाए तथा कृषि कार्य में होने वाली किसी भी दुर्घटना या स्थायी अपंगता पर पर्याप्त मुआवजा और परिवार को रोजगार की व्यवस्था की जाए |

13. कृषको को अंतराष्ट्रिय मूल्य पर निर्यात करने के लिए सुविधाए उपलब्ध करवाई जाये ,और यदि सरकार आवश्यक वस्तु अधिनियम और अन्य कानूनों के दवारा कृषको को धरेलू बाजार में कम कीमत रखकर कृषि वस्तु बेचने पर मजबूर करती है तो कृषकों को होने वाले मूल्य का भुगतान करे |किसी प्रकार की प्रतिकूल सरकारी कीमत नीती या प्रतिकूल टर्म्स ऑफ ट्रेड का भार किसान पर चोरी छिपे ना डाला जाए |

यह मांगे सरकार कितना मानती है और कितना नहीं मानती है यह तो बाद की बात है। लेकिन सभी सरकारों का जितना ध्यान कॉरपोरेट के विकास पर रहा है उसकी तुलना में बहुत ही कम ध्यान किसानों की समस्याओं पर सरकार का रहा है। कॉरपोरेट एक सांगठित क्षेत्र है और वे सभी राजनीतिक दलों के एक मुश्त अर्थदाता है। उनके संगठन सरकार पर अक्सर दबाव बना कर अपना हित साधते रहते हैं। देश के विकास का मापदंड भी सड़कें, रेलें, बिल्डिंग, और कल कारखाने मानें जाते हैं। कृषि को लाभ का काम भी नहीं माना जाता है और वह है भी नहीं। इस लगातार उपेक्षा से किसान आंदोलित हैं। अन्नदाता जैसे शब्द बहुत सम्मानजनक लगते तो हैं पर यह अन्नदाता आज भी प्रेमचंद के उपन्यासों के उन्ही विपन्न किसान पात्रों की तरह दिखता है जो सामंतवाद और पूंजीवाद के दो पाटों के बीच पिस रहा है। बस इनका स्वरूप बदल गया है।

किसान आंदोलन का समर्थन ही हो, यह भी संभव नहीं है। हर आंदोलन का सभी न तो समर्थन करते हैं और न ही विरोध। यह आंदोलन निश्चित रूप से सरकार की कृषि नीतियों के विपरीत और सरकार के 2014 के चुनाव में जारी किये गए वादों के संकल्पपत्र के पूरा न किये जाने के कारण भी है तो सरकार और सरकारी में शामिल दल इसका विरोध करेंगे। कृषि मंत्री भारत सरकार का आज ही बयान आया भी है, कि किसान प्रचार के लिये आंदोलन करते हैं। सरकार में शामिल दल, संभवतः खुल कर विरोध न कर पाएं क्यों कि चुनाव नजदीक आ रहे हैं, लेकिन वे अन्यमनस्क हो सकते है।  वे ऐसे आंदोलन की कमियों को उजागर करेंगे और इसे विधि विरुद्ध समूह भी साबित करने का प्रयास करेंगे, जिससे यह आंदोलन जनता में बदनाम हो और किसान संगठन हतोत्साहित हो जांय। इतने बड़े और व्यापक आंदोलन में कहीं कोई गड़बड़ी न हो यह असंभव है पर यही असंभव  इस आंदोलन की कमज़ोरी को उजागर करने का कारण भी बनेगी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस आंदोलन को बहुत अधिक कवरेज नहीं देगा। सोशल मीडिया निश्चित रूप से आंदोलन की गतिविधियों को अपडेट करेगा। लेकिन यहां भी समर्थन और विरोध दोनों ही रहेगा। दो दिनों के आंदोलन में सड़कों पर दूध बहाने और सब्जियों को बरबाद करने के फोटोग्राफ दिखने लगे हैं। यदि यह फोटोग्राफ सही हैं तो यह बात आंदोलन के प्रति विपरीत धारणा ही उतपन्न करेगीं । कृषि उपज या दूध आदि बरबाद करने से बेहतर है कि इन्हें ज़रूरतमन्दों को दे दिया जाय। यह आंदोलन जिन उद्देश्यों के लिये हो रहा है, उन उद्देश्यों तक पहुंचने के लिए यह आवश्यक है कि आंदोलन, न केवल अनुशासित रहे बल्कि एकजुट भी रहे।

© विजय शंकर सिंह

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