Saturday 16 June 2018

ईद पर बांग्ला के विद्रोही कवि काज़ी नजरुल इस्लाम की कविता - किसानों की ईद / विजय शंकर सिंह

यह कविता बांग्ला के विद्रोही कवि कहे जाने वाले कवि, काजी नजरुल इस्लाम द्वारा लिखी गयी है। यह कविता सु लोचना जी की फेसबुक टाइमलाइन से ली गयी है। इसका बांग्ला स्वरूप भी नीचे उन्होंने दे दिया है।
***
किसानों की ईद
------------------------
कवि: क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम
अनुवाद: सुलोचना

बिलाल ! बिलाल ! हिलाल निकला है पश्चिम के आसमान में,
छुपे हुए हो लज्जा से किस मरुस्थल के कब्रिस्तान में |
देखो ईदगाह जा रहे हैं किसान, जैसे हों प्रेत-कंकाल
कसाईखाने जाते देखा है दुर्बल गायों का दल ?
रोजा इफ्तार किया है किसानों ने आँसुओं के शर्बत से, हाय ,
बिलाल ! तुम्हारे कंठ में शायद अटक जा रही है अजान |
थाली, लोटा, कटोरी रखकर बंधक देखो जा रहे हैं ईदगाह में,
सीने में चुभा तीर, ऋण से बंधा सिर, लुटाने को खुदा की राह में |

जीवन में जिन्हें हर रोज़ रोजा भूख से नहीं आती है नींद
मुर्मुष उन किसानों के घर आज आई है क्या ईद ?
मर गया जिसका बच्चा नहीं पाकर दूध का महज एक बूँद भी
क्या निकली है बन ईद का चाँद उस बच्चे की पसली की हड्डी?
काश आसमान में छाए काले कफ़न का आवरण टूट जाए
एक टुकड़ा चाँद खिला हुआ है, मृत शिशु के अधर-पुट में |
किसानों की ईद ! जाते हैं वह ईदगाह पढ़ने बच्चे का नमाज-ए-जनाजा,
सुनते हैं जितनी तकबीर, सीने में उनके उतना ही मचता है हाहाकार |
मर गया बेटा, मर गयी बेटी, आती है मौत की बाढ़
यजीद की सेना कर रही है गश्त मक्का मस्जिद के आसपास |

कहाँ हैं इमाम? कौन सा ख़ुत्बा पढ़ेंगे वह आज ईद में ?
चारों ओर है मुर्दों की लाश, उन्ही के बीच जो चुभता है आँखों में
जरी वाले पोशाकों से ढँक कर शरीर धनी लोग आए हैं वहाँ
इस ईदगाह में आप इमाम, क्या आप हैं इन्हीं लोगों के नेता ?
निचोड़ते हैं कुरआन, हदीस और फिकह, इन मृतकों के मुँह में
क्या अमृत कभी दिया आपने ? सीने पर रखकर हाथ कहिये |
पढ़ा है नमाज, पढ़ा है कुरआन, रोजे भी रखे हैं जानता हूँ
हाय रट्टू तोता ! क्या शक्ति दे पाए जरा सी भी  ?
ढ़ोया है फल आपने, नहीं चखा रस, हाय री फल की टोकरी,
लाखों बरस झरने के नीचे डूबकर भी रस नहीं पाता है बजरी |

अल्लाह - तत्व जान पाए क्या, जो हैं सर्वशक्तिमान?
शक्ति जो नहीं पा सके जीवन में, वो नहीं हैं मुसलमान |
ईमान ! ईमान ! कहते हैं रात दिन, ईमान क्या है इतना आसान ?
ईमानदार होकर क्या कोई ढ़ोता है शैतानी का बोझ ?

सुनो मिथ्यावादी ! इस दुनिया में है पूर्ण जिसका ईमान,
शक्तिधर है वह, बदल सकता है इशारों में आसमान |
अल्लाह का नाम लिया है सिर्फ, नहीं समझ पाए अल्लाह को |
जो खुद ही अंधा हो, वह क्या दूसरों को ला सकता है प्रकाश की ओर ?
जो खुद ही न हो पाया हो स्वाधीन, वह स्वाधीनता देगा किसे ?
वह मनुष्य शहद क्या देगा, शहद नहीं है जिसके मधुमक्खियों के छत्ते में ?

कहाँ हैं वो शक्ति- सिद्ध इमाम, जिनके प्रति पदाघात से
आबे जमजम बहता है बन शक्ति-स्रोत लगातार ?
जिन्होंने प्राप्त नहीं की अपनी शक्ति , हाय वह शक्ति-हीन
बने हैं इमाम, उन्हीं का ख़ुत्बा सुन रहा हूँ निशिदिन |
दीन दरिद्र के घर-घर में आज करेंगे जो नयी तागिद
कहाँ हैं वह महा-साधक लायेंगे जो फिर से ईद ?
छीन कर ले आयेंगे जो आसमान से ईद के चाँद की हंसी,
हंसी जो नहीं होगी खत्म आजीवन, कभी नहीं होगी बासी |
आयेंगे वह कब, कब्र में गिन रहा हूँ दिन ?
रोजा इफ्तार करेंगे सभी, ईद होगी उस दिन |
***

