Monday 25 June 2018

विश्वनाथ प्रताप सिंह को उनके जन्म दिन 25 जून पर याद करते हुये / विजय शंकर सिंह

वीपी सिंह भारतीय राजनीति के एक ऐसे नक्षत्र हैं जो अक्सर असहज करते रहे हैं। उन्हें याद कम ही किया जाता है । उनकी याद कुछ को बेहद असहज और दुखी भी कर देती हैं। अक्सर उनकी आलोचना उनके सजातीय और सवर्ण ही अधिक करते हैं। कभी कभी तो यह आलोचना मर्यादा की सारी सीमाएं भी लांघ जाती हैं। दर असल ऐसी आलोचनाओं के पीछे जातिगत और सामाजिक पूर्वाग्रह ही अधिक है।  राजा नहीं फकीर है का उद्घोष, और काशी विद्वत परिषद की उपाधि राजर्षि ( जो बाद में बताते हैं विद्वत परिषद पर वापस लेने के लिये दबाव पड़ा था पर परिषद  ने वापस लेने से इनकार कर दिया था  ) के दिन जिन्हें याद होंगे वे 1989 में वीपी सिंह के प्रति जो दीवानापन लोगों में था, को आज भी याद कर रोमांचित हो जाएंगे। 1987 में जब वीपी सिंह रक्षा मंत्री थे तो उनके सामने से एक तार गुजरता है जिसमे बोफोर्स तोप के सौदे में दलाली का संकेत था। ज़रा सी फुंसी थी। नासूर बन गयी। दलाली ली गयी या नहीं ली गयी, यह आज तक साबित नहीं हुआ, पर इस तोप ने जो धमाका किया उससे इतिहास की गति अचानक मुड़ गयी। ऐसे ही अकस्मात परिवर्तन को, इतिहास में टर्निंग पॉइंट के नाम से जाना जाता है। फिर शुरू हुआ निष्क्रमण। संसदीय इतिहास में सबसे अधिक बहुमत वाली सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने के पूर्व ही, लड़खड़ाने लगी । जब 1989 का चुनाव हुआ तो कांग्रेस हार गयी । वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने और उनके साथ थे वामपंथी और भाजपा। जी यही वामपंथी जो आज कल देशद्रोही कहे जाते हैं। तब हमराह और हमसफ़र थे।

उन्माद सदैव नहीं रहता है। उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति के प्रति सदैव एक ही डिग्री का लगाव भी नहीं रहता है। वीपी सिंह एक आक्रोश की उपज थे। वे ईमानदार थे, उनकी क्षवि साफ सुथरी थी, लोगों की उनसे उम्मीदें थीं। इन्ही अपेक्षाओं का सागर जब उमड़ता है तो निराशा में यही सुनामी बन जाता है। जितनी ही तेजी से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ा था, उतनी ही तेजी से वे बाद में अलोकप्रिय भी हुये । यह भी एक विडम्बना ही थी। वीपी सिंह का अपना निश्चित जनाधार नही था । राज्यों के क्षत्रप मज़बूत थे। उन सबका अपना  अपना जनाधार भी था। उनकी भी अपेक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं जाग्रत हुयीं और सरकार में झगड़ा शुरू हो गया। चौधरी देवीलाल हरियाणा के एक असरदार और पुराने नेता थे । उनसे खटपट हुयी। इसी आपसी खींचतान में मंडल आयोग की रपट के दिन बहुरे और वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की रपट जैसे थी वैसे ही लागू कर दिया। अचानक, देश मे जातिगत आधार पर अगड़े पिछड़े का बवाल शुरू हो गया। छात्रों के हिंसक आंदोलन चले । कुछ ने आत्महत्याएं भी कीं। अंत मे सुप्रीम कोर्ट ने दखल दिया और मंडल आयोग की विभिन्न संस्तुतियों पर लंबी कानूनी दलीलों के बाद ये संस्तुतियां लागू हुयी, जो आज प्रचलित हैं।

मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के निर्णय ने वीपी सिंह को वंचितों और पिछड़ों के मसीहा और खैरख्वाह के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। 1990 में ही मंडल के बाद देश का मूड भांप कर भाजपा नेता आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा निकाली जो बिहार में गोपालगंज के पास आडवाणी की गिरफ्तारी के साथ अयोध्या पहुंचने के पूर्व ही समाप्त हो गई। तभी भाजपा ने समर्थन वापस लिया और वीपी सिंह की सरकार गिर गयी। वीपी सिंह का मूल्यांकन करते समय इसे अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिये कि देश के सामाजिक न्याय के इतिहास में उनका नाम और स्थान प्रमुखता से रहेगा। इस निर्णय ने उनको विवादित भी कम नहीं किया। देश की अगड़ी जातियों में वे उस समय एक खलनायक के रूप में भी चित्रित किये गए। आज भी निजी बातचीत में उन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाता है जो उन्हें मिलना चाहिये। लेकिन मंडल कमीशन की सिफारिशों के बाद पिछड़े और वंचित तबके के लोगों को सरकारी सेवाओं में जो भागीदारी बढ़ी है उसका श्रेय वीपी सिंह के इसी फैसले को जाता है। आज भी आज़ादी के 70 सालों बाद भी सरकारी सेवाओं में जातिगत अनुपात, जाति की संख्या के अनुरूप कम है। आरक्षण का यह लाभ तो हुआ है। लेकिन अभी सफर अधूरा है। यह बात अलग है जिसे लाभ हुआ है वह सराहेगा जिसे लगता है कि उसका अवसर छिना है वह आलोचना करेगा। यह मानवीय प्रकृति है।

व्यक्तिगत ईमानदारी और त्याग की प्रतिमूर्ति वी पी सिंह से पूछा गया कि आपने मण्डल कमीशन क्यों लागू किया तो उनका जवाब था
" मण्डल कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद तीन लोकसभा चुनाव हुए,सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों ने प्रत्येक चुनाव में अपने घोषणा पत्र में इसे प्रथम स्थान पर रखा। मेरी गलती सिर्फ इतनी है कि सबने रसगुल्ला दिखाया किन्तु मैंने खिला दिया ।"
यह प्रसंग एक मित्र ने बताया था। राजनीति में ऐसी साफगोई सफल होने का नुस्खा नहीं है।

राजनीति के पंक में शायद ही कोई राजनेता ऐसा हो जिसकी क्षवि वीपी सिंह के समान साफ सुथरी हो। वे इलाहाबाद के पास डहिया मांडा के एक राज परिवार के थे।  अपनी बहुत सी ज़मीनें उन्होंने भूदान आंदोलन में आचार्य विनोवा भावे को दे दीं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए बेहद ईमानदारी और कुशलता से अपने कर्तव्य का निर्वाहन किया। हालांकि उसी अवधि में उनके बड़े भाई जो इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे कि डकैतो ने गोली मार कर हत्या कर दी । जस्टिस सीएसपी सिंह खुद ही एक प्रतिभासम्पन्न और लोकप्रिय जज थे। आज वीपी सिंह का जन्मदिन है। जैसे चुपके से उनका जन्मदिन गुज़र जाता है वैसे ही 26 / 11 के मुंबई हमले के बेहद गहमागहमी भरे माहौल में वे भी खामोशी से संसार से  रुखसत हो गए। एक पट्टी बस उनके निधन की सूचना देती हुई चली थी। टीवी चैनल मुंबई हमले की खबरें जो बेहद ज़रूरी भी थीं, दिखा रहे थे। मैं उस दिन खंडवा में था। मैं उत्तरप्रदेश से पीएसी की कम्पनियां ले कर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, और राजस्थान के विधानसभा चुनाव कराने गया था।

वे एक कवि और अच्छे चित्रकार भी थे। उनके पेंटिंग्स की प्रदर्शनी भी लगती थी। आज के राजनीतिक मापदण्ड से शायद वे मिसफिट भी कहे जाँय। पर राजनीति में उनका एक अलग स्थान था। उनका मूल्यांकन आने वाले समय मे ही होगा। वे एक राजनेता और प्रधानमंत्री के रूप में नहीं बल्कि सामाजिक न्याय के एक पुरोधा के रूप में जाने जाएंगे।  वे अपने समय से आगे थे। आज वीपी सिंह के जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण। उनसे जुड़े व्यक्तिगत संस्मरण भी है। वे फिर कभी।

© विजय शंकर सिंह

1 comment:

  1. I am also fond ofshree V.P.Singh.Pls share the personal experiences

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