काजी नज़रुल इस्लाम (बांग्ला: কাজী নজরুল ইসলাম), ( 24 मई 1899 - 29 अगस्त 1976 ) अग्रणी बांग्ला कवि, संगीतज्ञ, संगीतस्रष्टा और दार्शनिक थे। वे बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार, देशप्रेमी तथा बंगलादेश के राष्ट्रीय कवि माने जाते हैं।  पश्चिम बंगाल और बंगलादेश दोनो ही जगह उनकी कविता और गान को समान आदर प्राप्त है। उनकी कविता में विद्रोह के स्वर होने के कारण उनको 'विद्रोही कवि' के नाम से जाना जाता है। उनकी कविता का वर्ण्यविषय 'मनुष्य के ऊपर मनुष्य का अत्याचार' तथा 'सामाजिक अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद' है।
---------------------------------------
इसी कविता को बांग्ला में पढ़ सकते हैं।
***
কৃষকের ঈদ
বেলাল! বেলাল! হেলাল উঠেছে পশ্চিম আসমানে,
লুকাইয়া আছ লজ্জায় কোন মরুর গরস্থানে।
হের ঈদগাহে চলিছে কৃষক যেন প্রেত- কংকাল
কশাইখানায় যাইতে দেখেছ শীর্ণ গরুর পাল?
রোজা এফতার করেছে কৃষক অশ্রু- সলিলে হায়,
বেলাল! তোমার কন্ঠে বুঝি গো আজান থামিয়া যায়।
থালা, ঘটি, বাটি বাঁধা দিয়ে হের চলিয়াছে ঈদগাহে,
তীর খাওয়া বুক, ঋণে- বাঁধা- শির, লুটাতে খোদার রাহে।

জীবনে যাদের হররোজ রোজা ক্ষুধায় আসে না নিদ
মুমুর্ষ সেই কৃষকের ঘরে এসেছে কি আজ ঈদ?
একটি বিন্দু দুধ নাহি পেয়ে যে খোকা মরিল তার
উঠেছে ঈদের চাঁদ হয়ে কি সে শিশু- পাঁজরের হাড়?
আসমান- জোড়া কাল কাফনের আবরণ যেন টুটে।
এক ফালি চাঁদ ফুটে আছে, মৃত শিশুর অধর পুটে।
কৃষকের ঈদ!ঈদগাহে চলে জানাজা পড়িতে তার,
যত তকবির শোনে, বুকে তার তত উঠে হাহাকার।
মরিয়াছে খোকা, কন্যা মরিছে, মৃত্যু- বন্যা আসে
এজিদের সেনা ঘুরিছে মক্কা- মসজিদে আশেপাশে।

কোথায় ইমাম? কোন সে খোৎবা পড়িবে আজিকে ঈদে?
চারিদিকে তব মুর্দার লাশ, তারি মাঝে চোখে বিঁধে
জরির পোশাকে শরীর ঢাকিয়া ধণীরা এসেছে সেথা,
এই ঈদগাহে তুমি ইমাম, তুমি কি এদেরই নেতা?
নিঙ্গাড়ি' কোরান হাদিস ও ফেকাহ, এই মৃতদের মুখে
অমৃত কখনো দিয়াছ কি তুমি? হাত দিয়ে বল বুকে।
নামাজ পড়েছ, পড়েছ কোরান, রোজাও রেখেছ জানি,
হায় তোতাপাখি! শক্তি দিতে কি পেরেছ একটুখানি?
ফল বহিয়াছ, পাওনিক রস, হায় রে ফলের ঝুড়ি,
লক্ষ বছর ঝর্ণায় ডুবে রস পায় নাকো নুড়ি।

আল্লা- তত্ত্ব জেনেছ কি, যিনি সর্বশক্তিমান?
শক্তি পেলো না জীবনে যে জন, সে নহে মুসলমান।
ঈমান! ঈমান! বল রাতদিন, ঈমান কি এত সোজা?
ঈমানদার হইয়া কি কেহ বহে শয়তানি বোঝা?

শোনো মিথ্যুক! এই দুনিয়ায় পুর্ণ যার ঈমান,
শক্তিধর সে টলাইতে পারে ইঙ্গিতে আসমান।
আল্লাহর নাম লইয়াছ শুধু, বোঝনিক আল্লারে।
নিজে যে অন্ধ সে কি অন্যরে আলোকে লইতে পারে?
নিজে যে স্বাধীন হইলনা সে স্বাধীনতা দেবে কাকে?
মধু দেবে সে কি মানুষে, যাহার মধু নাই মৌচাকে?

কোথা সে শক্তি- সিদ্ধ ইমাম, প্রতি পদাঘাতে যার
আবে- জমজম শক্তি- উৎস বাহিরায় অনিবার?
আপনি শক্তি লভেনি যে জন, হায় সে শক্তি-হীন
হয়েছে ইমাম, তাহারি খোৎবা শুনিতেছি নিশিদিন।
দীন কাঙ্গালের ঘরে ঘরে আজ দেবে যে নব তাগিদ
কোথা সে মহা- সাধক আনিবে যে পুন ঈদ?
ছিনিয়া আনিবে আসমান থেকে ঈদের চাঁদের হাসি,
ফুরাবে না কভু যে হাসি জীবনে, কখনো হবে না বাসি।
সমাধির মাঝে গণিতেছি দিন, আসিবেন তিনি কবে?
রোজা এফতার করিব সকলে, সেই দিন ঈদ হবে।
***
© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment